इस समय देश में स्वच्छता अभियान की लहर सी चल पड़ी है। इसमें स्वच्छता के प्रति समर्पण भावना कम और प्रदर्शन का भाव अधिक नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह प्राथमिक मुहीम है इसलिए अनेक राज्यों के मुखिया और लोग स्वच्छता से जुड़ रहे हैं। मजे की बात तो यह है कि ऐसे-ऐसे लोगोँ के हाथों में झाड़ू नजर आ रही है, जिनके बारे में हम कल्पना ही नहीं कर सकती थे कि कभी उनका यह रूप भी देखने को मिलेगा क्योंकि सत्ता के निकट आने की लालसा कुछ भी करा सकती है।
खैर, स्वच्छता अभियान की गति जो भी हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक काम तो अच्छा कर दिया कि अभिजात्य वर्ग को भी आम लोगोँ की तरह सड़क का हिस्सा बना दिया। लेकिन इस किस्म के सफाई अभियान से सफाई का क्या हश्र होगा, यही चिंता का विषय है। कहीँ ऐसा न हो कि दर्द बढ़ता गया, ज्योँ-ज्योँ दवा की। यानी स्वच्छता का जितना प्रदर्शन हुआ, गंदगी उतनी ही बरती गई। सफाई अभियान के लिए प्रदर्शन करने और झाड़ू थामकर फोटो खिंचवाने और अखबारोँ में प्रकाशित करवाने की प्रवृत्ति ने हमेँ पाखंडी तो बना दिया है, मगर सच्चा सफाईकर्मी नहीं बना सका। अगर हम गांधी को मानते हैं और साथ ही गांधी की बात भी मानते हैं तो सफाई को पल भर का फोटोसेशन न बना कर जीवन का हिस्सा बनाएँ, जैसा गांधी ने बनाया था।
इन पंक्तियों के लेखक ने अनेक देशों की यात्राएँ की हैं। इसी वर्ष अगस्त में चीन के भ्रमण का अवसर भी मिला। मैंने पाया कि वहाँ के लोग सहज भाव से सफाई के लिए चिंतित रहते हैं। कचरे को कचरापेटी में ही डालते हैं। हमारे यहाँ हालत यह होती है कि कचरा कचरापेटी में कम, उसके आसपास अधिक बिखरा रहता है। कचरापेटी लबालब भर जाती है, मगर उसे उठाकर ले जाने वाला कोई नहीं होता। हर शहर का यही आलम है। लोग अपने घरों का कचरा निकालकर इधर-उधर फेंक देते हैं।
अनेक शहरों में नगर निगम या पालिकाएं कचरा साफ करती हैं, मगर सफाई का ठेका जिन लोगोँ को दिया जाता है, वे ईमानदारी से अपना काम नहीं करते। पैसे पूरे लेंगे मगर काम में कोताही बरतेंगे। यह सामाजिक अपराध है और इसके लिए दंड का कोई प्रावधान नहीं है, गंदगी करने वालों के लिए जुर्माना भी कम होता है सबसे बड़ी बात यह है कि अभी हमारे समाज में वह नागरिक चेतना कम नजर आती है, जैसी चेतना मैंने विदेशों में देखी। वहाँ कानून का डंडा भी है और वहाँ के लोगों की अपनी इच्छाशक्ति भी है कि हमें अपने शहर को साफ-सुथरा रखना है हमारे देश के लोग जब विदेश जाते है तो वहाँ डर के मारे कचरा ईधर-उधर नहीं फेंकते, मगर भारत पहुंचते ही कचरा फेंकने के मामले में बिंदास हो जाते हैं। कचरे की हालत देख कर लगता है कि अपना देश एक बहुत बडा डस्टबिन हो गया है जिसकी जहां मर्जी आए, कचरा फेंक कर आगे बढ़ जाता है।
लोग कार में जा रहे हैं, भीतर बैठकर केले या कुछ और खा रहे हैं, मगर उसका छिलका आदि चलती कार से बाहर कहीँ भी फेक देंगे। इतनी भी चेतना या धैर्य नहीं की कार रोकने के बाद कचरे को किसी कचरापेटी में ही डाल दें। रेल हो, बस हो या कोई भी सार्वजनिक स्थान भारत के अधिकांश लोग गंदगी करते हुए इस अपराधबोध से ग्रस्त नहीं होते कि हम गलत कर रहे हैं। लोगों में अपराधबोध जगाना होगा। यह तभी संभव है जब बच्चों को हम स्कूल से ही सफाई के पाठ पढ़ाएं, उनको सफाई का महत्व बताएं। उनसे कविता-कहानी, निबंध लिखाएं, भाषण करवाएं। सफाई को जब तक एक राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनाया जाएगा। हम लोग इसी तरह गंदगी में सांस ले कर बीमार होते रहेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर महात्मा गांधी का वास्ता देकर देशवासियों से स्वच्छता अभियान से जुड़ने की अपील की है तो गलत नहीं किया। स्वच्छ भारत बनेगा तो दुनिया के लोग एक बार भारत आएंगे, और दुबारा भी आना चाहेंगे। स्वच्छता से देश की छवि भी बनती है। मैंने अनेक देशों की यात्राएँ की हैं, कहीं भी मुझे अपने देश जैसी गंदगी का आलम नजर नहीं आया। हम यह तर्क नहीं दे सकते कि सवा सौ करोड़ की आबादी है, ऐसे में साफ सफाई कैसे संभव होगी।
चीन की आबादी भारत से कहीं ज्यादा है, मगर वहाँ सडकों पर कहीं गंदगी नजर नहीं आती। सफाई की निरंतर व्यवस्था मैंने देखी है, गगनचुंबी भवनों में भी कहीं गुटखा-पान की पीक नजर नहीं आती। कहीं कागज का टुकड़ा भी नजर नहीं आता। हमारी तरह मनुष्य वहां भी हैं, मगर उनको समय की पाबंदी और सड़क पर चलने का अनुशासन भी सिखाया गया है। सफाई का महत्व भी बताया गया है। तभी वह देश आज विश्व की महाशक्ति बन सका है। हमारे यहाँ जो लोग कहते हैं स्वच्छ रहो, वहीं गंदगी फैलाते मिल जाते हैं। कथनी-करनी के अंतर ने इस देश को गंदगी से भर दिया है। दुख की बात है कि हमारे देश की नालियाँ डस्टबिन में तब्दील हो गई हैं। जिसका जब मन होता है, अपना कचरा नाली में पेककर निश्चिंत हो जाता है, ऐसा इसलिए होता है कि हम अभी तक एक जिम्मेदार नागरिक नहीं बन सके हैं।
हमारे भीतर सफाई के प्रति वह भाव जागृत नहीं हुआ है, जो भाव गांधी जगाना चाहते थे। वे कहते थे स्वच्छता में ही ईश्वर का वास है, लेकिन लोग गांधी के संदेश को भूल गए हैं। पढ़े-लिखे लोग भी गंदगी करते मिल जाते हैं। इसलिए अब समय आ गया है कि एक नया भारत बनाने के लिए स्वच्छता अभियान को सफलता मिले। इस अभियान को अपनी छवि चमकाने या राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने के बजाय इच्छाशक्ति का हिस्सा बनाएं। वरना 2019 में जब महात्मा गांधी की जयंती के 150 साल पूरे होंगे, तब हम उनको आज की तरह ही मैला-कुचैला भारत सौंपेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुहीम तभी सफल होगी, जब लोग संकल्प करेें कि हम गंदगी नहीं करेंगे, कचरा नालियोँ में नहीं बना डालेंगे। रहम चलते हुए कहीं भी गंदगी नहीं करेंगे। यह बहुत कठिन काम नहीं है। मगर लोग समझ नहीं पाते। हमारी तमाम नदियाँ मैली क्यों हुईं? सिर्फ इसलिए कि मुक्तिदायिनी समझकर उन्हें भी डस्टबिन बना दिया। शौच वहीं करेंगे, मूर्तियाँ उसी में विसर्जित करेंगे, शव बहा देंगे। कपड़े-लत्ते फेक देंगे। मतलब यह कि हम लोग बशऊर होकर जीवन जीने के आदी हो चुके हैं। इसके लिए जरूरी है कि हमको झकझोरा जाए। स्वच्छता अभियान देश को झकझोर देने की कोशिश है।
उसे गंभीरतापूर्वक समझा जाए। बड़े तो सुधरने से रहे, उनको कानूनी डंडा दिखाया जाए, मगर जो बच्चे हैं, उन्हें घर में और विद्यालयों में सफाई का पाठ पढ़ाया जाए। पाठ पढ़ाया जाए का मतलब यह नहीं कि उनसे कहा जाए कि बच्चों, स्वच्छ रहो और हो गई कर्तव्य की इतिश्री। इसके लिए बकायदा एक पीरियड हो, जिसमेें बच्चे साफ़-सफाई करें, बागवानी करें, गायोँ की सेवा करें। जब तक बच्चों की दिनचर्या में सफाई का महत्व प्रतिपादित नहीं होगा, बच्चे संस्कार ग्रहण नहीं कर सकेंगे। इसलिए पहले हम अपने भीतर इच्छाशक्ति पैदा करें। और सफाई के प्रति जागरूक बनें, फिर बच्चों को सफाई और जागरण का पाठ पढ़ाएं।
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प्रजातंत्र लाइव, 31 अक्टूबर 2014