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दैनिक जागरण, 26 फरवरी, 2018
असल में राज्य के 95 विकासखण्डों में से 71 में खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। वक्त पर बारिश हो गई तो ठीक, अन्यथा कई मर्तबा तो खेती से अगली फसल के लिये बीज तक नहीं मिल पाता। इस सबके बावजूद सरकारी स्तर से खेतों तक सिंचाई को पानी पहुँचाने की रफ्तार अभी भी वहीं-की-वहीं थमी है, जहाँ राज्य गठन के वक्त थी। खासकर पहाड़ी क्षेत्र में स्थिति अधिक खराब है। वहाँ आज भी सिर्फ 85 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में ही सिंचाई की सुविधा है। हालांकि, खेती-किसानी की दशा सुधारने के लिये अब मौजूदा सरकार ने भी कदम उठाए हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से उत्तराखण्ड भी अछूता नहीं है और इसका असर खेती-किसानी पर पड़ा है। कभी असमय बरसात तो कभी सूखे जैसे हालात के कारण किसानों को खेती से पर्याप्त फसलोत्पादन नहीं मिल पा रहा। ऐसे में खेती से भंग होते मोह के कारण कृषि योग्य बंजर भूमि का दायरा बढ़ रहा है।
गैरसरकारी आँकड़ों पर गौर करें तो राज्य गठन से अब तक करीब एक लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि बंजर में तब्दील हुई है। इससे हर कोई चिन्तित है। राज्यपाल डॉ. कृष्ण कांत पाल ने भी वैज्ञानिकों को विभिन्न फसलों के सूखा अवरोधी बीजों को विकसित करने का सुझाव दिया है तो इसके पीछे भी यही चिन्ता छिपी है। यानी, ऐसे बीज जो न सिर्फ सूखे की स्थिति झेलने में सक्षम हों, बल्कि बेहतर उत्पादन भी दें। कहने का आशय ये कि वातावरण का बदलाव दीर्घकालिक है तो इसी के अनुसार हमें भी बदलना होगा।
खेती की तस्वीर बदलने को इसी के अनुरूप कदम उठाए जाने की दरकार है। साथ ही सिंचाई के साधनों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। असल में राज्य के 95 विकासखण्डों में से 71 में खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। वक्त पर बारिश हो गई तो ठीक, अन्यथा कई मर्तबा तो खेती से अगली फसल के लिये बीज तक नहीं मिल पाता। इस सबके बावजूद सरकारी स्तर से खेतों तक सिंचाई को पानी पहुँचाने की रफ्तार अभी भी वहीं-की-वहीं थमी है, जहाँ राज्य गठन के वक्त थी। खासकर पहाड़ी क्षेत्र में स्थिति अधिक खराब है। वहाँ आज भी सिर्फ 85 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में ही सिंचाई की सुविधा है।
हालांकि, खेती-किसानी की दशा सुधारने के लिये अब मौजूदा सरकार ने भी कदम उठाए हैं। किसानों की आय दोगुना करने की कोशिशों की कड़ी में केन्द्र भी खासी मदद मुहैया करा रहा है। इसके लिये राज्य सरकार ने रणनीति भी बनाई है। फिर चाहे वह क्लस्टर आधारित खेती को बढ़ावा देने की बात हो या फिर सगंध व जैविक फसलों में बढ़ोत्तरी अथवा कृषि उत्पादों के विपणन की, इन पर खास फोकस किया गया है। यही नहीं, सिंचाई के लिये गूलों की बजाय प्लास्टिक पाइपों के जरिए खेतों तक पानी पहुँचाने की योजना है। बावजूद इसके पिछले अनुभवों को देखते हुए आशंका के बादल भी कम नहीं हैं। जाहिर है कि खेती-किसानी की तस्वीर सँवारने की योजनाएँ धरातल पर आकार लें, इसके लिये सिस्टम को चुस्त-दुरुस्त करना होगा। योजनाओं की मॉनीटरिंग पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है।