पर्यावरण सम्मेलन में भारत बनाएगा जीवनशैली को मुद्दा

Submitted by RuralWater on Tue, 11/10/2015 - 11:14
. दिसम्बर माह विश्व पर्यावरण के इतिहास में मील का पत्थर बनने जा रहा है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में विश्व भर के पर्यावरणविदों के साथ 190 देशों के सरकारों के प्रतिनिधि इसमें हिस्सा लेंगे। सम्मेलन 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर तक यह सम्मेलन चलेगा।

50 हजार से अधिक प्रतिनिधि, 25 हजार आधिकारिक प्रतिनिधि, अन्तरशासकीय संगठन, यूएन एजेंसीज, गैर सरकारी संगठन और सिविल सोसायटी के हजारों सदस्य भी इस पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में अपनी सक्रिय भागीदारी करेंगे। जिसमें पर्यावरण परिवर्तन, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और दिनोंदिन अनियंत्रित हो रहे मौसम पर चर्चा होगी।

फ्रांस सरकार इस सम्मेलन को लेकर काफी उत्साहित है। महीनों से सम्मेलन की तैयारी शुरू हो गई है। भारत को उम्मीद है कि पेरिस में होने वाले विश्व पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन दुनिया भर के देशों के बीच एक उचित सहमति होगी।

इस सबके बीच भारत सरकार ने अपना एजेंडा रखते हुए जीवनशैली को चर्चा बनाने की सम्भावना जताई है। भारत सरकार का कहना है कि पर्यावरण परिवर्तन के लिये मनुष्य की बदलती जीवनशैली भी जिम्मेदार है। आज के समय में मनुष्य की भौतिकवादी सोच और उपभोगवादी संस्कृति की वजह से प्रकृति के साथ छेड़छाड़ हो रहा है।

भारत सरकार को पूरा विश्वास है कि वह इस दफा जीवनशैली से जुड़े पहलुओं को दुनिया के बीच चर्चा का विषय बना देगी। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की छवि बहुत सकारात्मक हो गई है।

भारत कई मुद्दे उठा रहा है जिसमें गरीब देशों के साथ पर्यावरण न्याय भी शामिल है। उन्होंने कहा कि पहले भारत की छवि खराब थी लेकिन अब सुधर गई है। हमें पूरी उम्मीद है कि दुनिया को हम जीवनशैली पर चर्चा के लिये विवश कर देंगे।

बीस साल पहले अलगोर ने पर्यावरण परिवर्तन पर ना हजम होने वाली सच्चाई सामने रखी थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए विश्व के सामने शोध और व्यावहारिक तरीकों से सौर ऊर्जा समेत गैरपरम्परागत ऊर्जा के प्रयोग किये। पर्यावरण सम्बन्धी बातचीत का अब भारत नेतृत्व कर रहा है। इससे पहले भारत की छवि नकारात्मक थी।

इसके पहले पेरु की राजधानी लीमा में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन और 2014 के इतिहास का सबसे गर्म साल होने की खबरों के बीच जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण को लेकर बहस हो चुकी है।

कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को तय करने के समझौते तक पहुँचने के लिये भारत सहित दुनिया के 190 देशों के प्रतिनिधि इस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत करेंगे। लेकिन सबसे अहम प्रश्न यह है कि इस सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये दुनिया के सभी देशों की आपस में कितनी आम सहमति बन पाती है।

12 दिनों तक चलने वाले इस सम्मेलन में तमाम दलीलों पर विचार-विमर्श और तोल-मोल के बाद समझौते का मसौदा तय किया जाना है। साथ ही पेरिस में इस ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर होंगे और उसके प्रावधान 2020 से लागू होंगे। खास बात यह है कि अमेरिकी और चीनी के बीच हालिया समझौते के कुछ ही दिन बाद यह सम्मेलन आयोजित हो रहा है।

सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले इन दो देशों के इस समझौते से अन्य देशों पर भी इसी तरह की प्रतिबद्धताएँ लागू करने का दबाव बढ़ा है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया में तीसरे देश भारत को भी यहाँ 2020 के बाद की अपनी कार्य योजना प्रस्तुत करनी है।

भारत की प्रतिक्रिया पर तमाम देशों की नजर होगी, क्योंकि भारत ऐसे देशों में शुमार है जिनका भविष्य के कार्बन उत्सर्जन पर सबसे ज्यादा असर रहेगा और जो पेरिस समझौते की नियति तय करेंगे।

अमेरिकी और चीनी के बीच हुए समझौते के मुताबिक चीन 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड में कटौती करने के लिये अपना सर्वोत्तम प्रयास करेगा, जबकि अमेरिका 2030 तक इसमें 28 फीसद की कटौती करेगा जो उसकी पूर्व की प्रतिबद्धता के मुताबिक वर्ष 2005 के स्तर पर होगा।

हालांकि नई दिल्ली स्थित सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने अपने एक विश्लेषण में बताया है कि अमेरिका और चीन ने कुछ न करने की पारस्परिक सुविधा के लिहाज से यह समझौता किया है जो दोनों को प्रदूषण फैलाने की अनुमति प्रदान करता है। समझौते के मुताबिक चीन ने कोई लक्ष्य नहीं तय किया है।

आगामी 16 वर्षों में उसे प्रदूषण फैलाने वाली गैसों का उत्सर्जन कम करना है, लेकिन ध्यान रहे कि इस समय तक प्रति व्यक्ति गैस उत्सर्जन का स्तर तकरीबन 12 से 13 टन होगा। इसी तरह अमेरिका ने 2020 तक उत्सर्जन में 17 फीसद कटौती का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसका मतलब उसे फिलहाल राहत मिल गई है।

इसका सबसे ज्यादा खराब प्रभाव विकासशील और सबसे कम विकसित देश महसूस कर रहे हैं। निराशाजनक तस्वीर यह है कि ये देश उस गड़बड़ी की कीमत चुका रहे हैं जो उन्होंने की ही नहीं है। हमें तुरन्त कदम उठाने की जरूरत है।

संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने ग्लोबल वार्मिंग को औद्योगिक क्रान्ति के पहले के स्तर से दो डिग्री सेल्सियस अधिक तक सीमित करने की प्रतिबद्धता जताई है। बहरहाल, पूरी दुनिया के सामने यह बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाये। बहरहाल, बढ़ते कार्बन उर्त्सजन के बीच इस बीच दुनिया की आबादी सात अरब के आसपास हो गई है। इससे सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और इस कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ी हैं। टिकाऊ विकास की चुनौती बरकरार है।

बीते दो दशकों में यह भी स्पष्ट हुआ है कि नवउदारवाद और निजीकरण ने बहुत सी चुनौतियाँ खड़ी की हैं और आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं। इसने गरीब ही नहीं, बल्कि धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। आर्थिक विकास ने जैव-विविधता से जुड़े संकटों को बढ़ाया है तथा प्रकृति और पर्यावरण पर बहुत ही बुरा असर दिख रहा है।

बढ़ते कार्बन उर्त्सजन के बीच इस बीच दुनिया की आबादी सात अरब के आसपास हो गई है। इससे सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और इस कारण भविष्य को लेकर चिन्ताएँ बढ़ी हैं। टिकाऊ विकास की चुनौती बरकरार है। बीते दो दशकों में यह भी स्पष्ट हुआ है कि नवउदारवाद और निजीकरण ने बहुत सी चुनौतियाँ खड़ी की हैं और आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं। इसने गरीब ही नहीं, बल्कि धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है।बेशक जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अब तक की तमाम नियंत्रण बैठकों में फोकस असल समस्या पर नहीं, बल्कि अमीर देशों के हित चिन्तन पर ज्यादा होता दिखता है। कभी-कभी लगता है कि यह नियंत्रण फोरम अमीर बनाम गरीब देशों की लड़ाई का मोर्चा बन गया है।

अमीर देश न अपनी जिम्मेदारी समझ रहे हैं और न गरीब देश बीच की राह पर चलने को तैयार हैं। विकसित और विकासशील देशों के बीच आज भी कार्बन उत्सर्जन को लेकर गहरे मतभेद बरकरार हैं। विकसित देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिये जलवायु सम्बन्धी वित्त पोषण और प्रौद्योगिकी अन्तरण सम्बधी महत्त्वपूर्ण वादों को लेकर कोई वचन नहीं दे रहे हैं।

विकसित देश बराबरी का हक चाहते हैं जिस पर विकासशील देश सहमत नहीं है। कार्बन उत्सर्जन में सर्वाधिक योगदान विकसित देशों का है, मगर वे इस पर जरा भी कटौती नहीं करना चाहते, भले ही पूरी दूनिया को उसकी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

वस्तुत: भौतिकतावादी जीवनशैली और विकास की अन्धी दौड़ में मनुष्य इस बात को भूल रहा है कि जीवन के अस्तित्व के लिये शुद्ध पर्यावरण पहली शर्त है। मानवीय सोच और विचारधारा में इतना बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिन्ता ही नहीं है।

जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असन्तुलन के चलते भूमण्डलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वष, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जलस्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट समस्याएँ मुँह उठा रही हैं। यह सारा किया कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिन्तित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिये चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल भी नहीं किया जा सकता है। ग्लोबल वार्मिंग का मतलब केवल पेड़-पौधों का संरक्षण ही नहीं है बल्कि, भूमि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाना भी जरूरी है।

सबसे बड़ी बात कि ग्लोबल वार्मिंग का समाधान कोरे भाषणों, फिल्मों, किताबों, सम्मेलनों और लेखों के जरिए नहीं हो सकता, बल्कि हर इंसान को धरती को बचाने के लिये अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। अब वक्त कुछ करने का है न कि सिर्फ सोचने-विचारने का।