तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

बाढ़ और सूखा कोई नई बात नहीं है। सदियों से हमारा समाज इनके साथ रहना सीख चुका था और इनसे निपटने के लिए उसने अपनी देसी तकनीक भी तैयार कर ली थी जो प्रकृति और नदियों को साथ लेकर चलती थी। लेकिन दिक्कत तब हुई जब हमने प्रकृति और नदियों की उपेक्षा शुरू की, उन्हें बाँधना शुरू किया। इसके बाद से ही बाढ़ और सूखे ने विभीषिका का रूप लेना शुरू कर दिया।
अकाल और बाढ़ अकेले नहींं आते। इनसे बहुत पहले अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आ जाती है। ये केवल विचार तक सीमित नहींं रहते, ये काम में भी बदल जाते हैं। बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम अकाल और बाढ़ दोनों की तैयारी को बढ़ावा देने लगते हैं।
पटना। मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने आज मुख्यमन्त्री सचिवालय संवाद में 210.75 करोड़ रूपये की 315 ग्रामीण पाइप जलापूर्ति एवं सौर्यचालित मिनी पाइप जलापूर्ति योजना का शिलान्यास/उद्घाटन करते हुए कहा कि हर इन्सान को स्वच्छ जल मिलना चाहिये। मुख्यमन्त्री ने कहा कि स्वच्छता एक व्यापक विषय है। स्वच्छ पेयज
लोग कहते हैं कि भारतीय संस्कृति, अप्रतिम है। किन्तु क्या इसके वर्तमान को हम अप्रतिम कह सकते हैं? माँ और सन्तान का रिश्ता, हर पल स्नेह और सुरक्षा के साथ जिया जाने वाला रिश्ता है। क्या आज हम इस रिश्ते को हर पल स्नेह और साझी सुरक्षा के साथ जी रहे हैं?
इस स्नेहिल रिश्ते के बीच के अनौपचारिक बन्धन को प्रगाढ़ करना तो दूर, हम इस रिश्ते के औपचारिक दायित्व की पूर्ति से भी भागते हुए दिखाई नहीं दे रहे? बेटियों के पास तो माँ के लिये हर पल समय है; किन्तु हम बेटों के पास दायित्व से दूर भागने के लिये लाख बहाने हैं।
कभी-कभी मुझे खुद अपराध बोध होता है कि माँ, मेरी भी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है; न जन्म देने वाली माँ और न पालने-पोषने में सहायक बनने वाली हमारी अन्य माताएँ।
बाढ़ और सूखा कोई नई बात नहीं है। सदियों से हमारा समाज इनके साथ रहना सीख चुका था और इनसे निपटने के लिए उसने अपनी देसी तकनीक भी तैयार कर ली थी जो प्रकृति और नदियों को साथ लेकर चलती थी। लेकिन दिक्कत तब हुई जब हमने प्रकृति और नदियों की उपेक्षा शुरू की, उन्हें बाँधना शुरू किया। इसके बाद से ही बाढ़ और सूखे ने विभीषिका का रूप लेना शुरू कर दिया।अकाल और बाढ़ अकेले नहींं आते। इनसे बहुत पहले अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आ जाती है। ये केवल विचार तक सीमित नहींं रहते, ये काम में भी बदल जाते हैं। बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम अकाल और बाढ़ दोनों की तैयारी को बढ़ावा देने लगते हैं।
लोग कहते हैं कि भारतीय संस्कृति, अप्रतिम है। किन्तु क्या इसके वर्तमान को हम अप्रतिम कह सकते हैं? माँ और सन्तान का रिश्ता, हर पल स्नेह और सुरक्षा के साथ जिया जाने वाला रिश्ता है। क्या आज हम इस रिश्ते को हर पल स्नेह और साझी सुरक्षा के साथ जी रहे हैं?
इस स्नेहिल रिश्ते के बीच के अनौपचारिक बन्धन को प्रगाढ़ करना तो दूर, हम इस रिश्ते के औपचारिक दायित्व की पूर्ति से भी भागते हुए दिखाई नहीं दे रहे? बेटियों के पास तो माँ के लिये हर पल समय है; किन्तु हम बेटों के पास दायित्व से दूर भागने के लिये लाख बहाने हैं।
कभी-कभी मुझे खुद अपराध बोध होता है कि माँ, मेरी भी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है; न जन्म देने वाली माँ और न पालने-पोषने में सहायक बनने वाली हमारी अन्य माताएँ।
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