लेखक
दरअसल पानी की समस्या अकेले हमारे देश की ही नहीं समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहाँ जिस तरह पानी की बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो फिर बहुत देर हो जाएगी और तब हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी, जबकि एशिया और खासतौर पर भारत में 2020 तक ही ऐसा होने की आशंका है। इसे अधिक पानी की माँग या खराब गुणवत्ता वाले जल के चलते इसके सीमित मात्रा में इस्तेमाल के तौर पर देखा जा सकता है। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी।
भारत में 2020 तक पानी की किल्लत होने की आशंका है, जिससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा। तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया करता है। इस ग्लेशियर से नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ शामिल हैं।
इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश में जलापूर्ति होती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और ‘ब्लैक कार्बन’ जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा को घटा दिया है और उनमें से कुछ इस सदी के अन्त तक निश्चित रूप से खत्म हो जाएँगे।
ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा के घटने से लाखों लोगों की जलापूर्ति पर असर पड़ेगा और बाढ़ का खतरा पैदा हो सकता है जिससे जान-माल को भारी नुकसान होगा। इससे समुद्र जल के स्तर में बढ़ोत्तरी होगी, जिससे तटीय इलाके में रहने वाले लोगों को खतरे का सामना करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान में बढ़ोत्तरी होगी। वसंत और गर्मियों के मौसम में होने वाली बारिश से बाढ़ का खतरा बढ़ सकता है।
इसमें दो राय नहीं कि आज भले ही लोग पानी की बर्बादी पर ध्यान नहीं दे रहे हों। मगर निकट भविष्य में उन्हें इसका ख़ामियाज़ा भुगतने के लिये तैयार रहना चाहिए। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोत्तरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की माँग उसकी आपूर्ति से 40 फीसदी ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिये तरस जाएँगे।
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर संकट मँडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक हो गया है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल ज़रूरतों को पूरा करने के लिये जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा।
कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनिया भर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा। वैज्ञानिकों ने जोड़ा कि अकेले आपूर्ति सुधारों के जरिए विश्व भर में जल की कमी के अन्तर को पाटने के लिये 124 अरब पौंड (करीब नौ लाख करोड़ रुपए) खर्च करने होंगे।
कुछ बरस पहले ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्ल्यूएन) द्वारा आयोजित अन्तरराष्ट्रीय बैठक में करीब 300 वैज्ञानिकों, नीति निर्धारकों और अर्थशास्त्रियों ने हिस्सा लिया था। उसमें सीडब्ल्यूएन के निदेशक और ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबल एजेंडा काउंसिल ऑन वाटर सिक्योरिटी’ के वाइस चेयरमैन डॉ. कैटले कार्लसन ने कहा था कि इंसान के समक्ष आसानी से आने वाली और करीब खड़ी चुनौतियों के लिये हमें तैयार रहने की जरूरत है। ‘इंटरनेशनल एनवायरोमेंटल टेक्नोलॉजी कंसलटेंट्स क्लीनटेक ग्रुप’ के चेयरमैन निकोल्स पार्कर ने खेती और उद्योगों में भारी मात्रा में इस्तेमाल हो रहे ‘वर्चुअल जल’ पर रोशनी डालते हुए कहा कि वर्चुअल जल का मतलब उत्पादन प्रक्रिया में अन्तः स्थापित पानी की मात्रा से है।
उदाहरण के लिये पार्कर ने कहा कि एक डेस्कटॉप कम्प्यूटर को बनाने के लिये 1.5 टन या 1500 लीटर पानी की जरूरत होती है। डेनिम जींस का जोड़ा तैयार करने में एक टन जल की आवश्यकता पड़ती है जबकि एक किलो गेहूँ उगाने के लिये भी उतने ही जल की जरूरत होती है। पार्कर ने जोड़ा कि अक्सर लोगों को अहसास नहीं होता है कि हर चीज जो हम बनाते या खरीदते हैं उसमें कितना जल खर्च होता है।
जल संग्रहण के उपाय विकसित देशों के घरो में जल की माँग को आसानी से 70 फीसदी तक घटा सकते हैं। जल बचत करने के उदाहरणों में यूरीन सेपरेशन सिस्टम के साथ ड्राई कम्पोस्टिंग टॉयलेट भी शामिल हैं जो बगीचे की खाद की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। ऐसे टॉयलेट से दूसरे मार्ग से निकले जल का खेती में पुनः इस्तेमाल हो सकता है जबकि शेष मल को मिट्टी उर्वर बनाने वाली आर्गेनिक खाद में बदला जा सकता है।यूएस एनवायरोमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के डॉ. निकोल्स एशबोल्ट ने कहा कि जल संग्रहण के उपाय विकसित देशों के घरो में जल की माँग को आसानी से 70 फीसदी तक घटा सकते हैं। जल बचत करने के उदाहरणों में यूरीन सेपरेशन सिस्टम के साथ ड्राई कम्पोस्टिंग टॉयलेट भी शामिल हैं जो बगीचे की खाद की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
ऐसे टॉयलेट से दूसरे मार्ग से निकले जल का खेती में पुनः इस्तेमाल हो सकता है जबकि शेष मल को मिट्टी उर्वर बनाने वाली आर्गेनिक खाद में बदला जा सकता है। डॉ. एशबोल्ट के अनुसार इन तकनीकों का काफी सुरक्षात्मक तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है, यहाँ तक कि काफी घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में भी। बैठक में इस पर भी चर्चा हुई कि पर्यावरण परिवर्तन कैसे दुनिया के अतिसंवेदनशील हिस्सों में बाढ़ के खतरे को बढ़ा रहा है।
देश के सुदूरवर्ती गाँवों की बात छोड़िए, राजधानी दिल्ली को लें, यहाँ के निवासी एक ओर तो अमोनिया युक्त गन्दा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर पानी की पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे कि 40 लाख लोगों की प्यास रोज बुझाई जा सकती है।
राजधानी में पेयजल आपूर्ति के लिये बिछाई गई 9,000 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन बहुत पुरानी हो चुकी हैं, जगह-जगह लीकेज हैं और पानी बेकार बह रहा है। एशिया के 22 प्रमुख शहरों को लेकर किये गए सर्वे में यह बात सामने आई है कि दिल्ली की पाइप लाइनों से 40 प्रतिशत पेयजल लीकेज के रूप में बर्बाद हो जाता है। सर्वे में भारत के तीन शहर दिल्ली, मुम्बई और बंगलुरु शामिल किये गए थे।
जर्मन फर्म सीमेंस से मान्यता प्राप्त ‘एशियन ग्रीन सिटी इंडेक्स’ के अनुसार, दिल्ली में 9.0 करोड़ लीटर पानी की कमी है। इस स्थिति में पेयजल लीकेज की मात्रा वास्तव में किसी को भी झकझोर देने वाली है। सर्वे में बताया गया है कि 22 शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 278 लीटर पानी उपयोग में लाया जाता है। लेकिन, दिल्ली के लोग इस मामले में थोड़े कम खर्चीले हैं और यहाँ प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 209 लीटर पानी उपयोग में लाया जाता है।
यह अलग बात है कि पानी की कम उपलब्धता भी कम खर्च का एक कारण है। सर्वे के अनुसार, 22 शहरों में लीकेज के माध्यम से जो पानी बर्बाद होता है, उसका औसत स्तर 22 प्रतिशत है, लेकिन इस आँकड़े के मुकाबले देश की राजधानी में दोगुने से ज्यादा पानी बर्बाद हो रहा है। पेयजल लीकेज के मामले में मुम्बई की स्थिति ज्यादा अच्छी है। वहाँ पर मात्र 14 प्रतिशत पेयजल लीकेज के कारण बर्बाद होता है।
औसत के अनुसार, मुम्बई में प्रति व्यक्ति कम पानी खर्च होता है। यहाँ के लोग एक दिन में खुद के लिये 250 लीटर पानी खर्च करते हैं। बंगलुरु में भी पानी की बर्बादी कम नहीं हो रही है। वहाँ पर लीकेज के माध्यम से बर्बाद होने वाला पानी 3.9 प्रतिशत है। यहाँ के लोग पानी खर्च करने के मामले में काफी समझदार हैं।
ऐसी हालत में राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तो तभी सम्भव है जबकि हरेक व्यक्ति पानी के महत्त्व को समझे और उसका किफायत से इस्तेमाल करे। एक दूसरे पर दोषारोपण करने से समस्या का निदान नहीं हो सकता।
जहाँ तक इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों का सवाल है, उन्हें कमियों के लिये एक दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए बल्कि मिलकर समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएँ तो काफी मात्रा में पानी की बचत करने में कामयाब हो सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिये जाएँ तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसदी तक पानी की बर्बादी को रोका जा सकता है। बाहरी देशों में फ़ैक्टरियों से निकलने वाले गन्दे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है और वहाँ हमारे यहाँ से अच्छी पैदावार भी हासिल की जाती है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहाँ औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है।
जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे कि उचित प्रबन्धन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।
देश में पानी की घटती उपलब्धता चिन्तनीय है। हमें अपने प्राकृतिक जल संसाधनों पर व्यापक सुधार कर अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबन्धन के क्षेत्र में नई तरह की चुनौतियाँ सामने आई हैं, जिसका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए ताकि पानी के अनावश्यक प्रयोग पर अंकुश लग सके। भूजल सुधार समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि इस समय भूजल का दोहन बढ़ गया है और लोगों की निर्भरता भी भूजल पर लगातार बढ़ती जा रही है, मगर उतनी तेजी से भूजल संसाधनों को विकसित नहीं किया जा रहा है।यह सच है कि जल का महत्त्व केवल मानव जीवन में ही नहीं है बल्कि कृषि एवं घरेलू उत्पाद में पानी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यदि यह क्षेत्र प्रभावित होगा तो उसका असर हमारे आर्थिक विकास में पड़ सकता है। पानी की कमी कृषि, कृषि सम्बन्धी उद्योग, सिंचाई, खनन, लुगदी एवं कागज, लौह, इस्पात एवं ऊर्जा निर्माण में लगी कम्पनियों को प्रभावित कर सकती है।
देश में पानी की घटती उपलब्धता चिन्तनीय है। हमें अपने प्राकृतिक जल संसाधनों पर व्यापक सुधार कर अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबन्धन के क्षेत्र में नई तरह की चुनौतियाँ सामने आई हैं, जिसका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए ताकि पानी के अनावश्यक प्रयोग पर अंकुश लग सके।
भूजल सुधार समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि इस समय भूजल का दोहन बढ़ गया है और लोगों की निर्भरता भी भूजल पर लगातार बढ़ती जा रही है, मगर उतनी तेजी से भूजल संसाधनों को विकसित नहीं किया जा रहा है।
इस समय कुल जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा भूजल पर आश्रित है। इसलिये जल उपलब्धता के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाये। जरूरत है जल क्षेत्र में लगी एजेंसियाँ जल संसाधनों का विकास कर उसके बेहतर प्रबन्धन के रास्ते सुनिश्चित करें।
आज हमारी आबादी लगातार बढ़ रही है। जाहिर है, ऊर्जा की जरूरतें भी बढ़ रही हैं। औद्योगिकीकरण तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक है कि प्रति व्यक्ति पानी की माँग बढ़ रही है। यह एक कटु सच्चाई है कि लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। हालांकि देश में पानी की कमी नहीं है, लेकिन उसके प्रबन्धन की कमी है।
वितरण व्यवस्था ठीक नहीं है। फिर यह भी एक तथ्य है कि लोगों द्वारा पानी की बर्बादी बहुत की जाती है। दरअसल, पानी पर शुल्क नगण्य होने के कारण उसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। इस्तेमाल हो चुके पानी का दोबारा इस्तेमाल न के बराबर है। दुर्याेग से ऐसा बहुत कम हो रहा है। लोग इसके बारे में संजीदगी से सोचते ही नहीं।
आने वाले समय में पानी का सकंट तो होगा ही। इसके बारे में अनुमान भी लगाए गए हैं। इसीलिये पर्यावरणविद् बार-बार पानी के संरक्षण और एफिशिएंसी पर जोर दे रहे हैं। इसके लिये एक तो सरकार को हर घर, फैक्टरी, बिल्डिंग में वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए। इससे भूजल रिचार्ज होता रहेगा। दूसरे पानी के दोबारा इस्तेमाल से उसकी एफिशिएंसी बढ़ाई जा सकेगी। इस दिशा में बड़े पैमाने पर कार्य किये जाने की जरूरत है।
ग्रामीण भारत में भी बारिश के पानी को तालाबों और कुओं में जमा करने की परम्परा थी, अब वह खत्म होती जा रही है। इसे फिर से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत यह है कि पानी के निजी और व्यावसायिक इस्तेमाल पर टैक्स लगाया जाये। विला वजह की सब्सिडी को खत्म कर दिया जाना चाहिए।
असल में हमारे देश में खेती में 80 फीसदी पानी इस्तेमाल होता है, इसमें पानी के दुरुपयोग की मात्रा काफी होती है। इसके बेहतर प्रबन्धन की जरूरत है। आज हमें पूरी-की-पूरी धरती के पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने की जरूरत है। यह विकास और पर्यावरण के बीच गहन ताल मेल बिठाये बिना असम्भव है। इसका सबसे ज्यादा अभाव है।
इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि पानी राष्ट्रीय सम्पत्ति है, निजी नहीं। इसके बिना हमारा जीवित रहना असम्भव है। इसका समग्र फायदा समाज को मिलना चाहिए। इसलिये कुदरत की इस अनमोल देन को हमेशा के लिये खत्म होने से बचाना हमारा कर्तव्य है। ऐसा करने में यदि हम समर्थ हो गए, तभी जल संकट का सामना किया जा सकता है। यदि आज हम पानी बचाएँगे तो कल हमें पानी बचाएगा। अन्यथा सब कुछ खत्म हो जाएगा।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी, जबकि एशिया और खासतौर पर भारत में 2020 तक ही ऐसा होने की आशंका है। इसे अधिक पानी की माँग या खराब गुणवत्ता वाले जल के चलते इसके सीमित मात्रा में इस्तेमाल के तौर पर देखा जा सकता है। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी।
भारत में 2020 तक पानी की किल्लत होने की आशंका है, जिससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा। तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया करता है। इस ग्लेशियर से नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ शामिल हैं।
इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश में जलापूर्ति होती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और ‘ब्लैक कार्बन’ जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा को घटा दिया है और उनमें से कुछ इस सदी के अन्त तक निश्चित रूप से खत्म हो जाएँगे।
ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा के घटने से लाखों लोगों की जलापूर्ति पर असर पड़ेगा और बाढ़ का खतरा पैदा हो सकता है जिससे जान-माल को भारी नुकसान होगा। इससे समुद्र जल के स्तर में बढ़ोत्तरी होगी, जिससे तटीय इलाके में रहने वाले लोगों को खतरे का सामना करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान में बढ़ोत्तरी होगी। वसंत और गर्मियों के मौसम में होने वाली बारिश से बाढ़ का खतरा बढ़ सकता है।
इसमें दो राय नहीं कि आज भले ही लोग पानी की बर्बादी पर ध्यान नहीं दे रहे हों। मगर निकट भविष्य में उन्हें इसका ख़ामियाज़ा भुगतने के लिये तैयार रहना चाहिए। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोत्तरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की माँग उसकी आपूर्ति से 40 फीसदी ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिये तरस जाएँगे।
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर संकट मँडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक हो गया है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल ज़रूरतों को पूरा करने के लिये जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा।
कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनिया भर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा। वैज्ञानिकों ने जोड़ा कि अकेले आपूर्ति सुधारों के जरिए विश्व भर में जल की कमी के अन्तर को पाटने के लिये 124 अरब पौंड (करीब नौ लाख करोड़ रुपए) खर्च करने होंगे।
कुछ बरस पहले ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्ल्यूएन) द्वारा आयोजित अन्तरराष्ट्रीय बैठक में करीब 300 वैज्ञानिकों, नीति निर्धारकों और अर्थशास्त्रियों ने हिस्सा लिया था। उसमें सीडब्ल्यूएन के निदेशक और ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबल एजेंडा काउंसिल ऑन वाटर सिक्योरिटी’ के वाइस चेयरमैन डॉ. कैटले कार्लसन ने कहा था कि इंसान के समक्ष आसानी से आने वाली और करीब खड़ी चुनौतियों के लिये हमें तैयार रहने की जरूरत है। ‘इंटरनेशनल एनवायरोमेंटल टेक्नोलॉजी कंसलटेंट्स क्लीनटेक ग्रुप’ के चेयरमैन निकोल्स पार्कर ने खेती और उद्योगों में भारी मात्रा में इस्तेमाल हो रहे ‘वर्चुअल जल’ पर रोशनी डालते हुए कहा कि वर्चुअल जल का मतलब उत्पादन प्रक्रिया में अन्तः स्थापित पानी की मात्रा से है।
उदाहरण के लिये पार्कर ने कहा कि एक डेस्कटॉप कम्प्यूटर को बनाने के लिये 1.5 टन या 1500 लीटर पानी की जरूरत होती है। डेनिम जींस का जोड़ा तैयार करने में एक टन जल की आवश्यकता पड़ती है जबकि एक किलो गेहूँ उगाने के लिये भी उतने ही जल की जरूरत होती है। पार्कर ने जोड़ा कि अक्सर लोगों को अहसास नहीं होता है कि हर चीज जो हम बनाते या खरीदते हैं उसमें कितना जल खर्च होता है।
जल संग्रहण के उपाय विकसित देशों के घरो में जल की माँग को आसानी से 70 फीसदी तक घटा सकते हैं। जल बचत करने के उदाहरणों में यूरीन सेपरेशन सिस्टम के साथ ड्राई कम्पोस्टिंग टॉयलेट भी शामिल हैं जो बगीचे की खाद की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। ऐसे टॉयलेट से दूसरे मार्ग से निकले जल का खेती में पुनः इस्तेमाल हो सकता है जबकि शेष मल को मिट्टी उर्वर बनाने वाली आर्गेनिक खाद में बदला जा सकता है।यूएस एनवायरोमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के डॉ. निकोल्स एशबोल्ट ने कहा कि जल संग्रहण के उपाय विकसित देशों के घरो में जल की माँग को आसानी से 70 फीसदी तक घटा सकते हैं। जल बचत करने के उदाहरणों में यूरीन सेपरेशन सिस्टम के साथ ड्राई कम्पोस्टिंग टॉयलेट भी शामिल हैं जो बगीचे की खाद की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
ऐसे टॉयलेट से दूसरे मार्ग से निकले जल का खेती में पुनः इस्तेमाल हो सकता है जबकि शेष मल को मिट्टी उर्वर बनाने वाली आर्गेनिक खाद में बदला जा सकता है। डॉ. एशबोल्ट के अनुसार इन तकनीकों का काफी सुरक्षात्मक तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है, यहाँ तक कि काफी घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में भी। बैठक में इस पर भी चर्चा हुई कि पर्यावरण परिवर्तन कैसे दुनिया के अतिसंवेदनशील हिस्सों में बाढ़ के खतरे को बढ़ा रहा है।
देश के सुदूरवर्ती गाँवों की बात छोड़िए, राजधानी दिल्ली को लें, यहाँ के निवासी एक ओर तो अमोनिया युक्त गन्दा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर पानी की पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे कि 40 लाख लोगों की प्यास रोज बुझाई जा सकती है।
राजधानी में पेयजल आपूर्ति के लिये बिछाई गई 9,000 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन बहुत पुरानी हो चुकी हैं, जगह-जगह लीकेज हैं और पानी बेकार बह रहा है। एशिया के 22 प्रमुख शहरों को लेकर किये गए सर्वे में यह बात सामने आई है कि दिल्ली की पाइप लाइनों से 40 प्रतिशत पेयजल लीकेज के रूप में बर्बाद हो जाता है। सर्वे में भारत के तीन शहर दिल्ली, मुम्बई और बंगलुरु शामिल किये गए थे।
जर्मन फर्म सीमेंस से मान्यता प्राप्त ‘एशियन ग्रीन सिटी इंडेक्स’ के अनुसार, दिल्ली में 9.0 करोड़ लीटर पानी की कमी है। इस स्थिति में पेयजल लीकेज की मात्रा वास्तव में किसी को भी झकझोर देने वाली है। सर्वे में बताया गया है कि 22 शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 278 लीटर पानी उपयोग में लाया जाता है। लेकिन, दिल्ली के लोग इस मामले में थोड़े कम खर्चीले हैं और यहाँ प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 209 लीटर पानी उपयोग में लाया जाता है।
यह अलग बात है कि पानी की कम उपलब्धता भी कम खर्च का एक कारण है। सर्वे के अनुसार, 22 शहरों में लीकेज के माध्यम से जो पानी बर्बाद होता है, उसका औसत स्तर 22 प्रतिशत है, लेकिन इस आँकड़े के मुकाबले देश की राजधानी में दोगुने से ज्यादा पानी बर्बाद हो रहा है। पेयजल लीकेज के मामले में मुम्बई की स्थिति ज्यादा अच्छी है। वहाँ पर मात्र 14 प्रतिशत पेयजल लीकेज के कारण बर्बाद होता है।
औसत के अनुसार, मुम्बई में प्रति व्यक्ति कम पानी खर्च होता है। यहाँ के लोग एक दिन में खुद के लिये 250 लीटर पानी खर्च करते हैं। बंगलुरु में भी पानी की बर्बादी कम नहीं हो रही है। वहाँ पर लीकेज के माध्यम से बर्बाद होने वाला पानी 3.9 प्रतिशत है। यहाँ के लोग पानी खर्च करने के मामले में काफी समझदार हैं।
ऐसी हालत में राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तो तभी सम्भव है जबकि हरेक व्यक्ति पानी के महत्त्व को समझे और उसका किफायत से इस्तेमाल करे। एक दूसरे पर दोषारोपण करने से समस्या का निदान नहीं हो सकता।
जहाँ तक इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों का सवाल है, उन्हें कमियों के लिये एक दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए बल्कि मिलकर समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएँ तो काफी मात्रा में पानी की बचत करने में कामयाब हो सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिये जाएँ तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसदी तक पानी की बर्बादी को रोका जा सकता है। बाहरी देशों में फ़ैक्टरियों से निकलने वाले गन्दे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है और वहाँ हमारे यहाँ से अच्छी पैदावार भी हासिल की जाती है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहाँ औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है।
जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे कि उचित प्रबन्धन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।
देश में पानी की घटती उपलब्धता चिन्तनीय है। हमें अपने प्राकृतिक जल संसाधनों पर व्यापक सुधार कर अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबन्धन के क्षेत्र में नई तरह की चुनौतियाँ सामने आई हैं, जिसका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए ताकि पानी के अनावश्यक प्रयोग पर अंकुश लग सके। भूजल सुधार समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि इस समय भूजल का दोहन बढ़ गया है और लोगों की निर्भरता भी भूजल पर लगातार बढ़ती जा रही है, मगर उतनी तेजी से भूजल संसाधनों को विकसित नहीं किया जा रहा है।यह सच है कि जल का महत्त्व केवल मानव जीवन में ही नहीं है बल्कि कृषि एवं घरेलू उत्पाद में पानी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यदि यह क्षेत्र प्रभावित होगा तो उसका असर हमारे आर्थिक विकास में पड़ सकता है। पानी की कमी कृषि, कृषि सम्बन्धी उद्योग, सिंचाई, खनन, लुगदी एवं कागज, लौह, इस्पात एवं ऊर्जा निर्माण में लगी कम्पनियों को प्रभावित कर सकती है।
देश में पानी की घटती उपलब्धता चिन्तनीय है। हमें अपने प्राकृतिक जल संसाधनों पर व्यापक सुधार कर अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबन्धन के क्षेत्र में नई तरह की चुनौतियाँ सामने आई हैं, जिसका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए ताकि पानी के अनावश्यक प्रयोग पर अंकुश लग सके।
भूजल सुधार समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि इस समय भूजल का दोहन बढ़ गया है और लोगों की निर्भरता भी भूजल पर लगातार बढ़ती जा रही है, मगर उतनी तेजी से भूजल संसाधनों को विकसित नहीं किया जा रहा है।
इस समय कुल जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा भूजल पर आश्रित है। इसलिये जल उपलब्धता के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाये। जरूरत है जल क्षेत्र में लगी एजेंसियाँ जल संसाधनों का विकास कर उसके बेहतर प्रबन्धन के रास्ते सुनिश्चित करें।
आज हमारी आबादी लगातार बढ़ रही है। जाहिर है, ऊर्जा की जरूरतें भी बढ़ रही हैं। औद्योगिकीकरण तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक है कि प्रति व्यक्ति पानी की माँग बढ़ रही है। यह एक कटु सच्चाई है कि लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। हालांकि देश में पानी की कमी नहीं है, लेकिन उसके प्रबन्धन की कमी है।
वितरण व्यवस्था ठीक नहीं है। फिर यह भी एक तथ्य है कि लोगों द्वारा पानी की बर्बादी बहुत की जाती है। दरअसल, पानी पर शुल्क नगण्य होने के कारण उसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। इस्तेमाल हो चुके पानी का दोबारा इस्तेमाल न के बराबर है। दुर्याेग से ऐसा बहुत कम हो रहा है। लोग इसके बारे में संजीदगी से सोचते ही नहीं।
आने वाले समय में पानी का सकंट तो होगा ही। इसके बारे में अनुमान भी लगाए गए हैं। इसीलिये पर्यावरणविद् बार-बार पानी के संरक्षण और एफिशिएंसी पर जोर दे रहे हैं। इसके लिये एक तो सरकार को हर घर, फैक्टरी, बिल्डिंग में वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए। इससे भूजल रिचार्ज होता रहेगा। दूसरे पानी के दोबारा इस्तेमाल से उसकी एफिशिएंसी बढ़ाई जा सकेगी। इस दिशा में बड़े पैमाने पर कार्य किये जाने की जरूरत है।
ग्रामीण भारत में भी बारिश के पानी को तालाबों और कुओं में जमा करने की परम्परा थी, अब वह खत्म होती जा रही है। इसे फिर से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत यह है कि पानी के निजी और व्यावसायिक इस्तेमाल पर टैक्स लगाया जाये। विला वजह की सब्सिडी को खत्म कर दिया जाना चाहिए।
असल में हमारे देश में खेती में 80 फीसदी पानी इस्तेमाल होता है, इसमें पानी के दुरुपयोग की मात्रा काफी होती है। इसके बेहतर प्रबन्धन की जरूरत है। आज हमें पूरी-की-पूरी धरती के पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने की जरूरत है। यह विकास और पर्यावरण के बीच गहन ताल मेल बिठाये बिना असम्भव है। इसका सबसे ज्यादा अभाव है।
इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि पानी राष्ट्रीय सम्पत्ति है, निजी नहीं। इसके बिना हमारा जीवित रहना असम्भव है। इसका समग्र फायदा समाज को मिलना चाहिए। इसलिये कुदरत की इस अनमोल देन को हमेशा के लिये खत्म होने से बचाना हमारा कर्तव्य है। ऐसा करने में यदि हम समर्थ हो गए, तभी जल संकट का सामना किया जा सकता है। यदि आज हम पानी बचाएँगे तो कल हमें पानी बचाएगा। अन्यथा सब कुछ खत्म हो जाएगा।