अब यह सपने जैसा लगने लग रहा है कि क्या वाकई उत्तराखण्ड कभी ‘वाटर टैंक’ होगा। यह पंक्ति ठीक वैसे ही लग रही है जैसे हम लोग गाये-बगाहे कहते हैं कि हमारा देश सोने की चिड़िया है। पानी की किल्लत से गाँव के गाँव पहाड़ से नदियों के किनारे और शहरों में पलायन कर रहे हैं। राज्य में पलायन की समस्या कुछ और भी है, परन्तु मौजूदा समय में पानी की समस्या राज्य के लोगों के सामने मुँहबाये खड़ी है।
जल संस्थान ने राज्यभर में पानी की किल्लत से जूझने वाले 846 संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया है। इसके लिये बाकायदा संस्थान ने जलापूर्ती के लिये टैंकरों और अन्य सुविधाओं का भी प्रबन्धन कर दिया है। बताते चलें कि ये वे गाँव हैं जो दुर्गम और पहाड़ी हैं। पर इन गाँवों में सड़क पहुँच चुकी है। पाईपलाईन हैं परन्तु इन पाईपलाईनों में पानी नहीं है। स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि पिछले 20 वर्षो में उनके गाँवों के जंगल कम हुये हैं। जैसे-जैसे जंगल कम हुये वैसे-वैसे प्राकृतिक जल स्रोत में पानी की मात्रा कम होती गयी। अब हालात ऐसे बन गये हैं कि गर्मी का सीजन आरम्भ होते ही लोग पेयजल के लिये तरस जाते हैं।
उत्तरकाशी के बजलाड़ी गाँव के रमेश इन्दवाण बताता है कि पहले उनके गाँव में एक जल धारा थी जो देवता के नाम से जानी जाती थी। अब इस जल धारा के अवशेष मात्र रह गये हैं। वे आगे बताते हैं कि गर्मीयों के मौसम में यही जल धारा थी जो लोगों की प्यास बुझाने का काम करती थी। क्योंकि पाईपलाईन का पानी गर्मीयों में अक्सर सूख ही जाता था। हालात इस कदर हो गये हैं कि उनके गाँव की जल धारा, सूखने के कारण लोग गर्मीयों में नदी के किनारे गौशाला में रहने के लिये चले जाते हैं और बरसात तक का समय गौशाला में ही बिताते हैं।
यह उत्तरकाशी के बजलाड़ी गाँव की समस्या ही नहीं बल्कि राज्य के लगभग सभी पहाड़ी गाँव की समस्या बन चुकी है। इधर देहरादून के जनजातिय क्षेत्र पर नजर दौड़ायें तो चौंकाने वाले आँकड़े सामने आ रहे हैं। अकेले जनपद के चकराता ब्लाॅक में 40 पेयजल योजनाओं के जल स्रोतों का पानी निम्नस्तर पर जा चुका है। जिस कारण पाईपलाईनों में पानी बहुत कम आ रहा है। यदि समय रहते वैकल्पिक व्यवस्था नहीं तलाशी गयी तो इन पेयजल योजनाओं से जुड़े 1500 परिवारों को पानी के बिना अपने स्थान बदलने पड़ सकते हैं।
चकराता ब्लाॅक के प्रधान संगठन के अध्यक्ष सरदार सिंह चौहान कहते हैं कि इन पेयजल योजनाओं से 50 गाँव जुड़े हैं, मगर पेयजल आपूर्ति न होने की वजह से ग्रामीण दो-दो किमी पैदल चलकर पेयजल की व्यवस्था करते हैं। बताते हैं कि वहाँ भी प्राकृतिक जल स्रोत में पानी की मात्रा दिन-प्रतिदिन घटती ही जा रही है। कारण स्पष्ट है कि सर्दियों में बरसात न होने और तेजी से गर्म होते दिनों के कारण जल स्रोतों में पानी का स्तर तेजी से घटने लग गया है।
सरकारी आँकड़ो पर गौर करें तो राज्य में उधमसिंहनगर, देहरादून और टिहरी जनपद सर्वाधिक संवेदनशील हो चुके हैं। आँकड़े बता रहे हैं कि देहरादून में 139, पौड़ी में 49, चमोली में 30, रुद्रप्रयाग में 83, टिहरी में 99, उत्तरकाशी में 10, हरिद्वार में 14, पिथौरागढ़ में 81, चम्पावत में 39, बागेश्वर में 28, नैनीताल में 96, अल्मोड़ा में 75, उधमसिंहनगर में 103 स्थान जल संस्थान ने अतिसंवेदनशील घोषित कर दिये हैं। जल संस्थान का मानना है कि मौजूदा गर्मी के सीजन में इन स्थानों पर पेयजल की विकट समस्या हो सकती है।
हालाँकि जल संस्थान ने इन स्थानों पर रह रहे लोगों के लिये पेयजल आपूर्ति की चाक-चौबन्द व्यवस्था कर दी है। इस हेतु टैंकरो के टेंडर हो चुके हैं। जल संस्थान के मुख्य महाप्रबन्धक एस.के. गुप्ता का तर्क है कि इस दौरान बारिश कम होने की वजह से इस बार अधिक परेशानी हो सकती है। कहा कि कई जल स्रोत ऐसे हैं जिनके सूखने का खतरा बना हुआ है। ऐसे क्षेत्रों के लिये सम्बन्धित अधिकारियों को अलर्ट जारी कर दिया गया है। जहाँ टैंकर नहीं पहुँच सकते वहाँ जीप के लिये टेंडर दिये गये हैं।
उल्लेखनीय हो कि राज्य में इस बार गत वर्षों की तुलना 67 प्रतिशत कम बारिश हुई है। इसके चलते जल स्रोत रिचार्ज नहीं हो पाये। पर्यावरणविद राधा बहन और सुरेश भाई कहते हैं कि बे-मौसमी बारिश, बे-मौसमी बर्फ का गिरना भी स्थानीय जलचक्र को प्राभावित कर रहा है। कहते हैं कि अब तो जंगलो में पानी को रिचार्ज करने वाली चाल-खाल भी समाप्त हो गयी है। जब से वन निगम का गठन हुआ और जंगलों के दोहन की जिम्मेदारी वन निगम को मिली तब से सर्वाधिक बुरा प्रभाव जलस्रोतों पर ही पड़ा है। उनका सुझाव है कि जो दोहन करेगा वही संरक्षण का कार्य करेगा। ऐसा दरअसल हो नहीं रहा है। समस्या इतनी जटील हो चुकी है कि आज तक जल का संरक्षण ही नहीं हुआ अपितु जल का दोहन ही हो रहा है।
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