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योजना, मई 1995
आज जलवायु परिवर्तन तथा पृथ्वी पर उपजे संकट का समाधान खोजा जाना आवश्यक है, जो बहुत दुरूह नहीं है। जनसंख्या नियंत्रण तथा वनों की कटाई को रोका जाना, औद्योगिक प्रदूषणों पर अंकुश रखकर उन्हें कम करना, पेड़-पौधों को उगाना जैसे विश्वव्यापी कार्यक्रमों की जेहाद छेड़ने की आवश्यकता है।
आज से आठ वर्ष पूर्व जब 1988 की गर्मियों में अमरीका के शहरों में तापक्रम एक सौ डिग्री फारेनहाइट से भी अधिक बढ़ गया तो जलवायु परिवर्तन यकायक एक विश्वव्यापी चिन्ता का कारण बन गया। इसे पूर्व की भाँति तीसरी दुनिया की स्थानीय समस्याएँ कहकर नजरअन्दाज कर देना असम्भव हो गया।पृथ्वी के गर्म होने तथा जलवायु परिवर्तन की घटना विश्वव्यापी मुद्दा बन गई। सारे औद्योगिक देशों की सरकारें और वैज्ञानिक एकाएक सजग हो गए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर की बैठकों और गोष्ठियों में यह निष्कर्ष सामने आया कि यह जलवायु परिवर्तन औद्योगिक देशों की प्रदूषक उत्पादन प्रणाली तथा उन्हीं के द्वारा ऊर्जा आधारित उद्योग तथा कृषि प्रणालियाँ तीसरी दुनिया के देशों में भी प्रचारित करना है।
परिणामस्वरूप लगातार कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) जैसी विषाक्त गैसें अधिक मात्रा में छोड़ी गईं। यह गैसें धरती की गर्मी को वातावरण में रोककर ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ पैदा करती रहीं। हमारे वायुमण्डल में मात्र 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड है तथा सूर्य ऊर्जा को अवशोषित कर (ग्रीन हाउस प्रभाव) वातावरण का तापमान 15 से 0 पर स्थिर रखती है, जो पृथ्वी पर जीवन पनपने के लिये आवश्यक है। लेकिन वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की निरन्तर हो रही वृद्धि से अन्य गैसों का सन्तुलन गड़बड़ा रहा है।
इस आधुनिक विकास के दौड़ में हमारे विकसित और सभ्य होने का पैमाना यह हो गया है कि हम कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, न कि यह कि हम कितनी ऊर्जा बचा सकते हैं। यही कारण है कि आज विश्व में इस समय 63 करोड़ वाहन हैं, जोकि आने वाले बीस वर्षों में ठीक दोगुने यानी एक अरब 26 करोड़ हो जाएँगे। इनसे निकलने वाली गैसें पर्यावरण को प्रदूषित कर नई-नई बीमारियों को जन्म देंगी। आज पेट्रोल तथा रासायनिक ऊर्जा के प्रयोग में एक कैलोरी खाद्य-पदार्थ उत्पादन में 10 कैलोरी प्रदूषणकारी तथा पुनः उपयोग होने वाली ऊर्जा में खर्च होती है।
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण औद्योगिक देशों की प्रदूषक प्रणाली के अलावा पृथ्वी पर निरन्तर बढ़ती जनसंख्या भी है। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही वस्तुओं की माँग बढ़ने के कारण औद्योगीकरण का फैलाव होता चला आ रहा है। अधिक, कारखानें, अधिक धुआँ, अधिक गैसें, यातायात और माल ढोने के लिये वाहनों तथा अन्य साधनों में वृद्धि होती है। इनसे अधिक धुआँ पैदा होता है और वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है। आजोन की परत क्षीण हो रही है।
आने वाले वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से तापक्रम 7 से 9 प्रतिशत बढ़ने की सम्भावना है। तापक्रम बढ़ने से ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, जिससे पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ रहा है। वे द्वीप तथा स्थल जो समुद्र तट से अधिक ऊँचाई पर नहीं है, उनके डूबने का खतरा पैदा हो गया है।
भारत का क्षेत्रफल विश्व का केवल 2.5 प्रतिशत है, परन्तु जनसंख्या विश्व की जनसंख्या के 16 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के कारण ही आवास की समस्या, ईंधन की समस्या तथा विलासितावादी संस्कृति के पनपने के लिये वनों-वृक्षों का सफाया हो रहा है। इससे भी प्राणवायु का अनुपात घट रहा है।
वनों-वृक्षों के कटते चले जाने से वायुमण्डल तथा पृथ्वी गर्म तो हो रही है, साथ ही कहीं-कहीं अधिक बरसात भी होने लगी है, जिससे हमारी उपजाऊ तथा उर्वरा भूमि बहकर समुद्र में समा रही है। अकेले भारत में ही हर साल 600 टन उपजाऊ मिट्टी बहकर समुद्र में गिर रही है।
सुप्रसिद्ध धरती विशेषज्ञ प्रोफेसर राज्ड डूडाल्ड के अनुसार प्रतिवर्ष दुनिया भर की 50 से 70 लाख हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी समुद्र की गोद में समाती जा रही है। यदि यही क्रम निरन्तर जारी रहा तो अगले बीस वर्षों में दुनिया की 14 करोड़ हेक्टेयर मिट्टी बह जाएगी। उस समय दुनिया की आबादी 2000 करोड़ हो चुकी होगी, जिसके लिये उपजाऊ मिट्टी के अभाव में खाद्य-सामग्री, मुख्य रूप से अनाज एकत्रित करना एक भयानक समस्या बन जाएगी।
आज जलवायु परिवर्तन तथा पृथ्वी पर उपजे संकट का समाधान खोजा जाना आवश्यक है, जो बहुत दुरूह नहीं है। जनसंख्या नियंत्रण तथा वनों की कटाई को रोका जाना, औद्योगिक प्रदूषणों पर अंकुश रखकर उन्हें कम करना, पेड़-पौधों को उगाना जैसे विश्वव्यापी कार्यक्रमों की जेहाद छेड़ने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि विकसित देश अपने दृष्टिकोण को बदलें तथा आर्थिक उदारीकरण की आड़ में विकासशील देशों को कर्ज के शिकंजों में जकड़ने की नीयत को तिलांजलि दें, क्योंकि उत्तरी देशों की आर्थिक प्रक्रियाएँ जहाँ उन्हें समृद्ध बनाती हैं, वहाँ दक्षिण के देशों में कुछ लोगों को छोड़कर गरीबी और पिछड़ेपन को बढ़ावा दे रही हैं। अपनी इन्हीं कमजोरियों के निराकरण की आशाएँ विकासशील देशों की प्राकृतिक सम्पदाओं को लील रही है।
बड़े और विकसित देश जब तक छोटे तथा विकासशील देशों के साथ असमान व्यवहार और ऐसे ही छलपूर्ण असमान सौदे करते रहेंगे, पृथ्वी के अस्तित्त्व का संकट बना रहेगा और यह क्षुब्ध-क्रुद्ध होकर धधकती रहेगी।
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