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कहने को दिल्ली में दो साल से पहले से पॉलिथीन पर बंदिश है। लेकिन वह केवल दिखावा है और आज भी बेरोकटोक 585 टन के करीब प्लास्टिक कचरा रोजाना निकल रहा है। इसमें मेडीकल और इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रदूषण में और जहर घोल रहा है। यह पानी को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभा रहा है। अब सरकार दिल्ली में प्लास्टिक से ऊर्जा बनाने का दावा कर रही है। सरकार की मानें तो इससे ठोस प्लास्टिक से होने वाले नुकसान से बचा जा सकेगा। बीते दिनों इंडोनेशिया में खूबसरती के लिये विख्यात और पर्यटकों की पसन्द वाले बाली में कूड़े के कारण स्थानीय प्रशासन को आपात स्थिति की घोषणा करनी पड़ी। इंडोनेशिया में ताड़ के पेड़ों से घिरा रहने वाला बाली का समुद्री तट समुद्र में सर्फिंग और तट पर धूप सेंकने के शौकीन पर्यटकों के लिये लम्बे समय से आकर्षण का केन्द्र रहा है। इंडोनेशिया संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण की ‘क्लीन सी मुहिम’ में शामिल 40 देशों के संगठन में शामिल है।
इस मुहिम का एकमात्र लक्ष्य समुद्र को दूषित करने वाले प्लास्टिक के कचरे से मुक्ति दिलाना है। बाली द्वीपों के लिये मशहूर दुनिया के पर्यटकों की पहली पसन्द के रूप में जाना जाता है। 17 हजार से अधिक द्वीपों का यह द्वीपसमूह समुद्री कचरा पैदा करने वाले देशों में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। कारण यहाँ पर सालाना 12.9 लाख टन कचरा पैदा होता है। इससे बीते दिनों यहाँ यह समस्या इतनी विकराल हो गई कि बाली में जिमबारन, कुटा और सेमियांक जैसे लोकप्रिय विख्यात समुद्री तटों सहित तकरीब छह किलोमीटर लम्बे समुद्र तट पर फैले कचरे के कारण प्रशासन को आपात स्थिति की घोषणा करने को बाध्य होना पड़ा।
अधिकारियों को रोजाना तकरीबन 100 टन कचरे को पास के लैंडफिल तक ले जाने के लिये 700 सफाईकर्मियों और 35 ट्रकों को तैनात करना पड़ा। बाली की घटना से साफ जाहिर है कि कचरे की समस्या व्यवस्था से जुड़ी है। जरूरी है इसके प्रति सरकार की संवेदनशीलता और इसके निपटारे के लिये प्रबल इच्छाशक्ति। यह किसी भी समस्या के निदान की दिशा में बेहद जरूरी है। यह काम कर दिखाया इंडोनेशियाई सरकार ने। इसके लिये उसकी कितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है।
हमारी सरकार दावे तो बहुत करती है लेकिन किसी दूसरे से कुछ सीखना नहीं चाहती। बीते साल की घटना देश की राजधानी दिल्ली के गाजीपुर की ही है जहाँ कूड़े के पहाड़ गिरने से एक बड़ा हादसा हुआ जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। हादसे के बाद कहा गया कि अब कूड़े-कचरे की समस्या राजधानी में विकराल हो चुकी है। इसलिये अब इसका निस्तारण करना ही होगा। कुछ समय के लिये गाजीपुर लैण्डफिल साइट पर कूड़ा डालने पर रोक लगा दी गई। कूड़े को अन्यत्र डालने पर काफी दिनों तक माथापच्ची की गई।
एनजीटी ने इस मामले में सरकार और निगमों की उनकी लापरवाही के लिये काफी खिंचाई की। दिल्ली हाईकोर्ट तक ने दिल्ली के उपराज्यपाल श्री अनिल बैजल से कूड़े के निस्तारण के लिये बनी नीति को तीन सप्ताह में लागू करने के निर्देश दिये। साथ ही हाईकोर्ट ने सुझाव दिया कि इस समस्या से निपटने के लिये एक ठोस कानून की जरूरत है ताकि कूड़ा फैलाने वालों से अधिक जुर्माना वसूलने के लिये कानून में भी संशोधन किया जा सके। विडम्बना यह कि अभी तक दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच यह पेंच फँसा हुआ है कि कचरा प्रबन्धन के मामले में ‘जुर्माना’ लगाना उचित है या नहीं। दिल्ली सरकार इस व्यवस्था पत्र द्वारा लिखित रूप से विरोध कर चुकी है।
बहरहाल दिल्ली नगर निगम ने फिलहाल कूड़े के पहाड़ को खत्म करने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि वह इस काम को दो साल में पूरा कर पाएगी। निगम का कहना है कि अब लैण्डफिल साइट के कूड़े के निस्तारण का जिम्मा भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का है उसका नहीं। प्राधिकरण इस कूड़े का इस्तेमाल एनएच-24 के निर्माण में करेगा। एनएच-24 के निर्माण में 65 फीसदी ठोस कूड़ा इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन विडम्बना देखिए कि अभी तक कूड़े के निस्तारण और प्रबन्धन के बारे में निश्चित कार्ययोजना का पूरी तरह अभाव है।
सुप्रीम कोर्ट तक ने इस बारे में दिल्ली सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि वे ठोस कचरे के प्रबन्धन के मामले पर गम्भीर नहीं हैं। यही नहीं कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में कार्यवाही और उचित कदम उठाने के प्रति अधिकारियों में इच्छाशक्ति का अभाव है। यह पूरे देश के लिये एक गम्भीर समस्या है। हम अपेक्षा करते हैं कि दिल्ली में ठोस कचरे के प्रबन्धन के बारे में एक निश्चित कार्ययोजना और रणनीति तैयार की जाएगी ताकि इसे देश के दूसरे राज्यों में भी अपनाया जा सके।
इससे अकेले दिल्लीवासी ही नहीं, समीपस्थ जिले गाजियाबाद के बाशिन्दे तक प्रभावित हो रहे हैं। दिन की बात तो दीगर है, रात में भी आस-पास के सोसाइटियों के बाशिन्दों का इसकी बदबू से जीना दूभर हो गया है। उन्हें साँस की बीमारियों, फेफड़ों, आँख, लिवर, दमा, ब्रोंकाइटिस और टीबी जैसी बीमारियों से जूझना पड़ रहा है। सबसे अधिक इसकी मार पाँच साल तक के बच्चों को झेलनी पड़ रही है।
कूड़े से बच्चे डायरिया, पेट में इन्फेक्शन और कालरा जैसी बीमारियों के शिकार होे रहे हैं। गाजीपुर स्थित कचरे के पहाड़ के आसपास रहने वाले लोगों को दूषित हवा के कारण आये-दिन कूड़ा जलने से सीने व गले में संक्रमण, आँखों में जलन और कई गम्भीर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। बदबू के कारण लोगों का साँस लेना दूभर हो जाता है, उनका दम फूलने लगता है, उनकी आँखों में जलन होती रहती है। यह लोगों की प्रतिरोधक क्षमता क्षीण कर देता है। ऐसी स्थिति में बीमारियाँ लोगों को तेजी से अपनी जकड़ में ले लेती हैं।
असल में लैंडफिल साइट पर हर तरह का कूड़ा -कचरा फेंका जाता है जिसके चलते हवा में कई तरह के विषैले कीटाणु मौजूद रहते हैं। जरूरत है कि यहाँ के लोगों की लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी जाँच की जाये लेकिन इस पर किसी का कोई ध्यान ही नहीं है। जबकि इस बारे में इण्डियन मेडिकल काउंसिल भी चेता चुका है।
सबसे बड़ा संकट जल प्रदूषण का है। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय गाजीपुर के प्रदूषण के बारे में बहुत पहले ही चेतावनी दे चुका है। उसके अनुसार यहाँ पानी में टीडीएस 2016 एमजी प्रति लीटर तक है। कुल कठोरता 835 और एल्केलिटी 512 एमजी प्रति लीटर है। उसके अनुसार यह इलाका देश का सबसे प्रदूषित इलाका है।
सीएसई की अनुमिता रॉय चौधरी की मानें तो किसी भी लैंडफिल की साइट बनाने के लिये प्लास्टिक की एक परत को नीचे बिछाना पड़ता है। चूँकि इन पहाड़ों पर हर तरह का कूड़ा डाला जाता है, नतीजतन यहाँ जमीन के नीचे के पानी के दूषित होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। जेएनयू के स्कूल ऑफ इनवायरमेंट साइंस तो पाँच साल पहले ही इसकी चेतावनी दे चुका है कि यहाँ के ठोस कचरे में निकिल, जिंक, आर्सेनिक, लैड और क्रोमियम जैसे हानिकारक तत्व मिले हैं। इसका असर भूजल पर पड़ना निश्चित है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। सीपीसीबी भी दो साल पहले साफ कर चुका है कि लैंडफिल साइट के चलते आनन्द विहार का इलाका सबसे अधिक प्रदूषण वाले इलाकों में शामिल है। लैंडफिल साइट पर लगातार आग जलने से वायु प्रदूषण की भयावहता को झुठलाया नहीं जा सकता।
देखा जाये तो कूड़े के मामले में हमारे विकल्प बहुत ही सीमित हैं। ऐसी स्थिति में कूड़ा-कचरा निपटान बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। देश में एक साल में कुल 44 लाख टन कूड़ा-कचरा हर साल निकलता है। इसमें 22 फीसदी अकेले घरेलू गन्दगी होती है और 50 फीसदी से अधिक कागज, पुट्ठा या लकड़ी आदि होती है।
सरकार मानती है कि देश के कुल कूड़े-कचरे का केवल पाँच फीसदी का ही वह निपटान करने में सक्षम है। उसकी मानें तो इतनी बड़ी तादाद में कूड़े-कचरे को एक जगह इकट्ठा करना व उसे दूसरी जगह ढोकर ले जाना दुरूह काम है। राजधानी दिल्ली में ही रोजाना तकरीब सात हजार मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा निकल रहा है। जबकि इसका 57 फीसदी कूड़ा-कचरा यमुना में बहा दिया जाता है। यह स्थिति तब है जबकि इसमें से अधिकांशतः प्लास्टिक, कागज, गत्ते के टुकड़े, धातु आदि को कचरा बीनने वाले निकालकर बेच देते हैं। शेष तकरीब तीस फीसदी कूड़े-कचरे का निपटान कर पाने में दिल्ली के तीन-तीन निगम अपने को असमर्थ पा रहे हैं।
कहने को दिल्ली में दो साल से पहले से पॉलिथीन पर बंदिश है। लेकिन वह केवल दिखावा है और आज भी बेरोकटोक 585 टन के करीब प्लास्टिक कचरा रोजाना निकल रहा है। इसमें मेडीकल और इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रदूषण में और जहर घोल रहा है। यह पानी को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभा रहा है। अब सरकार दिल्ली में प्लास्टिक से ऊर्जा बनाने का दावा कर रही है। सरकार की मानें तो इससे ठोस प्लास्टिक से होने वाले नुकसान से बचा जा सकेगा। दिल्ली की कामयाबी के बाद वह इसका प्रयोग चंडीगढ़, मुम्बई और देहरादून में करेगी। विचारणीय यह है कि यह काम तो सरकार पहले भी कर सकती थी। आखिर उसने समस्या के भयावह होने का इन्तजार ही क्यों किया।
यह तय है अलग-अलग तरीकों से इसे बढ़ाने में समाज की बहुत बड़ी भूमिका है लेकिन इसके निपटान की व्यवस्था का दायित्व तो सरकार पर ही है। भले दिल्ली के सारे डलाव घर भर चुके हों और 2021 तक दिल्ली के कूड़े की मात्रा 16 हजार मीट्रिक टन क्यों न हो जाये। इसकी आशंका तो सरकार को पहले से ही थी। इसलिये इस मामले में सरकार की नाकामी को दरगुजर नहीं किया जा सकता। यह अकेले देश की राजधानी की बदहाल तस्वीर है, पूरे देश की हालत क्या होगी, इसका सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे हालात में इस साल के आखिर तक देश के बीस शहरों के कचरा मुक्त होने का दावा सच हो पाएगा, इसमें सन्देह है। लेकिन यह तय है कि कूड़े-कचरे के ढेरों के चलते लोग जानलेवा बीमारियों की चपेट में आकर अनचाहे मौत के मुँह में जाते रहेंगे। इसको झुठलाया नहीं जा सकता।