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विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।
ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।
खेतिहर की क्षमता विकसित करने के लिए कार्यक्रमों का नियोजन किया। तय किया कि प्रबंधन परियोजना को चाक चौबंद कैसे किया जाए? बनाई अनुदान योजना। खड़ी की परियोजना इकाइयां। चयनित किए गांव। अपने खेत पर खुद काम करने वाले भूमालिक को ही बनाया लाभार्थी। हर गांव में बनाई स्थल क्रियान्वयन समिति। गठित किए जलोपयोग और उत्पादक समूह। महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाए गए, ताकि आर्थिक कमजोरी ऊसर सुधार के काम में बाधा न बने।
अमेठी को ले कर एक कहावत है- “जौ न होत अमेठी मा ऊसर, तौ अमेठी कय द इवहौ ते दूसर।’’ यदि अमेठी में ऊसर न होता तो अमेठी का देवता कोई और होता। यह कहावत बताती है कि जमीन के ऊसर-बंजर होने का गवर्नेंस से क्या रिश्ता है। यह कहावत इस नतीजे की ओर संकेत है कि जमीन ऊसर हो तो परावलंबन की मजबूरी खुद-ब-खुद हाथ बांधे रखती है। इसी मजबूरी ने आजादी के बाद भी अमेठी के रजवाड़े को लोगों के मानस में राजा-रानी बनाए रखा।सरकारी और निजी प्रयासों से कुछ भूमि खेती योग्य हुई जरूर है; बावजूद इसके अमेठी का आज भी काफी बड़ा रकबा ऊसर-बंजर-टांड है। पूरे उत्तर प्रदेश को देखें तो ऐसी भूमि के रकबे का आंकड़ा कई लाख हेक्टेयर में है। हम चाहें तो इस पर बहस कर सकते हैं कि अच्छी-खासी उपजाऊ जमीन को ऊसर बनाने में कितना योगदान शासन-प्रशासन का है और कितना स्वयं खेत मालिकों का, लेकिन इस बात पर कोई बहस नहीं है कि ऐसी भूमि को सुधरना चाहिए।
रिपोर्ट में आहार सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। पर्यावरण परिवर्तन के अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक तापमान के कारण आने वाले समय में धान और मक्के की फसलों की बर्बादी का अंदेशा है। मछलियां बहुत बड़ी आबादी का आहार हैं। उन्हें भी क्षति होगी। बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए।
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सत्ता के कुचक्र से जूझते जन आंदोलन
विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।
ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।
अब ऊसर नाहीं बा हमार किस्मत
खेतिहर की क्षमता विकसित करने के लिए कार्यक्रमों का नियोजन किया। तय किया कि प्रबंधन परियोजना को चाक चौबंद कैसे किया जाए? बनाई अनुदान योजना। खड़ी की परियोजना इकाइयां। चयनित किए गांव। अपने खेत पर खुद काम करने वाले भूमालिक को ही बनाया लाभार्थी। हर गांव में बनाई स्थल क्रियान्वयन समिति। गठित किए जलोपयोग और उत्पादक समूह। महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाए गए, ताकि आर्थिक कमजोरी ऊसर सुधार के काम में बाधा न बने।
अमेठी को ले कर एक कहावत है- “जौ न होत अमेठी मा ऊसर, तौ अमेठी कय द इवहौ ते दूसर।’’ यदि अमेठी में ऊसर न होता तो अमेठी का देवता कोई और होता। यह कहावत बताती है कि जमीन के ऊसर-बंजर होने का गवर्नेंस से क्या रिश्ता है। यह कहावत इस नतीजे की ओर संकेत है कि जमीन ऊसर हो तो परावलंबन की मजबूरी खुद-ब-खुद हाथ बांधे रखती है। इसी मजबूरी ने आजादी के बाद भी अमेठी के रजवाड़े को लोगों के मानस में राजा-रानी बनाए रखा।सरकारी और निजी प्रयासों से कुछ भूमि खेती योग्य हुई जरूर है; बावजूद इसके अमेठी का आज भी काफी बड़ा रकबा ऊसर-बंजर-टांड है। पूरे उत्तर प्रदेश को देखें तो ऐसी भूमि के रकबे का आंकड़ा कई लाख हेक्टेयर में है। हम चाहें तो इस पर बहस कर सकते हैं कि अच्छी-खासी उपजाऊ जमीन को ऊसर बनाने में कितना योगदान शासन-प्रशासन का है और कितना स्वयं खेत मालिकों का, लेकिन इस बात पर कोई बहस नहीं है कि ऐसी भूमि को सुधरना चाहिए।
खतरे की चेतावनी
रिपोर्ट में आहार सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। पर्यावरण परिवर्तन के अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक तापमान के कारण आने वाले समय में धान और मक्के की फसलों की बर्बादी का अंदेशा है। मछलियां बहुत बड़ी आबादी का आहार हैं। उन्हें भी क्षति होगी। बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए।
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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