यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कचरे को डंप करने के लिए बनाए गए सोलर इंपोरेशन तालाब की मिट्टी कितना जहरीला है, यह आज के लोगों को नहीं मालूम। अब तो यहां की मिट्टी को लोग घरों में ले जा रहे हैं एवं दीवारों में लगा रहे हैं। यूनियन कार्बाइड के जहरीले रासायनिक कचरे वाले इस मिट्टी को छुने से भले ही तत्काल असर नहीं पड़े, पर यह धीमे जहर के रूप में शरीर पर असर डालने में सक्षम है। कचरे का जहरीलापन इससे साबित होता है कि आसपास की कॉलोनियों के साथ-साथ यह 5 किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र के भूजल को जहरीला बना चुका है। इलाके के भूजल का इस्तेमाल करने का साफ मतलब है, अपने को बीमारियों के हवाले करना। भोपाल गैस त्रासदी पर काम कर रहे विभिन्न संगठन लगातार यह आवाज़ उठाते रहे हैं कि यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास फैले रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द किया जाए, पर सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण आज भी यूनियन कार्बाइड परिसर के गोदाम में एवं उसके आसपास खुले में कचरा पड़ा हुआ है।
हालत अब यह हो गई है कि पिछले 28 सालों में इस अति हानिकारक रासायनिक कचरे के कारण आसपास का भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है एवं ताज़ा शोध में यह पता चला है कि भूजल एवं मिट्टी के प्रदूषण का दायरा 3 किलोमीटर से बढ़कर 5 किलोमीटर हो गया है एवं पहले जहां 14 बस्तियों के भूजल को प्रदूषित माना जा रहा था, अब 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं रहा गया है। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार के अनुसार संगठनों की आवाज़ को अनसुनी कर सरकार ने कचरे के निष्पादन में लापरवाही बरती है, जिसके कारण आसपास के पर्यावरण एवं भोजन चक्र में यूनियन कार्बाइड कारखाने में उपयोग होने वाले रसायन शामिल हो गए हैं। यह लोगों एवं पर्यावरण की सेहत बिगाड़ने में धीमा जहर का काम कर रहा है एवं यदि जल्द ही इसका समाधान नहीं किया गया, तो यह भोपाल के लिए एक नई त्रासदी का कारण बन सकता है।
हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च, लखनऊ ने यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास के क्षेत्र से भूजल का नमूना लेकर जांच किया था, जिसमें उसने पाया कि परिसर से उत्तर-पूर्व की ओर 5 किलोमीटर तक भूजल प्रदूषित हो गया है एवं भोपाल की 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं है। संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया, तो गैस त्रासदी पर कार्यरत संगठनों की बात पर मुहर लग गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कहा है कि रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द होना चाहिए एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण के स्तर पर अब किसी भी तरह का कोई नुकसान भोपाल में नहीं होना चाहिए। पर जो स्थितियाँ दिख रही हैं, उसमें यह नहीं लगता कि न्यायालय की बात को तरजीह देकर सरकार कोई कदम उठा रही है। भोपाल गैस पीड़ित निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष बालकृष्ण नामदेव के अनुसार केंद्र एवं राज्य के मंत्री रसायनिक कचरे को लेकर हास्यास्पद बयान देते हैं। कुछ समय पूर्व तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कचरे को हाथ में उठाकर कहा था कि उन पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह पीड़ितों का अपमान था। बाद में उन्होंने माफी भी मांगी थी। राज्य के पूर्व गैस राहत मंत्री आरिफ अकील ने भी पानी पीकर कहा था कि उन पर कोई असर नहीं हुआ। यही स्थिति वर्तमान गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर का है, जो कहते हैं कि इलाके में पेड़-पौधे हैं, चिड़िया हैं एवं अन्य जीव-जंतु हैं, उन पर कुछ असर नहीं दिखता। पर जब भी बयानों से परे वैज्ञानिक शोध होता है, तो पता चलता है कि कचरे के कारण पहले से बढ़े हुए दायरे में भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है।
यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। कंपनी डंपिंग साइट एवं इंपोरेशन तालाब में काली पलास्टिक की पन्नी बिछाकर 1969 से 1984 तक कचरा डालती रही थी, जो कि लगभग 18 हजार टन अनुमानित है। समय के साथ पन्नियां फट गई एवं खतरनाक रसायन भूजल में मिलने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ है कि कचरा पानी के साथ दूर तक पहुंच चुका है। यद्यपि अभी भी उन साइट्स पर मिट्टीनुमा कचरे का ढेर है, जिसे उठाकर पैक करने की जरूरत है, पर अब उसे सरकार रासायनिक कचरा मान ही नहीं रही है एवं शेड में पैक कर रखे गए सिर्फ 346 टन रासायनिक कचरे (40 टन कचरा चुपके से पीथमपुर की रामकी एनवायरो में जला दिया गया था, जिसका वहां के पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ा था एवं स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया, जिससे सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया) की ही बात की जा रही है। गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर कहते हैं कि बाहर जो भी कचरा रहा हो, अब नहीं है। वह पानी में बह-बहकर एवं लंबे समय के बाद खत्म हो गया है।
भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की संयोजक साधना कार्णिक के अनुसार परिसर के बाहर खुले में पड़े कचरे को चारदीवारी से घेरना जरूरी है, जिससे कि वहां कोई जा नहीं सके। फिर उसके बाद एक व्यापक शोध की जरूरत है, जिससे पता लगाया जा सके कि कचरे का प्रभाव कहां तक पहुंच गया है एवं उसके बाद समस्या का तत्काल समाधान करने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यह आखिरी में जनता पर ही थोप दिया जाएगा।
यूनियन कार्बाइड कचरे से प्रदूषित होता भूजलअब्दुल जब्बार का कहना है कि सरकार के लिए शेड में पैक कर रखे गए कचरे का निष्पादन करना ही सिरदर्द बना हुआ है, तो वह बाहर फैले कचरे की बात क्यों करना चाहेगी। पर दुखद बात तो यह है कि बाहर पड़े कचरे से जो लोग गैस पीड़ित नहीं हैं, वे भी आगे चलकर उन रसायनों से प्रभावित हो जाएंगे। बाहर के कचरे ने अभी मिट्टी एवं पानी को प्रदूषित किया है, पर अब वह जानवरों एवं पौधों के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करेगा एवं फिर एक बड़ा समुदाय उन घातक रसायनों का शिकार होगा। इसलिए सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था के साथ-साथ बाहर फैले कचरे को अधिक से अधिक मात्रा में पैक करने की जरूरत है एवं जब निष्पादन किया जाए, तो पूरे कचरे का किया जाए।
केंद्र एवं राज्य सरकार सिर्फ पैक्ड कचरे के निष्पादन से ही जूझ रही है। सबसे पहले गुजरात के अंकलेश्वर में कचरे को भस्म करने की बात की गई, फिर मध्य प्रदेश के पीथमपुर में कचरे को भस्म करने की बात की गई और उसके बाद नागपुर के पास स्थित तमोजा में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशाला में जलाने की बात की गई, पर स्थानीय विरोध एवं सरकारों के इनकार के बाद ऐसा संभव नहीं हो पाया। तब जून 2012 में जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन से बात की गई थी। पर उसने भी इनकार की दृष्टि से कड़े शर्त लाद लिए, जिसे नहीं मानने पर उसने कचरे के निष्पादन से इनकार कर दिया। अब एक बार फिर मंत्री समूह की बैठक में यह तय किया गया है कि पहले यह जांचा जाए कि इसमें कौन-कौन से रसायन हैं एवं तब उसे नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाई जाए। आश्चर्यजनक है कि इतने सालों में सरकारी स्तर पर यह भी तय नहीं हो पाया है।
उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र की मिट्टी एवं पानी की जांच 1989 से लेकर अब तक 15 से अधिक बार सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर की जा चुकी है। कुछ साल पूर्व सी.एस.ई. ने कचरे के कारण फैल रहे प्रदूषण को देखकर कहा था कि भोपाल एक बार फिर ज्वालामुखी के मुहाने पर है। राज्य की लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग हो या केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की इकाई हो या फिर अन्य एजेंसियाँ, सभी ने आगाह किया है कि आसपास के क्षेत्र में रासायनिक कचरे के कारण मिट्टी एवं पानी में प्रदूषण फैल रहा है, पर सरकार खुले में पड़े कचरे के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती, जो भोपाल के लिए खतरनाक बनता जा रहा है।
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