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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by RuralWater on Wed, 03/04/2015 - 10:19
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बुन्देलखण्ड उत्तर प्रदेश के महोबा जनपद में राज-समाज की साझी पहल के प्रभाव से समझ में समानता नजर आने लगी है। अच्छे काम, अच्छी योजना के विचार का माध्यम चाहे जो भी हों। उस पर राज-समाज की सहमति का अकाल बाधक नहीं है। कुछ विभाग और उनके मुखिया तो ऐसे भी हैं। जिन्हें अपनी ही किसी पूर्व प्रस्तावित परियोजना को नकारने में भी देर नहीं लगती है।

यदि उसकी तुलना में कोई दूसरी परियोजना से अधिक फायदा लिया जा सकता होे। ऐसे ही एक परियोजना में बदलाव हुआ है। जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि बुन्देलखण्ड में अकाल छँटने की शुरुआत हुई है। और अच्छे विचारों का जनमत संग्रह भी हुआ है।
Submitted by Hindi on Tue, 03/03/2015 - 16:14
Source:
गाँधी मार्ग, मार्च-अप्रैल 2015
पुराण, इतिहास गवाह हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य कभी बचाए नहीं जा सके। सभ्यताएँ, परम्पराएँ, समाज भी हरे पेड़ों की तरह होती हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, सरल मन जल की नमी, ममता की आँच और प्रकृति के उपकारों के प्रति कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बिना समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

पंजाब आज इसी उदासी का शिकार है। अनुभव कहता है कि जब भी कोई समाज अपने को अपने से काट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें परायापन झलकने लगता है। परायेपन को बनावटीपन में बदलते देर नहीं लगती। आज ऐसा ही परायापन हरित क्रान्ति के मारे और नशों में झूमते पंजाब के कोने-कोने में देखने को मिलता है। परायापन एक गम्भीर समस्या है, बेशक वो घर का हो या समाज का। उससे सबकी कमर झुकने लगती है।
Submitted by RuralWater on Tue, 03/03/2015 - 11:09
Source:
Justice for farmers
भू-अधिकार के मसले पर सरकार को चेतावनी देने के आयोजनों का एक दौर सम्पन्न हो चुका है। वाया अन्ना, आयोजन का अगला दौर नौ मार्च को वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित सेवाग्राम से शुरू होगा। इन आयोजनों का जनता को हुआ हासिल अभी सिर्फ इतना ही है कि वह जान चुकी है कि कोई ऐसा कानून बना था, जिसमें उनकी राय के बगैर खेती-किसानी की ज़मीन नहीं ली जा सकती थी।

मोदी सरकार ने उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन किया है कि जिसके कारण सरकार जब चाहे, खेती-किसानी की जमीन कब्जा सकती है। सम्भव है कि देश के पाँच करोड़ भूमिहीनों में से कुछ ने यह सपना भी हासिल किया हो कि दिल्ली के संसद मार्ग को कई बार रौंदने पर रहने और कहने को ज़मीन का एक टुकड़ा हासिल किया जा सकता है।

तीसरे हासिल के तौर पर जनता फिलहाल राहत की सांस महसूस कर सकती है कि प्रधानमन्त्री जी बिल में बदलाव के लिये तैयार हो गए हैं। इस नरमी के साथ-साथ उन्होंने आन्दोलनकारियों को एक गर्म सन्देश भी दिया है- “देश संविधान के दायरे में चलेगा। किसी को कानून अपने हाथों में लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’’एक तरफ छवि को पहुँची आँच को ठण्डा करने का प्रयास, दूसरी ओर आन्दोलनकारियों को भड़काने वाली धमकी!

प्रधानमन्त्री जी के इस अंदाज का संकेेत क्या है? यह तो समय बताएगा। किन्तु फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है मोदी सरकार ने इन आयोजनों से खोया-ही-खोया है; पाया कुछ नहीं। मोदी सरकार को ‘उद्योगपतियों की सरकार’ प्रतिबिम्बित करने वाला सन्देश देश में पहुँच चुका है। ‘उद्योगपतियों के लिये कुछ भी करेगा’ की छवि अर्जित कर श्री मोदी ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा खो दिया है। तीर, कमान से निकल चुका है।

भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर भूमि मालिक को तीन लाख रुपए तक का जुर्माना और छह महीने तक की सजा के प्रावधान ने शासन की नीयत और संवेदनहीनता की पोल खोल दी है। मुआवजा लेने से इंकार करने पर मुआवजा राशि सरकारी खजाने में जमा करा दी जाएगी और भूमि मालिक को जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा। मुकदमा होने के बावजूद जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा। ऐसे प्रावधानों के रहते आखिरकार, कोई कैसे मान सकता है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, भूमि मालिकों का हित साधने आया है।

चौतरफा नाराजगी
अध्यादेश विरोधी आयोजन के दौरान पहले राजनेताओं से मंच साझा न करने की बात और फिर बुला-बलाकर मंच पर बैठाने के तमाशे से खोया अन्ना ने भी है। किन्तु सच है कि विपक्षी ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े दलों द्वारा भी संशोधन विधेयक के विरोध से खोया तो सत्तारूढ दल ने ही ज्यादा है। याद कीजिए, झारखण्ड से हेमन्त सोरेन ने आर्थिक नाकेबन्दी की चेतावनी दी।

सोनिया, ममता, मुलायम, नीतीश, लालू, केजरीवाल से लेकर शिवसेना, अकाली दल की नाराजगी आपने सुनी ही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी जागरण मंच भाजपा के मार्गदर्शक संरक्षक संगठन हैं। संशोधन विधेयक के विरोध में ऐसे संगठनों के खुलकर सामने आने से यह सन्देश भी गया कि यदि संशोधन विधेयक में जरा भी अनुकूलता होती, तो भाजपा हितैषी संगठन ही उसका विरोध क्यों करते?

कोशिशों का झूठ-सच
दरअसल, संशोधन की भाषा इतनी सरल और स्पष्ट है कि जिसे पढ़कर आम आदमी भी संशोधन की मंशा और प्रभाव.. सहज ही समझ सकता है। यही कारण है कि मोदी सरकार समर्थक संगठन ही नहीं, स्वयं कई भाजपा सांसद-विधायकों को भी चिन्ता हो रही है कि लोगों ने सवाल किए, तो झूठ बोलने पर भी अब बचने की कोई गुंजाइश नहीं है। बावजूद इसके दुखद है कि मोदी के रणनीतिकार झूठ को सच बताने की कवायद में जुट गए हैं। वे कह रहे हैं कि संशोधन किसानों के हित में है।

भाजपा के पदाधिकारी यह प्रचारित करने में जुट गए कि यदि संशोधन न किए जाते, तो किसानों को मुआवजा कम मिलता; गाँव के गरीब के विकास की प्रक्रिया बाधित होती। सरकार गरीब के हित में रोजगार के लिये जो करना चाहती है, उसमें मुश्किल आएगी। यदि सहमति लेकर भूमि अधिग्रहण करना पड़ा, तो देश की रक्षा परियोजनाओं की सुरक्षा को लेकर मुश्किलात खड़ी हो जाएँगी।

हालांकि प्रधानमन्त्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर वक्त देते हुए यह दिखाने की भरसक कोशिश की है कि किसानों के लिये कोई भी सुधार करेंगे; किन्तु श्री अरुण जेटली द्वारा सदन में दिए वक्तव्य से लेकर भाजपा सचिव श्रीकांत शर्मा वर्मा द्वारा लिखे लेख का सन्देश यही है। भूमि अधिग्रहण कानून में हुए संशोधन का जिन्न जन्तर-मन्तर से निकलकर देश में नुमाया न होने पाए। चेतावनी यात्रा के जन्तर-मन्तर पहुँचने से पहले ही मोदी सरकार द्वारा इसकी रोकथाम की कोशिश का सन्देश भी यही है।

सरकार की बाजीगरी
गौर करने की बात है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले-पहल एक विनम्र सन्देश देने की कोशिश की कि वह एक लोकतान्त्रिक सरकार है। अतः सुझावों का स्वागत करेगी। मीडिया ने इसे ऐसे प्रचारित किया, मानो अन्ना के आन्दोलन के समक्ष मोदी सरकार झुक गई हो। किन्तु जो लोग मोदी के मुख्यमन्त्रित्व काल से परिचित थे, वे जानते थे कि सरकार द्वारा दर्शाई विनम्रता तात्कालिक है; यही हुआ।

गृहमन्त्री राजनाथ सिंह जी ने किसान संगठन प्रतिनिधियों से क्या सुझाव लिये और क्या आश्वासन दिए; मालूम नहीं। किन्तु इतना साफ दिखा कि राजनाथ सिंह जी ने जैसे ही कुछेक किसान संगठनों से बातचीत का एक दौर सम्पन्न किया, सरकार का रवैया बदल गया। 24 फरवरी तक जो सरकार रक्षात्मक नजर आ रही थी, वह अचानक आक्रामक हो गई। सर्वदलीय चर्चा के विचार को कूड़े के डिब्बे में डाल दिया। वैकेया नायडू भले ही कहते रहे कि सुझावों पर विचार होगा; किन्तु पार्टी प्रवक्ताओं के तेवर तल्ख हो गए।

खेती की जमीन पर उद्योग लगाने की जिद्द को लेकर भी एक प्रश्न तो है ही। इस प्रश्न के उत्तर में भाजपा प्रवक्ता ने प्रश्न दागा कि बंजर भूमि पर उद्योग लगाया, तो पानी कहाँ से आएगा? प्रश्न उठाते हुए वह शायद भूल गए कि पानी की कमी से ही नहीं, जलभराव के कारण भी जमीन बंजर होती है। कृषि भूमि कब्जाने की जिद्द के पीछे का असली उद्देश्य, कृषि भूमि की कीमतों में हो रही बेशुमार वृद्धि है। बिना उद्योग चलाये मुनाफा कमाने का इससे बेहतर नुस्खा और क्या हो सकता है? अफवाहों का जन्तर-मन्तर
एक ओर दुष्प्रचार शुरू हुआ, मानो भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर आवाज बुलन्द करना, किसान संगठनों का घोषित एकाधिकार हो और अन्ना उसमें अनाधिकार चेष्टा कर रहे हों। अन्ना की आलोचना करने वाले बैनर जन्तर-मन्तर की सड़क किनारे रातों-रात उग आए। एक ही मसले पर समानान्तर कई मंच बन गए।

कई कलम और कैमरों ने मामले को किसान संगठन बनाम एन जी ओ बनाकर भी पेश किया। किसी ने कहा कि इन लोगों ने अन्ना को सिर्फ उपयोग किया है। किसी ने कहा कि अन्ना के मंच पर कांग्रेसियों का जमावड़ा था, तो किसी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुगामी संगठनों के प्रतिनिधियों से अन्ना की मुलाकातों की खबरें फैलाई। जरा सोचिए! ऐसी अफवाहों का बाजार गर्म करने का एकमेव मकसद भू-अधिकार से जुड़े मसले पर एकजुट संगठनों के बीच मतैक्य पैदा करने के अलावा भला और क्या हो सकता है?

नीयत पर सवाल
संशोधन के पक्ष में भाजपा के सफाई प्रचार पर सवालिया निशान लगाते सवाल कई हैं। पहला, सरकार यह तय करने वाली कौन होती है कि कोई परियोजना लोगों के हित में है या नहीं? दूसरा, स्थानीय लोगों को यह तय करने देने में देश का क्या नुकसान है कि जिस परियोजना के लिये सरकार भूमि अधिग्रहण करना चाहती है, वह स्थानीय लोगों के हित में है या नहीं? तीसरा, क्या सरकार यह समझती है कि गाँव के लोग इतने मूर्ख हैं कि यदि परियोजना स्थानीय लोगों के हित में हुई, तो भी वे भूमि अधिग्रहण के लिये अपनी ज़मीन देने को तैयार नहीं होंगे?

हित में होने के बावजूद लोग परियोजना के लिये ज़मीन नहीं दें; यह तभी हो सकता है जब या तो भूमिधरों की कोई मज़बूरी हो अथवा वे उस परियोजना को न चाहते हों। जाहिर है कि परियोजना यदि स्थानीय लोगों की मजबूरी का निराकरण करने, वाजिब लाभ देने तथा दूरगामी हित साधने वाली हुई, तो लोग सहमत न हों; ऐसा हो नहीं सकता। अपने भारत देश ऐसे लाखों उदाहरण से भरा पड़ा हैं, जहाँ भूमिधरों ने सार्वजनिक उपयोग के लिये बिना कोई पैसा लिये ज़मीनें दीं। अतः सहमति की शर्त को हटाना; अपने आप में भूमि अधिग्रहणकर्ता की नीयत पर शक पैदा करता है।

सहमति शर्त जरूरी क्यों?
सहमति की शर्त इसलिये भी जरूरी है, ताकि लोग अपनी भूमि के लेन-देन की शर्तें स्वयं तय करने के लिये आजाद बने रहें। इस शर्त का एक बड़ा लाभ यह होगा कि यदि लोग समझदार होंगे तो परियोजना और उसके संचालक, भूमि अधिग्रहण करने के बाद भी स्थानीय जन हितैषी बने रहेंगे। यह नहीं होगा कि बिजली परियोजना लगाते वक्त वादे करें कि जिनकी जमीन गई, उन्हे 24 घण्टे बिजली मिलेगी और बाद में लोग सिर्फ तार ही निहारते रह जाएँ।

भूमि अधिग्रहण के वक्त कहा जाए कि फैक्टरी प्रदूषण नहीं करेेगी; बाद में उसकी परवाह ही न करे। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में सरकारी ताप विद्युत घर के कारण आदिवासियों की जमीनें भी गईं और अब सेहत का भी सत्यानाश हो रहा है। चाहे खनन उद्योग हो या कोई फैक्टरी; एक बार जमीन हासिल हो जाने के बाद स्थानीय लोगों की जिन्दगी व हित से खिलवाड़ करने के कारनामें को देखते हुए जन-सहमति का प्रावधान को लागू करना और जरूरी है। खासकर, खनन और उद्योग क्षेत्र के लिये गए अधिग्रहण में ऐसे खतरे ज्यादा होते हैं।

कुछ जरूरी सवाल
भूमि अधिग्रहण से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि संशोधन पेश करने से पहले भारत की कुल भूमि में उद्योग, खेती, नगर, पानी, जंगल की भूमि का अनुपात तय करना जरूरी नहीं? क्या यह देखना जरूरी नहीं कि किस इलाके में निर्माण हो और देश के किस भूगोल को निर्माण से मुक्त रखा जाए? पेश आँकड़ों के मुताबिक, अधिग्रहित की गई कितनी ही भूमि ऐसी है, जो कई साल बीत जाने के बावजूद आवंटित ही नहीं की गई।

ऐसी अधिग्रहित की गई भूमि का रकबा भी कम नहीं, आवंटित होने के बावजूद आवंटी जिसका सालों-साल उपयोग नहीं कर सके। क्या यह जरूरी नहीं कि सरकार पहले से अधिग्रहित भूमि के उपयोग को प्राथमिकता बनाए? क्या औद्योगीकरण और शहरीकरण की कोई सीमा रेखा बनाना जरूरी नहीं? यही न करने का नतीजा है कि देश तमाम पलायन, पर्यावरण और रोजगार में होड़ की अनेक समस्याओं से जूझ रहा है।

खेती की जमीन पर उद्योग लगाने की जिद्द को लेकर भी एक प्रश्न तो है ही। इस प्रश्न के उत्तर में भाजपा प्रवक्ता ने प्रश्न दागा कि बंजर भूमि पर उद्योग लगाया, तो पानी कहाँ से आएगा? प्रश्न उठाते हुए वह शायद भूल गए कि पानी की कमी से ही नहीं, जलभराव के कारण भी जमीन बंजर होती है। कृषि भूमि कब्जाने की जिद्द के पीछे का असली उद्देश्य, कृषि भूमि की कीमतों में हो रही बेशुमार वृद्धि है। बिना उद्योग चलाये मुनाफा कमाने का इससे बेहतर नुस्खा और क्या हो सकता है?

कृषि और उसके प्रसंस्करित उत्पादों के बाजार पर कब्जे को लेकर बड़ी कम्पनियों में होड़ भी इसका एक कारण है। दुखद है कि हमारे जिस राष्ट्रपिता द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को आगे रखकर दुनिया सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का सपना देखती है, उसी गाँधी के देश में ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा खोखला साबित होने की ओर अग्रसर है। यह न होने पाए।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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बुन्देलखण्ड में छँटने लगा अकाल, अच्छे विचारों की पहल

Submitted by RuralWater on Wed, 03/04/2015 - 10:19
Author
पुष्पेन्द्र कुमार
. बुन्देलखण्ड उत्तर प्रदेश के महोबा जनपद में राज-समाज की साझी पहल के प्रभाव से समझ में समानता नजर आने लगी है। अच्छे काम, अच्छी योजना के विचार का माध्यम चाहे जो भी हों। उस पर राज-समाज की सहमति का अकाल बाधक नहीं है। कुछ विभाग और उनके मुखिया तो ऐसे भी हैं। जिन्हें अपनी ही किसी पूर्व प्रस्तावित परियोजना को नकारने में भी देर नहीं लगती है।

यदि उसकी तुलना में कोई दूसरी परियोजना से अधिक फायदा लिया जा सकता होे। ऐसे ही एक परियोजना में बदलाव हुआ है। जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि बुन्देलखण्ड में अकाल छँटने की शुरुआत हुई है। और अच्छे विचारों का जनमत संग्रह भी हुआ है।

अपना मूल पछाण

Submitted by Hindi on Tue, 03/03/2015 - 16:14
Author
सुरेन्द्र बांसल
Source
गाँधी मार्ग, मार्च-अप्रैल 2015
. पुराण, इतिहास गवाह हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य कभी बचाए नहीं जा सके। सभ्यताएँ, परम्पराएँ, समाज भी हरे पेड़ों की तरह होती हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, सरल मन जल की नमी, ममता की आँच और प्रकृति के उपकारों के प्रति कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बिना समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

पंजाब आज इसी उदासी का शिकार है। अनुभव कहता है कि जब भी कोई समाज अपने को अपने से काट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें परायापन झलकने लगता है। परायेपन को बनावटीपन में बदलते देर नहीं लगती। आज ऐसा ही परायापन हरित क्रान्ति के मारे और नशों में झूमते पंजाब के कोने-कोने में देखने को मिलता है। परायापन एक गम्भीर समस्या है, बेशक वो घर का हो या समाज का। उससे सबकी कमर झुकने लगती है।

भू-अधिकार आयोजनों का हासिल

Submitted by RuralWater on Tue, 03/03/2015 - 11:09
Author
अरुण तिवारी
Justice for farmers
. भू-अधिकार के मसले पर सरकार को चेतावनी देने के आयोजनों का एक दौर सम्पन्न हो चुका है। वाया अन्ना, आयोजन का अगला दौर नौ मार्च को वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित सेवाग्राम से शुरू होगा। इन आयोजनों का जनता को हुआ हासिल अभी सिर्फ इतना ही है कि वह जान चुकी है कि कोई ऐसा कानून बना था, जिसमें उनकी राय के बगैर खेती-किसानी की ज़मीन नहीं ली जा सकती थी।

मोदी सरकार ने उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन किया है कि जिसके कारण सरकार जब चाहे, खेती-किसानी की जमीन कब्जा सकती है। सम्भव है कि देश के पाँच करोड़ भूमिहीनों में से कुछ ने यह सपना भी हासिल किया हो कि दिल्ली के संसद मार्ग को कई बार रौंदने पर रहने और कहने को ज़मीन का एक टुकड़ा हासिल किया जा सकता है।

तीसरे हासिल के तौर पर जनता फिलहाल राहत की सांस महसूस कर सकती है कि प्रधानमन्त्री जी बिल में बदलाव के लिये तैयार हो गए हैं। इस नरमी के साथ-साथ उन्होंने आन्दोलनकारियों को एक गर्म सन्देश भी दिया है- “देश संविधान के दायरे में चलेगा। किसी को कानून अपने हाथों में लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’’एक तरफ छवि को पहुँची आँच को ठण्डा करने का प्रयास, दूसरी ओर आन्दोलनकारियों को भड़काने वाली धमकी!

प्रधानमन्त्री जी के इस अंदाज का संकेेत क्या है? यह तो समय बताएगा। किन्तु फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है मोदी सरकार ने इन आयोजनों से खोया-ही-खोया है; पाया कुछ नहीं। मोदी सरकार को ‘उद्योगपतियों की सरकार’ प्रतिबिम्बित करने वाला सन्देश देश में पहुँच चुका है। ‘उद्योगपतियों के लिये कुछ भी करेगा’ की छवि अर्जित कर श्री मोदी ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा खो दिया है। तीर, कमान से निकल चुका है।

भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर भूमि मालिक को तीन लाख रुपए तक का जुर्माना और छह महीने तक की सजा के प्रावधान ने शासन की नीयत और संवेदनहीनता की पोल खोल दी है। मुआवजा लेने से इंकार करने पर मुआवजा राशि सरकारी खजाने में जमा करा दी जाएगी और भूमि मालिक को जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा। मुकदमा होने के बावजूद जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा। ऐसे प्रावधानों के रहते आखिरकार, कोई कैसे मान सकता है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, भूमि मालिकों का हित साधने आया है।

चौतरफा नाराजगी


अध्यादेश विरोधी आयोजन के दौरान पहले राजनेताओं से मंच साझा न करने की बात और फिर बुला-बलाकर मंच पर बैठाने के तमाशे से खोया अन्ना ने भी है। किन्तु सच है कि विपक्षी ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े दलों द्वारा भी संशोधन विधेयक के विरोध से खोया तो सत्तारूढ दल ने ही ज्यादा है। याद कीजिए, झारखण्ड से हेमन्त सोरेन ने आर्थिक नाकेबन्दी की चेतावनी दी।

सोनिया, ममता, मुलायम, नीतीश, लालू, केजरीवाल से लेकर शिवसेना, अकाली दल की नाराजगी आपने सुनी ही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी जागरण मंच भाजपा के मार्गदर्शक संरक्षक संगठन हैं। संशोधन विधेयक के विरोध में ऐसे संगठनों के खुलकर सामने आने से यह सन्देश भी गया कि यदि संशोधन विधेयक में जरा भी अनुकूलता होती, तो भाजपा हितैषी संगठन ही उसका विरोध क्यों करते?

कोशिशों का झूठ-सच


दरअसल, संशोधन की भाषा इतनी सरल और स्पष्ट है कि जिसे पढ़कर आम आदमी भी संशोधन की मंशा और प्रभाव.. सहज ही समझ सकता है। यही कारण है कि मोदी सरकार समर्थक संगठन ही नहीं, स्वयं कई भाजपा सांसद-विधायकों को भी चिन्ता हो रही है कि लोगों ने सवाल किए, तो झूठ बोलने पर भी अब बचने की कोई गुंजाइश नहीं है। बावजूद इसके दुखद है कि मोदी के रणनीतिकार झूठ को सच बताने की कवायद में जुट गए हैं। वे कह रहे हैं कि संशोधन किसानों के हित में है।

भाजपा के पदाधिकारी यह प्रचारित करने में जुट गए कि यदि संशोधन न किए जाते, तो किसानों को मुआवजा कम मिलता; गाँव के गरीब के विकास की प्रक्रिया बाधित होती। सरकार गरीब के हित में रोजगार के लिये जो करना चाहती है, उसमें मुश्किल आएगी। यदि सहमति लेकर भूमि अधिग्रहण करना पड़ा, तो देश की रक्षा परियोजनाओं की सुरक्षा को लेकर मुश्किलात खड़ी हो जाएँगी।

हालांकि प्रधानमन्त्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर वक्त देते हुए यह दिखाने की भरसक कोशिश की है कि किसानों के लिये कोई भी सुधार करेंगे; किन्तु श्री अरुण जेटली द्वारा सदन में दिए वक्तव्य से लेकर भाजपा सचिव श्रीकांत शर्मा वर्मा द्वारा लिखे लेख का सन्देश यही है। भूमि अधिग्रहण कानून में हुए संशोधन का जिन्न जन्तर-मन्तर से निकलकर देश में नुमाया न होने पाए। चेतावनी यात्रा के जन्तर-मन्तर पहुँचने से पहले ही मोदी सरकार द्वारा इसकी रोकथाम की कोशिश का सन्देश भी यही है।

सरकार की बाजीगरी


गौर करने की बात है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले-पहल एक विनम्र सन्देश देने की कोशिश की कि वह एक लोकतान्त्रिक सरकार है। अतः सुझावों का स्वागत करेगी। मीडिया ने इसे ऐसे प्रचारित किया, मानो अन्ना के आन्दोलन के समक्ष मोदी सरकार झुक गई हो। किन्तु जो लोग मोदी के मुख्यमन्त्रित्व काल से परिचित थे, वे जानते थे कि सरकार द्वारा दर्शाई विनम्रता तात्कालिक है; यही हुआ।

गृहमन्त्री राजनाथ सिंह जी ने किसान संगठन प्रतिनिधियों से क्या सुझाव लिये और क्या आश्वासन दिए; मालूम नहीं। किन्तु इतना साफ दिखा कि राजनाथ सिंह जी ने जैसे ही कुछेक किसान संगठनों से बातचीत का एक दौर सम्पन्न किया, सरकार का रवैया बदल गया। 24 फरवरी तक जो सरकार रक्षात्मक नजर आ रही थी, वह अचानक आक्रामक हो गई। सर्वदलीय चर्चा के विचार को कूड़े के डिब्बे में डाल दिया। वैकेया नायडू भले ही कहते रहे कि सुझावों पर विचार होगा; किन्तु पार्टी प्रवक्ताओं के तेवर तल्ख हो गए।

खेती की जमीन पर उद्योग लगाने की जिद्द को लेकर भी एक प्रश्न तो है ही। इस प्रश्न के उत्तर में भाजपा प्रवक्ता ने प्रश्न दागा कि बंजर भूमि पर उद्योग लगाया, तो पानी कहाँ से आएगा? प्रश्न उठाते हुए वह शायद भूल गए कि पानी की कमी से ही नहीं, जलभराव के कारण भी जमीन बंजर होती है। कृषि भूमि कब्जाने की जिद्द के पीछे का असली उद्देश्य, कृषि भूमि की कीमतों में हो रही बेशुमार वृद्धि है। बिना उद्योग चलाये मुनाफा कमाने का इससे बेहतर नुस्खा और क्या हो सकता है?

अफवाहों का जन्तर-मन्तर


एक ओर दुष्प्रचार शुरू हुआ, मानो भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर आवाज बुलन्द करना, किसान संगठनों का घोषित एकाधिकार हो और अन्ना उसमें अनाधिकार चेष्टा कर रहे हों। अन्ना की आलोचना करने वाले बैनर जन्तर-मन्तर की सड़क किनारे रातों-रात उग आए। एक ही मसले पर समानान्तर कई मंच बन गए।

कई कलम और कैमरों ने मामले को किसान संगठन बनाम एन जी ओ बनाकर भी पेश किया। किसी ने कहा कि इन लोगों ने अन्ना को सिर्फ उपयोग किया है। किसी ने कहा कि अन्ना के मंच पर कांग्रेसियों का जमावड़ा था, तो किसी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुगामी संगठनों के प्रतिनिधियों से अन्ना की मुलाकातों की खबरें फैलाई। जरा सोचिए! ऐसी अफवाहों का बाजार गर्म करने का एकमेव मकसद भू-अधिकार से जुड़े मसले पर एकजुट संगठनों के बीच मतैक्य पैदा करने के अलावा भला और क्या हो सकता है?

नीयत पर सवाल


संशोधन के पक्ष में भाजपा के सफाई प्रचार पर सवालिया निशान लगाते सवाल कई हैं। पहला, सरकार यह तय करने वाली कौन होती है कि कोई परियोजना लोगों के हित में है या नहीं? दूसरा, स्थानीय लोगों को यह तय करने देने में देश का क्या नुकसान है कि जिस परियोजना के लिये सरकार भूमि अधिग्रहण करना चाहती है, वह स्थानीय लोगों के हित में है या नहीं? तीसरा, क्या सरकार यह समझती है कि गाँव के लोग इतने मूर्ख हैं कि यदि परियोजना स्थानीय लोगों के हित में हुई, तो भी वे भूमि अधिग्रहण के लिये अपनी ज़मीन देने को तैयार नहीं होंगे?

हित में होने के बावजूद लोग परियोजना के लिये ज़मीन नहीं दें; यह तभी हो सकता है जब या तो भूमिधरों की कोई मज़बूरी हो अथवा वे उस परियोजना को न चाहते हों। जाहिर है कि परियोजना यदि स्थानीय लोगों की मजबूरी का निराकरण करने, वाजिब लाभ देने तथा दूरगामी हित साधने वाली हुई, तो लोग सहमत न हों; ऐसा हो नहीं सकता। अपने भारत देश ऐसे लाखों उदाहरण से भरा पड़ा हैं, जहाँ भूमिधरों ने सार्वजनिक उपयोग के लिये बिना कोई पैसा लिये ज़मीनें दीं। अतः सहमति की शर्त को हटाना; अपने आप में भूमि अधिग्रहणकर्ता की नीयत पर शक पैदा करता है।

सहमति शर्त जरूरी क्यों?


सहमति की शर्त इसलिये भी जरूरी है, ताकि लोग अपनी भूमि के लेन-देन की शर्तें स्वयं तय करने के लिये आजाद बने रहें। इस शर्त का एक बड़ा लाभ यह होगा कि यदि लोग समझदार होंगे तो परियोजना और उसके संचालक, भूमि अधिग्रहण करने के बाद भी स्थानीय जन हितैषी बने रहेंगे। यह नहीं होगा कि बिजली परियोजना लगाते वक्त वादे करें कि जिनकी जमीन गई, उन्हे 24 घण्टे बिजली मिलेगी और बाद में लोग सिर्फ तार ही निहारते रह जाएँ।

भूमि अधिग्रहण के वक्त कहा जाए कि फैक्टरी प्रदूषण नहीं करेेगी; बाद में उसकी परवाह ही न करे। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में सरकारी ताप विद्युत घर के कारण आदिवासियों की जमीनें भी गईं और अब सेहत का भी सत्यानाश हो रहा है। चाहे खनन उद्योग हो या कोई फैक्टरी; एक बार जमीन हासिल हो जाने के बाद स्थानीय लोगों की जिन्दगी व हित से खिलवाड़ करने के कारनामें को देखते हुए जन-सहमति का प्रावधान को लागू करना और जरूरी है। खासकर, खनन और उद्योग क्षेत्र के लिये गए अधिग्रहण में ऐसे खतरे ज्यादा होते हैं।

कुछ जरूरी सवाल


भूमि अधिग्रहण से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि संशोधन पेश करने से पहले भारत की कुल भूमि में उद्योग, खेती, नगर, पानी, जंगल की भूमि का अनुपात तय करना जरूरी नहीं? क्या यह देखना जरूरी नहीं कि किस इलाके में निर्माण हो और देश के किस भूगोल को निर्माण से मुक्त रखा जाए? पेश आँकड़ों के मुताबिक, अधिग्रहित की गई कितनी ही भूमि ऐसी है, जो कई साल बीत जाने के बावजूद आवंटित ही नहीं की गई।

ऐसी अधिग्रहित की गई भूमि का रकबा भी कम नहीं, आवंटित होने के बावजूद आवंटी जिसका सालों-साल उपयोग नहीं कर सके। क्या यह जरूरी नहीं कि सरकार पहले से अधिग्रहित भूमि के उपयोग को प्राथमिकता बनाए? क्या औद्योगीकरण और शहरीकरण की कोई सीमा रेखा बनाना जरूरी नहीं? यही न करने का नतीजा है कि देश तमाम पलायन, पर्यावरण और रोजगार में होड़ की अनेक समस्याओं से जूझ रहा है।

खेती की जमीन पर उद्योग लगाने की जिद्द को लेकर भी एक प्रश्न तो है ही। इस प्रश्न के उत्तर में भाजपा प्रवक्ता ने प्रश्न दागा कि बंजर भूमि पर उद्योग लगाया, तो पानी कहाँ से आएगा? प्रश्न उठाते हुए वह शायद भूल गए कि पानी की कमी से ही नहीं, जलभराव के कारण भी जमीन बंजर होती है। कृषि भूमि कब्जाने की जिद्द के पीछे का असली उद्देश्य, कृषि भूमि की कीमतों में हो रही बेशुमार वृद्धि है। बिना उद्योग चलाये मुनाफा कमाने का इससे बेहतर नुस्खा और क्या हो सकता है?

कृषि और उसके प्रसंस्करित उत्पादों के बाजार पर कब्जे को लेकर बड़ी कम्पनियों में होड़ भी इसका एक कारण है। दुखद है कि हमारे जिस राष्ट्रपिता द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को आगे रखकर दुनिया सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का सपना देखती है, उसी गाँधी के देश में ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा खोखला साबित होने की ओर अग्रसर है। यह न होने पाए।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
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Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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