उत्तराखंड में पिछले एक दशक से सड़कों का निर्माण और विस्तार किया जा रहा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है और विस्फोट के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कोई ध्यान दिए बगैर, उपयुक्त जलनिकासी संरचना के अभाव सहित विभिन्न सुरक्षा नियमों की अनदेखी की जा रही है। पिछले दशक में पर्यटन के तीव्र विस्तार में आपदा प्रबंधन के आधारभूत नियमों पर ध्यान नहीं दिया गया। 38,000 वर्ग कि.मी. से भी अधिक के दायरे में फैले हिमालयी क्षेत्र की पर्वतधाराओं, नदियों, वनों, हिमनदों और लोगों को प्रभावित करने वाली प्राकृतिक आपदा का जटिल होना लाज़िमी है। प्राकृतिक आपदाएं और इसके प्रभाव अक्सर एक साथ कई चीजों के घटने का परिणाम होती हैं। हाल में उत्तराखंड में आई आपदा उन मानव जनित कारणों को उजागर करती है जिसकी वजह से इस घटना का प्रभाव कई गुना बढ़ गया। उत्तराखंड कच्चे और नए पहाड़ों वाला राज्य है। यह क्षेत्र भारी वर्षा, बादल फटने, भूस्खलन, आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन से अक्सर प्रभावित होता रहता है। यहां के भूतत्व में काफी समस्याएं हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से बादल फटने और आकस्मिक बाढ़, हिमनद के फटने से बाढ़ (हाल में हुई आपदा में एक से अधिक जगहों पर इनकी आशंका लगा रही है जिसमें केदारनाथ, हेमकुंड साहिब और पिथौरागढ़ के ऊपर बहने वाली धाराएं शामिल हैं) सहित काफी तेज वर्षा के प्रभाव में वृद्धि हो रही है और इन सबके साथ भूस्खलन की घटनाएँ हो रही हैं।
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