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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 09 जून 2014
अभिमत
याद होगा कि विगत वर्ष भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवालय से पहले शौचालय की बात कही थी। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि वे देशवासियों को खुले में शौच की समस्या से निजात दिलाने का प्रयत्न करेंगे और महिलाओं की सुरक्षा के लिए इस दिशा में जल्द-से-जल्द कदम उठाएंगे। पिछले कुछ दिनों में लड़कियों व महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं ऐसी स्थिति में घटी हैं, जब वे घर से बाहर खुले में कहीं शौच के लिए निकली थीं। अब इन घटनाओं ने देश में एक बार फिर शौचालयों की कमी पर सवाल खड़ा कर दिया है। आज भले ही भारत मंगल ग्रह पर उपग्रह भेजने वाले चंद देशों में शुमार हो, लेकिन सच्चाई यही है कि अभी भी 53 फीसदी लोगों के पास शौचालय जैसी जीवन की मूलभूत सुविधा तक नहीं है। यानी हर दूसरा व्यक्ति खुले में शौच करने को मजबूर है। आंकड़े बताते हैं कि 1992-93 में जहां 70 फीसदी लोगों के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, वहीं यह घटकर 2007-08 में 51 प्रतिशत रह गई थी, लेकिन विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या बढ़कर अब 53 प्रतिशत हो गई है।
ग्रामीण भारत के 66 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र के 19 प्रतिशत लोग शौचालय की सुविधा से वंचित हैं। यदि राज्यों की बात करें तो झारखंड और बिहार की स्थिति कुछ ज्यादा ही बदतर है, जहां 83 प्रतिशत लोग शौच के लिए खुले स्थान का प्रयोग करते हैं। छत्तीसगढ़ में 82.1 प्रतिशत, राजस्थान में 73.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 72.6 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 58 प्रतिशत, उत्तराखंड में 45 प्रतिशत, हरियाणा में 42 प्रतिशत और हिमाचल में 32 प्रतिशत लोगों को खुले में शौच करना पड़ता है।
जिन कुछ राज्यों की स्थिति बेहतर मानी जा सकती है, उनमें मिजोरम पहले स्थान, लक्षद्वीप दूसरे स्थान, केरल तीसरे स्थान और दिल्ली चौथे स्थान पर है, जहां क्रमश: 98.8, 98.2, 96.7, 94.3 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद है। इन राज्यों के आंकड़ों से स्पष्ट है कि गरीब तबके की बहुलता वाले राज्यों में अधिकतर लोगो को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।
जाहिर है कि जब गरीबों के पास सिर ढंकने के लिए आशियाना तक नहीं है तो शौचालय तो बहुत दूर की बात हुई। यों खुले में शौच का मतलब बीमारियों को निमंत्रण देना भी है। खुले में शौच से डायरिया व हैजा जैसी घातक संक्रामक बीमारियों के फैलने तक का खतरा रहता है। आंकड़े बताते हैं कि पांच साल से कम उम्र के तकरीबन चार से पांच लाख बच्चे प्रतिवर्ष इन्हीं संक्रामक बीमारियों के चलते काल कवलित हो जाते हैं। महिलाओं के लिए खुले में शौच तो और भी भयावह है। शौचालय न होने की वजह से उन्हें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
ये समस्याएं सीधे तौर पर उनकी सुरक्षा से जुड़ी हुई हैं। आकड़ों की पोटली टटोलने पर यह ज्ञात होता है कि खुले में शौच के दौरान 30 प्रतिशत महिलाओं को विभिन्न उत्पीड़नों का शिकार होना पड़ता है। यह भारत के लिए सिर्फ शर्म की बात नहीं है, बल्कि बहुत बड़ा कलंक है। यों निर्मल भारत बनाने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए जा रहे हैं, इसके बावजूद यथास्थिति बनी हुई है।
विगत वर्ष तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भारत में खुले में शौच को राष्ट्रीय शर्म बताते हुए 2015 तक आखिरी व्यक्ति तक शौचालय की सुविधा पहुंचाने की बात कही थी। साथ ही यह भी बताया था कि स्वच्छता अभियान पर सरकार सालाना 1400 करोड़ रुपए खर्च करती है। इसके बावजूद खुले में शौच की प्रवृत्ति और जरूरत का न मिटना कई सवाल खड़े करता है। कहीं निर्मल भारत के नाम पर सिर्फ कागज पर अभियान चलाकर पैसे का वारा-न्यारा तो नहीं किया जा रहा है? देश को निर्मल बनाने के लिए पंचायत स्तर पर भी अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन संपूर्ण स्वच्छता अभी दूर की कौड़ी लगती है।
अगर हम सरकारी आंकड़ों पर ही विश्वास करें तो अभी तक देश के कुल 2.5 लाख ग्राम पंचायतों में से मात्र 28 हजार ग्राम पंचायत ही निर्मल ग्राम पंचायत बन पाई हैं। अगर हमें इस लक्ष्य को हासिल करना है तो तेजी से समयबद्ध होकर ईमानदारी से काम करना होगा, तभी हम निर्मल भारत के सपने को साकार कर पाएंगे। बेशक हाल के दिनों में देश में इस मसले पर जागरूकता फैलाने की कोशिशें बढ़ी हैं। इससे पहले भी सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा लगातार बना रहा। पिछले 20 वर्षो में इस पर 1250 अरब रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं।
बावजूद इसके, हालात आज भी ऐसे नहीं हो सके कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत शर्मिंदगी से बच सके। पहले तो दुनिया हमें एक गरीब देश के रूप में देखती थी। इस वजह से गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की इंतिहा दर्शाने वाली स्थितियों को भी आश्चर्य की बात नहीं माना जाता था। मगर पिछले दो दशकों के विकास के बाद अब भारत संपन्न और शक्तिशाली देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है और वैश्विक समस्याओं को सुलझाने की प्रक्रिया में बराबर की हिस्सेदारी करता है। स्वाभाविक है कि जिन मोर्चो पर भारत की नाकामी को पहले सहानुभूति के साथ लिया जाता था, उन्हीं नाकामियों को अब पचाना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया है।
पिछले करीब 20 वर्षो में दुनिया के स्तर पर खुले में शौच जानेवाले लोगों की संख्या में 21 फीसदी की उल्लेखनीय कमी आई है। 1990 में यह संख्या 130 करोड़ थी, जो 2012 में घटकर 100 करोड़ पर आ गई। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो एशियाई देशों की उपलब्धि भी कम नहीं दिखती। 1990 में यहां की 65 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी। 2012 तक यह 38 फीसदी रह गई। मगर भारत के संदर्भ में 60 करोड़ की संख्या अब भी नीति-निर्माताओं को मुंह चिढ़ा रही है।
भारत को निर्मल बनाने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति को योगदान देना होगा। सरकारी, गैरसरकारी व जागरूक नागिरकों को आगे आकर स्वच्छता के प्रति जन-जागरूकता फैलानी होगी, ताकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का निर्मल भारत का सपना साकार हो सके। याद होगा कि विगत वर्ष भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवालय से पहले शौचालय की बात कही थी। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि वे देशवासियों को खुले में शौच की समस्या से निजात दिलाने का प्रयत्न करेंगे और महिलाओं की सुरक्षा के लिए इस दिशा में जल्द-से-जल्द कदम उठाएंगे।
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