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सन 1908 में हुई एक वैज्ञानिक खोज ने हमारी दुनिया बदल दी है। शायद किसी एक आविष्कार का इतना गहरा असर इतिहास में नहीं होगा। आज हममें से हर किसी के जीवन में इस खोज का असर सीधा दीखता है। इससे मनुष्य इतना खाना उगाने लगा है कि एक शताब्दी में ही चौगुनी बढ़ी आबादी के लिए भी अनाज कम नहीं पड़ा। लेकिन इस आविष्कार ने हिंसा का भी एक ऐसा रास्ता खोला है, जिससे हमारी कोई निजाद नहीं है। दो विश्व युद्धों से लेकर आतंकवादी हमलों तक। जमीन की पैदावार बढ़ाने वाले इस आविष्कार से कई तरह के वार पैदा हुए हैं, चाहे विस्फोटकों के रूप में और चाहे पर्यावरण के विराट प्रदूषण के रूप में।
दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? इसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा उन कारणों को जानने के लिए, जिनसे हरित क्रांति के उर्वरक तैयार हुए थे।
इस साल 17 अप्रैल को एक बड़ा धमाका हुआ था। इसकी गूंज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सास राज्य के वेस्ट नामक गांव में हुए इस विस्फोट से फैले दावानल ने 15 लोगों को मारा था और कोई 180 लोग हताहत हुए थे। हादसे तो यहां-वहां होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों को मारते भी हैं। लेकिन यह धमाका कई दिनों तक खबर में बना रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं, जिस जगह यह हुआ था, उस वजह से। धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। उर्वरक बनाने के लिए काम आने वाले रसायनों के एक भंडार में आग लग गई थी। कुछ वैसी ही जैसी कारखानों में यहां-वहां कभी-कभी लग जाती है। दमकल की गाड़ियां पहुंचीं और अग्निशमन दल अपने काम में लग गया। लेकिन उसके बाद जो धमाका हुआ, उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी एक भूचाल की तरह महसूस किया।आपदा के शुरुआती दिनों में आपदाग्रस्त गाँवों में हेलिकॉप्टर से बिस्कुट, पानी वगैरह गिराया गया था। उसके बाद लोग रोज़ाना दर्जनों बार हेलिकॉटर को अपने गांव के ऊपर से उड़ान भरते देखते हैं। जैसे ही किसी हेलिकॉप्टर की आवाज़ इनके कानों में पड़ती है तो सभी अपने आंगन में आकर आसमान को निहारने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन्हें दो महीने हो गए हैं। लेकिन एक भी पैकेट अन्न इस क्षेत्र में नहीं गिरा। राहत सामग्री नहीं मिलने के कारण घाटी के लोगों पर भुखमरी का संकट गहराने लगा है। आपदा के दो महीने बाद भी उत्तराखंड में केदारनाथ इलाके की हकीक़त अब भी भयावह है। वहां मलबों में अब भी दबी लाशें डीएनए परीक्षण के इंतजार में दुर्गंध फैला रही हैं। भूख से तड़पते लोग हैं, मगर राहत सामग्री उन तक नहीं पहुंच पाई है। कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी की सूरत-ए-हाल जानने के लिए जान जोखिम में डालकर उन दुर्गंध घाटियों में गया, जहां अभी तक कोई मीडियाकर्मी नहीं पहुंचा पाया था और न सरकारी कारिंदा। मुआवज़े का मरहम ज़ख्म तक पहुंचने से पहले ही प्रहसन में तब्दील हो रहा है। पीड़ा की घाटियों को जानने-समझने के क्रम में हमारा पहला पड़ाव ऊखीमठ था। इसी तहसील में केदारनाथ है, जो रुद्रप्रयाग जनपद में है। अगले दिन सबसे पहले ऊखीमठ का पैंज गांव जाना हुआ। बताया गया कि इस गांव के आठ लोग केदारनाथ के काल के गाल में समा गए, जिनमें पांच बच्चे थे।
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उर्वरता की हिंसक भूमि
सन 1908 में हुई एक वैज्ञानिक खोज ने हमारी दुनिया बदल दी है। शायद किसी एक आविष्कार का इतना गहरा असर इतिहास में नहीं होगा। आज हममें से हर किसी के जीवन में इस खोज का असर सीधा दीखता है। इससे मनुष्य इतना खाना उगाने लगा है कि एक शताब्दी में ही चौगुनी बढ़ी आबादी के लिए भी अनाज कम नहीं पड़ा। लेकिन इस आविष्कार ने हिंसा का भी एक ऐसा रास्ता खोला है, जिससे हमारी कोई निजाद नहीं है। दो विश्व युद्धों से लेकर आतंकवादी हमलों तक। जमीन की पैदावार बढ़ाने वाले इस आविष्कार से कई तरह के वार पैदा हुए हैं, चाहे विस्फोटकों के रूप में और चाहे पर्यावरण के विराट प्रदूषण के रूप में।
दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? इसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा उन कारणों को जानने के लिए, जिनसे हरित क्रांति के उर्वरक तैयार हुए थे।
इस साल 17 अप्रैल को एक बड़ा धमाका हुआ था। इसकी गूंज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सास राज्य के वेस्ट नामक गांव में हुए इस विस्फोट से फैले दावानल ने 15 लोगों को मारा था और कोई 180 लोग हताहत हुए थे। हादसे तो यहां-वहां होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों को मारते भी हैं। लेकिन यह धमाका कई दिनों तक खबर में बना रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं, जिस जगह यह हुआ था, उस वजह से। धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। उर्वरक बनाने के लिए काम आने वाले रसायनों के एक भंडार में आग लग गई थी। कुछ वैसी ही जैसी कारखानों में यहां-वहां कभी-कभी लग जाती है। दमकल की गाड़ियां पहुंचीं और अग्निशमन दल अपने काम में लग गया। लेकिन उसके बाद जो धमाका हुआ, उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी एक भूचाल की तरह महसूस किया।आपदा के बाद उत्तराखंड
आपदा के शुरुआती दिनों में आपदाग्रस्त गाँवों में हेलिकॉप्टर से बिस्कुट, पानी वगैरह गिराया गया था। उसके बाद लोग रोज़ाना दर्जनों बार हेलिकॉटर को अपने गांव के ऊपर से उड़ान भरते देखते हैं। जैसे ही किसी हेलिकॉप्टर की आवाज़ इनके कानों में पड़ती है तो सभी अपने आंगन में आकर आसमान को निहारने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन्हें दो महीने हो गए हैं। लेकिन एक भी पैकेट अन्न इस क्षेत्र में नहीं गिरा। राहत सामग्री नहीं मिलने के कारण घाटी के लोगों पर भुखमरी का संकट गहराने लगा है। आपदा के दो महीने बाद भी उत्तराखंड में केदारनाथ इलाके की हकीक़त अब भी भयावह है। वहां मलबों में अब भी दबी लाशें डीएनए परीक्षण के इंतजार में दुर्गंध फैला रही हैं। भूख से तड़पते लोग हैं, मगर राहत सामग्री उन तक नहीं पहुंच पाई है। कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी की सूरत-ए-हाल जानने के लिए जान जोखिम में डालकर उन दुर्गंध घाटियों में गया, जहां अभी तक कोई मीडियाकर्मी नहीं पहुंचा पाया था और न सरकारी कारिंदा। मुआवज़े का मरहम ज़ख्म तक पहुंचने से पहले ही प्रहसन में तब्दील हो रहा है। पीड़ा की घाटियों को जानने-समझने के क्रम में हमारा पहला पड़ाव ऊखीमठ था। इसी तहसील में केदारनाथ है, जो रुद्रप्रयाग जनपद में है। अगले दिन सबसे पहले ऊखीमठ का पैंज गांव जाना हुआ। बताया गया कि इस गांव के आठ लोग केदारनाथ के काल के गाल में समा गए, जिनमें पांच बच्चे थे।
रिफ़ाइनरी चाहिए तो पर्यावरण का भी रहे ध्यान
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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