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हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष
उत्तराखण्ड के ठेठ ग्रामीण परिवेश में रहने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन है। यही उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत भी है। यानि कृषि-पशुपालन से ही से वे भोजन एवं वस्त्रों की अपनी समुचित व्यवस्था भी करते हैं और अपने इस व्यवसाय के साथ-साथ वे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के भी पुख्ता उपादान करते रहे हैं।
ज्ञातव्य हो कि ऊँची ढालदार पहाड़ियों में जंगलों के बीच बसे गाँव व पहाड़ों में अन्य जगहों पर प्रवास करने वाले पशुपालकों को जीवनरूपी अमृत ‘पानी’ की प्राथमिक आवश्यकता थी। जबकि उन दिनों घने वनों के बीच में रहने वाले पशुओं के लिये चारा-पानी आसानी से मिल जाता है।
मगर ऊँचे पहाड़ों व ढालदार ज़मीन पर पानी का उपलब्ध होना ही अपने आप में अनोखा माना जाता है। इसलिये कि पानी का स्रोत तो आमतौर पर भूमिगत ही होता है। देखिए कि वहाँ के निवासियों ने वहीं बसेरा किया तो वहीं ‘जल संरक्षण’ के तौर-तरिके भी अख्तियार किये। यही आज के वे दूर-दराज अर्थात दूरस्थ गाँव कहलाए जाते हैं।
बता दें कि यहाँ पर मनुष्यों और पशुओं को पानी उपलब्ध करने के लिये गड्ढेनुमा, गोल आकार, आयाताकार अथवा धरती की स्थिति के अनसुार विभिन्न आकारों में जल एकत्रीकरण के लिये लोग तालाब (स्थानीय भाषा में चाल-खाल या नौला) बनाते थे।
इन तालाबों की महत्ता दो प्रकार की थी। एक तो धरती के भीतर से निकलने वाले जल स्रोतों को रिचार्ज करने की और दूसरा वर्षा के जल वेग को कम करना। अतएव पुराने समय में प्रकृति के सन्तुलित पर्यावरण में सघन वनों से ‘नियंत्रित वर्षा’ के कारण मानव निर्मित इन तालाबों (रेन वाटर हार्वेस्टिंग पॉण्ड) में वर्ष भर पानी छलकता रहता था।
बाद में जैसे-जैसे कृषि का विकास हुआ, घाटियों में भी पानी को एकत्रित करने के लिये इसी प्रकार से तालाबों को बनाया गया। इसे सिंचाई के रूप में भी प्रयोग में लाया गया और कहीं-कहीं तो इस प्रकार तालाबों को पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया गया। वर्तमान में इस प्रकार के सहस्त्रों तालाब आज जगह-जगह अवशेष भर देखने को मिलते हैं।
जल संरक्षण की इस परम्परा को वर्तमान के विकास में कहीं जगह नहीं मिली। यही वजह है कि वर्तमान में जल संकट एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है।
उल्लेखनीय तो यह है कि प्राकृतिक उथल-पुथल, हिमनदों के विखण्डन, बुग्यालों के मैदानों में पानी की अधिकता से बने प्राकृतिक जल संचय के कई उदाहरण उत्तराखण्ड में आज भी विद्यमान हैं।
जहाँ-जहाँ प्राकृतिक जलस्रोतों पर सीमेंट से सुदृढ़ीकरण के कार्य होते हैं वहाँ-वहाँ से जल की धारा विलुप्त होती जा रही है। जबकि इन पारम्परिक जल संरक्षण की संस्कृति जैसे तालाबों के महत्त्वपूर्ण फायदे जगजाहिर है, जैसे भूजल को बढ़ावा, भूमि कटाव पर रोकथाम, जंगली जानवर, पालतू जानवर व मनुष्यों हेतु भरपूर पीने का पानी उपलब्ध होना और पर्यावरण में वर्षा नियंत्रण के लिये पानी की जलचक्रिय प्रक्रिया होते रहना तथा वनों के बीच में निर्मित तालाबों में एकत्रित पानी से वनों को आग के प्रभाव से बचाए जाने की तरकीबें भी इन्हीं जल तलैयाओं में ही निहित थी।यहाँ कई प्राकृतिक झीलें तथा तालाब प्रसिद्ध हैं जिन्हें ऋषि-मुनियों के नाम से जानते हैं तो कुछ स्थानों व गाँवों के नाम भी पोखर एवं तालाबों के पर्यायवाची शब्दों के नाम से जाने जाते है। जैसे चमोली में पोखरी गाँव, उत्तरकाशी में कफनौल गाँव, अल्मोड़ा में धारानौला, पौड़ी में उफरैखाल रिखणीखाल, नैनीताल इत्यादि। ये नाम कहीं-न-कहीं जल एकत्रीकरण के उन पारम्परागत तालाबों के ही अपभ्रंश हैं।
उत्तराखण्ड में इस परम्परा को कायम रखने हेतु सत्तर के दशक में चिपको आन्दोलन तथा नब्बे के दशक में रक्षासूत्र आन्दोलन चलाए गए। इन आन्दोलनों ने जहाँ जल, जंगल, ज़मीन के परस्पर रिश्ते को समझाने का प्रयास किया, तो वही कुछ रचनात्मक कदम भी उठाए।
रक्षासूत्र आन्दोलन की प्रणेता संस्था हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने तो बकायदा टिहरी-उत्तरकाशी जिलों के मध्य ‘जलकुर घाटी’ में अब तक 500 तालाबों का निर्माण स्थानीय परम्परा के अनुसार करवाया। पौड़ी के दूरस्थ क्षेत्र दूधातोली में शिक्षक सच्चिदानन्द ने जल संचय की परम्परागत विधि को इजाद किया और सूखी नदी को पुर्नजीवित कर डाला।
आज वहाँ हरा-भरा जंगल है तो जल संरक्षण के वे पुरातन पद्धति के मॉडल भी हजारों में देखने को मिलते हैं। इसके अलावा टिहरी जिले के भिलंगना ब्लॉक में लोक जीवन विकास भारती, चम्बा ब्लॉक में उत्तराखण्ड जनजागृति संस्था, चमोली जनपद के दसौली ब्लॉक में दसौली ग्राम स्वराज मण्डल व उर्गम क्षेत्र में जनादेश संस्था ने जल संचय के कार्यों को बरकरार रखते हुए क्षेत्र में पारम्परिक तालाबों को बनवाने के लिये लोगों को प्रेरित किया। पिथौरागढ़ के गणाई गंगोली हाट क्षेत्र में भी बच्ची सिंह बिष्ट ने समुदाय के सहयोग से पुरातन विधि से नौलों का जिर्णाेद्धार करवाया।
नब्बे के दशक तक आते-आते एक तरफ लोग जल संरक्षण को तरजीह दे रहे थे तो दूसरी तरफ ये पारम्परिक तालाब सरकार के वन विकास निगम के आने के बाद तहस-नहस हो गए। जबकि उत्तराखण्ड में लोग अपने मवेशियों और स्वयं के पीने के पानी के लिये तालाब बनाकर रखते थे।
इनके अवशेषों से भी अन्दाज लगाया जाता है कि मनुष्य अपनी विशिष्ट पहचान के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रवास करते हुए जल प्रबन्ध की ज़िम्मेदारी का भरपूर निर्वाह करता रहा है। रक्षासूत्र आन्दोलन की एक रिर्पोट में बताया गया कि इस परम्परागत शैली के ह्यंस का कारण वनों के विनाश और जलस्रोतों पर पोता गया सीमेंट ही पाया गया है।
आज भी जहाँ-जहाँ प्राकृतिक जलस्रोतों पर सीमेंट से सुदृढ़ीकरण के कार्य होते हैं वहाँ-वहाँ से जल की धारा विलुप्त होती जा रही है। जबकि इन पारम्परिक जल संरक्षण की संस्कृति जैसे तालाबों के महत्त्वपूर्ण फायदे जगजाहिर है, जैसे भूजल को बढ़ावा, भूमि कटाव पर रोकथाम, जंगली जानवर, पालतू जानवर व मनुष्यों हेतु भरपूर पीने का पानी उपलब्ध होना और पर्यावरण में वर्षा नियंत्रण के लिये पानी की जलचक्रिय प्रक्रिया होते रहना तथा वनों के बीच में निर्मित तालाबों में एकत्रित पानी से वनों को आग के प्रभाव से बचाए जाने की तरकीबें भी इन्हीं जल तलैयाओं में ही निहित थी।
हालांकि जल संचय अर्थात जल संस्कृति की इस परम्परागत विधि को पुनर्जीवित करने के लिये लोक विज्ञान संस्थान देहरादून ने गढ़वाल व कुमाऊँ क्षेत्र में जल संरक्षण के कार्यों को एक अभियान के रूप में प्रोत्साहित किया। मगर जब तक यह कार्य वृहद रूप मे नहीं किया जाता तब तक यह कार्य एक कार्यक्रम मात्र ही रह जाएगा। अच्छा हो कि सरकार इस कार्य को एक अभियान के रूप में क्रियान्वित करे। ऐसा पहाड़ के हर-एक किसान का कहना है।
अब अल्मोड़ा के दीपक ने बकायदा जल संरक्षण की लोक परम्परा एवं नौलों पर एक शोध प्रस्तुत किया है। वे अपने शोध पत्र में बताते हैं कि पुरातन जल संरक्षण की विधि ही वैज्ञानिक विधि है। बताते हैं कि एक नौले के निर्माण में गेरू, द्यूड़ की मिट्टी व चिकनी मिट्टी का प्रयोग किया जाता था साथ ही उस नौले के निचली सतह के उत्तर दिशा की ओर तांबे का पात्र रखा जाता था जो पानी में पाये जाने वाले बैक्टीरिया को मारता है।