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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Hindi on Sat, 01/05/2013 - 11:09
Source:
नेशनल दुनिया, 30 दिसंबर 2012
उत्तराखंड का परंपरागत जल प्रबंधन मनुष्य की सामुदायिक क्षमता और आत्मनिर्भरता का बेहतरीन उदाहरण है। जल, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को और अधिक सरलीकृत करने हेतु इसमें ग्रामीणों के सहयोग लेने की और अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। हिमालय की कठिन परिस्थितियों में यहां के निवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की टिकऊ विधियां तो विकसित की लेकिन सरकारी हस्तक्षेप ने इन विधियों को इनसे दूर कर दिया। भारत के हिमालय क्षेत्र के गांवों में ही लगभग दो लाख घराट यानी पनचक्कियां मौजूद हैं। इसी तरह विश्वभर के पहाड़ी क्षेत्रों में बीस लाख पनचक्कियां तीसरी, चौथी सदी से लोगों की सेवा कर रही हैं। इन पनचक्कियों से गेहूं पिसाई एवं अन्य तरीके के काम लिए जाते रहे हैं। अब इन पनचक्कियों के जरिए पिसाई के अलावा ऊर्जा ज़रूरतों को भी पूरा करने का काम लिए जाने की तकनीक विकसित होने पर इनका महत्व बढ़ रहा है। इन घराटों को ग्रामीण क्षेत्र के कारखाने के रूप में भी इस्तेमाल किए जाने से कई जगह इनको समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। इन घराटों में छिटपुट तकनीकी सुधार से ही इन मिलों की क्षमता में यहां काफी हद तक वृद्धि की सकती है वहीं इससे ऊर्जा उत्पादन एवं लेथ मशीन चलाने जैसे काम लिए जा सकते हैं। इससे पिसाई के साथ-साथ अन्य अभियांत्रिक कामों को भी इन पनचक्कियों द्वारा अंजाम दिया जा सकता है।
Submitted by Hindi on Fri, 01/04/2013 - 11:21
Source:
नेशनल दुनिया, 23 दिसंबर 2012
अभी दुनिया भर के बहुत से देशों में परमाणु कचरा संयंत्रों के पास ही गहराई में पानी के पूल में जमा किया जाता है। इसके बाद भी कचरे से भरे कंटेनर्स की सुरक्षा बड़ी चुनौती होती है। परमाणु कचरे से उत्पन्न विकिरण हजारों वर्ष तक समाप्त नहीं होता। विकिरण से मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर पड़ने वाले घातक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। परमाणु उर्जा का लंबा इतिहास रखने वाले कई विकसित देशों में भी इस कचरे को स्थायी रूप से ठिकाने लगाने की तैयारियाँ चल रही हैं, प्रयोग चल रहे हैं। बीच में एक विचार यह भी आया था कि इस कचरे को अंतरिक्ष में रखा जाए लेकिन मामला बेहद ख़र्चीला व जोखिम भरा होने के कारण वह विचार त्याग दिया गया।। परमाणु ऊर्जा के पक्ष-विपक्ष में तमाम तरह की चर्चाओं के बीच ब्रिटेन से खबर आई है जो भारतीय संदर्भ में निश्चय ही अत्यंत प्रासंगिक है। खबर के मुताबिक ब्रिटेन में परमाणु कचरे को साफ करने में 100 बिलियन, पौंड जैसी भारी-भरकम राशि खर्च होगी। इससे भी बड़ी बात यह कि इस काम को अंजाम तक पहुंचाने में 120 साल लगेंगे। वहां के विशेषज्ञों ने परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने और इसकी सुरक्षा को लेकर भी चिंता व्यक्त की है।

ब्रिटेन में वर्ष 2005 में जब नेशनल डिकमिशनिंग अथॉरिटी (एनडीए) ने परमाणु कचरे के निस्तारण के तौर-तरीकों पर काम करना शुरू किया था तब अनुमान लगाया जा रहा था कि इस काम पर 56 बिलियन पौंड का ख़र्चा आएगा
Submitted by Hindi on Sat, 12/29/2012 - 13:45
Source:
union carbide polluted groundwater in bhopal
यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कचरे को डंप करने के लिए बनाए गए सोलर इंपोरेशन तालाब की मिट्टी कितना जहरीला है, यह आज के लोगों को नहीं मालूम। अब तो यहां की मिट्टी को लोग घरों में ले जा रहे हैं एवं दीवारों में लगा रहे हैं। यूनियन कार्बाइड के जहरीले रासायनिक कचरे वाले इस मिट्टी को छुने से भले ही तत्काल असर नहीं पड़े, पर यह धीमे जहर के रूप में शरीर पर असर डालने में सक्षम है। कचरे का जहरीलापन इससे साबित होता है कि आसपास की कॉलोनियों के साथ-साथ यह 5 किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र के भूजल को जहरीला बना चुका है। इलाके के भूजल का इस्तेमाल करने का साफ मतलब है, अपने को बीमारियों के हवाले करना। भोपाल गैस त्रासदी पर काम कर रहे विभिन्न संगठन लगातार यह आवाज़ उठाते रहे हैं कि यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास फैले रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द किया जाए, पर सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण आज भी यूनियन कार्बाइड परिसर के गोदाम में एवं उसके आसपास खुले में कचरा पड़ा हुआ है।

हालत अब यह हो गई है कि पिछले 28 सालों में इस अति हानिकारक रासायनिक कचरे के कारण आसपास का भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है एवं ताज़ा शोध में यह पता चला है कि भूजल एवं मिट्टी के प्रदूषण का दायरा 3 किलोमीटर से बढ़कर 5 किलोमीटर हो गया है एवं पहले जहां 14 बस्तियों के भूजल को प्रदूषित माना जा रहा था, अब 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं रहा गया है। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार के अनुसार संगठनों की आवाज़ को अनसुनी कर सरकार ने कचरे के निष्पादन में लापरवाही बरती है, जिसके कारण आसपास के पर्यावरण एवं भोजन चक्र में यूनियन कार्बाइड कारखाने में उपयोग होने वाले रसायन शामिल हो गए हैं। यह लोगों एवं पर्यावरण की सेहत बिगाड़ने में धीमा जहर का काम कर रहा है एवं यदि जल्द ही इसका समाधान नहीं किया गया, तो यह भोपाल के लिए एक नई त्रासदी का कारण बन सकता है।

हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च, लखनऊ ने यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास के क्षेत्र से भूजल का नमूना लेकर जांच किया था, जिसमें उसने पाया कि परिसर से उत्तर-पूर्व की ओर 5 किलोमीटर तक भूजल प्रदूषित हो गया है एवं भोपाल की 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं है। संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया, तो गैस त्रासदी पर कार्यरत संगठनों की बात पर मुहर लग गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कहा है कि रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द होना चाहिए एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण के स्तर पर अब किसी भी तरह का कोई नुकसान भोपाल में नहीं होना चाहिए। पर जो स्थितियाँ दिख रही हैं, उसमें यह नहीं लगता कि न्यायालय की बात को तरजीह देकर सरकार कोई कदम उठा रही है। भोपाल गैस पीड़ित निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष बालकृष्ण नामदेव के अनुसार केंद्र एवं राज्य के मंत्री रसायनिक कचरे को लेकर हास्यास्पद बयान देते हैं। कुछ समय पूर्व तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कचरे को हाथ में उठाकर कहा था कि उन पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह पीड़ितों का अपमान था। बाद में उन्होंने माफी भी मांगी थी। राज्य के पूर्व गैस राहत मंत्री आरिफ अकील ने भी पानी पीकर कहा था कि उन पर कोई असर नहीं हुआ। यही स्थिति वर्तमान गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर का है, जो कहते हैं कि इलाके में पेड़-पौधे हैं, चिड़िया हैं एवं अन्य जीव-जंतु हैं, उन पर कुछ असर नहीं दिखता। पर जब भी बयानों से परे वैज्ञानिक शोध होता है, तो पता चलता है कि कचरे के कारण पहले से बढ़े हुए दायरे में भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है।

यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। कंपनी डंपिंग साइट एवं इंपोरेशन तालाब में काली पलास्टिक की पन्नी बिछाकर 1969 से 1984 तक कचरा डालती रही थी, जो कि लगभग 18 हजार टन अनुमानित है। समय के साथ पन्नियां फट गई एवं खतरनाक रसायन भूजल में मिलने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ है कि कचरा पानी के साथ दूर तक पहुंच चुका है। यद्यपि अभी भी उन साइट्स पर मिट्टीनुमा कचरे का ढेर है, जिसे उठाकर पैक करने की जरूरत है, पर अब उसे सरकार रासायनिक कचरा मान ही नहीं रही है एवं शेड में पैक कर रखे गए सिर्फ 346 टन रासायनिक कचरे (40 टन कचरा चुपके से पीथमपुर की रामकी एनवायरो में जला दिया गया था, जिसका वहां के पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ा था एवं स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया, जिससे सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया) की ही बात की जा रही है। गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर कहते हैं कि बाहर जो भी कचरा रहा हो, अब नहीं है। वह पानी में बह-बहकर एवं लंबे समय के बाद खत्म हो गया है।

भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की संयोजक साधना कार्णिक के अनुसार परिसर के बाहर खुले में पड़े कचरे को चारदीवारी से घेरना जरूरी है, जिससे कि वहां कोई जा नहीं सके। फिर उसके बाद एक व्यापक शोध की जरूरत है, जिससे पता लगाया जा सके कि कचरे का प्रभाव कहां तक पहुंच गया है एवं उसके बाद समस्या का तत्काल समाधान करने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यह आखिरी में जनता पर ही थोप दिया जाएगा।

यूनियन कार्बाइड कचरे से प्रदूषित होता भूजलअब्दुल जब्बार का कहना है कि सरकार के लिए शेड में पैक कर रखे गए कचरे का निष्पादन करना ही सिरदर्द बना हुआ है, तो वह बाहर फैले कचरे की बात क्यों करना चाहेगी। पर दुखद बात तो यह है कि बाहर पड़े कचरे से जो लोग गैस पीड़ित नहीं हैं, वे भी आगे चलकर उन रसायनों से प्रभावित हो जाएंगे। बाहर के कचरे ने अभी मिट्टी एवं पानी को प्रदूषित किया है, पर अब वह जानवरों एवं पौधों के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करेगा एवं फिर एक बड़ा समुदाय उन घातक रसायनों का शिकार होगा। इसलिए सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था के साथ-साथ बाहर फैले कचरे को अधिक से अधिक मात्रा में पैक करने की जरूरत है एवं जब निष्पादन किया जाए, तो पूरे कचरे का किया जाए।

केंद्र एवं राज्य सरकार सिर्फ पैक्ड कचरे के निष्पादन से ही जूझ रही है। सबसे पहले गुजरात के अंकलेश्वर में कचरे को भस्म करने की बात की गई, फिर मध्य प्रदेश के पीथमपुर में कचरे को भस्म करने की बात की गई और उसके बाद नागपुर के पास स्थित तमोजा में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशाला में जलाने की बात की गई, पर स्थानीय विरोध एवं सरकारों के इनकार के बाद ऐसा संभव नहीं हो पाया। तब जून 2012 में जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन से बात की गई थी। पर उसने भी इनकार की दृष्टि से कड़े शर्त लाद लिए, जिसे नहीं मानने पर उसने कचरे के निष्पादन से इनकार कर दिया। अब एक बार फिर मंत्री समूह की बैठक में यह तय किया गया है कि पहले यह जांचा जाए कि इसमें कौन-कौन से रसायन हैं एवं तब उसे नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाई जाए। आश्चर्यजनक है कि इतने सालों में सरकारी स्तर पर यह भी तय नहीं हो पाया है।

उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र की मिट्टी एवं पानी की जांच 1989 से लेकर अब तक 15 से अधिक बार सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर की जा चुकी है। कुछ साल पूर्व सी.एस.ई. ने कचरे के कारण फैल रहे प्रदूषण को देखकर कहा था कि भोपाल एक बार फिर ज्वालामुखी के मुहाने पर है। राज्य की लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग हो या केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की इकाई हो या फिर अन्य एजेंसियाँ, सभी ने आगाह किया है कि आसपास के क्षेत्र में रासायनिक कचरे के कारण मिट्टी एवं पानी में प्रदूषण फैल रहा है, पर सरकार खुले में पड़े कचरे के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती, जो भोपाल के लिए खतरनाक बनता जा रहा है।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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पनचक्की से पूरी होंगी ऊर्जा जरूरतें

Submitted by Hindi on Sat, 01/05/2013 - 11:09
Author
महेश पांडे
Source
नेशनल दुनिया, 30 दिसंबर 2012
उत्तराखंड का परंपरागत जल प्रबंधन मनुष्य की सामुदायिक क्षमता और आत्मनिर्भरता का बेहतरीन उदाहरण है। जल, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को और अधिक सरलीकृत करने हेतु इसमें ग्रामीणों के सहयोग लेने की और अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। हिमालय की कठिन परिस्थितियों में यहां के निवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की टिकऊ विधियां तो विकसित की लेकिन सरकारी हस्तक्षेप ने इन विधियों को इनसे दूर कर दिया। भारत के हिमालय क्षेत्र के गांवों में ही लगभग दो लाख घराट यानी पनचक्कियां मौजूद हैं। इसी तरह विश्वभर के पहाड़ी क्षेत्रों में बीस लाख पनचक्कियां तीसरी, चौथी सदी से लोगों की सेवा कर रही हैं। इन पनचक्कियों से गेहूं पिसाई एवं अन्य तरीके के काम लिए जाते रहे हैं। अब इन पनचक्कियों के जरिए पिसाई के अलावा ऊर्जा ज़रूरतों को भी पूरा करने का काम लिए जाने की तकनीक विकसित होने पर इनका महत्व बढ़ रहा है। इन घराटों को ग्रामीण क्षेत्र के कारखाने के रूप में भी इस्तेमाल किए जाने से कई जगह इनको समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। इन घराटों में छिटपुट तकनीकी सुधार से ही इन मिलों की क्षमता में यहां काफी हद तक वृद्धि की सकती है वहीं इससे ऊर्जा उत्पादन एवं लेथ मशीन चलाने जैसे काम लिए जा सकते हैं। इससे पिसाई के साथ-साथ अन्य अभियांत्रिक कामों को भी इन पनचक्कियों द्वारा अंजाम दिया जा सकता है।

परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने की चुनौती

Submitted by Hindi on Fri, 01/04/2013 - 11:21
Author
दुष्यंत शर्मा
Source
नेशनल दुनिया, 23 दिसंबर 2012
अभी दुनिया भर के बहुत से देशों में परमाणु कचरा संयंत्रों के पास ही गहराई में पानी के पूल में जमा किया जाता है। इसके बाद भी कचरे से भरे कंटेनर्स की सुरक्षा बड़ी चुनौती होती है। परमाणु कचरे से उत्पन्न विकिरण हजारों वर्ष तक समाप्त नहीं होता। विकिरण से मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर पड़ने वाले घातक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। परमाणु उर्जा का लंबा इतिहास रखने वाले कई विकसित देशों में भी इस कचरे को स्थायी रूप से ठिकाने लगाने की तैयारियाँ चल रही हैं, प्रयोग चल रहे हैं। बीच में एक विचार यह भी आया था कि इस कचरे को अंतरिक्ष में रखा जाए लेकिन मामला बेहद ख़र्चीला व जोखिम भरा होने के कारण वह विचार त्याग दिया गया।। परमाणु ऊर्जा के पक्ष-विपक्ष में तमाम तरह की चर्चाओं के बीच ब्रिटेन से खबर आई है जो भारतीय संदर्भ में निश्चय ही अत्यंत प्रासंगिक है। खबर के मुताबिक ब्रिटेन में परमाणु कचरे को साफ करने में 100 बिलियन, पौंड जैसी भारी-भरकम राशि खर्च होगी। इससे भी बड़ी बात यह कि इस काम को अंजाम तक पहुंचाने में 120 साल लगेंगे। वहां के विशेषज्ञों ने परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने और इसकी सुरक्षा को लेकर भी चिंता व्यक्त की है।

ब्रिटेन में वर्ष 2005 में जब नेशनल डिकमिशनिंग अथॉरिटी (एनडीए) ने परमाणु कचरे के निस्तारण के तौर-तरीकों पर काम करना शुरू किया था तब अनुमान लगाया जा रहा था कि इस काम पर 56 बिलियन पौंड का ख़र्चा आएगा

भोपाल के भूजल में बढ़ता जा रहा है प्रदूषण

Submitted by Hindi on Sat, 12/29/2012 - 13:45
Author
राजु कुमार
union carbide polluted groundwater in bhopal
यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कचरे को डंप करने के लिए बनाए गए सोलर इंपोरेशन तालाब की मिट्टी कितना जहरीला है, यह आज के लोगों को नहीं मालूम। अब तो यहां की मिट्टी को लोग घरों में ले जा रहे हैं एवं दीवारों में लगा रहे हैं। यूनियन कार्बाइड के जहरीले रासायनिक कचरे वाले इस मिट्टी को छुने से भले ही तत्काल असर नहीं पड़े, पर यह धीमे जहर के रूप में शरीर पर असर डालने में सक्षम है। कचरे का जहरीलापन इससे साबित होता है कि आसपास की कॉलोनियों के साथ-साथ यह 5 किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र के भूजल को जहरीला बना चुका है। इलाके के भूजल का इस्तेमाल करने का साफ मतलब है, अपने को बीमारियों के हवाले करना। भोपाल गैस त्रासदी पर काम कर रहे विभिन्न संगठन लगातार यह आवाज़ उठाते रहे हैं कि यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास फैले रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द किया जाए, पर सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण आज भी यूनियन कार्बाइड परिसर के गोदाम में एवं उसके आसपास खुले में कचरा पड़ा हुआ है।

हालत अब यह हो गई है कि पिछले 28 सालों में इस अति हानिकारक रासायनिक कचरे के कारण आसपास का भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है एवं ताज़ा शोध में यह पता चला है कि भूजल एवं मिट्टी के प्रदूषण का दायरा 3 किलोमीटर से बढ़कर 5 किलोमीटर हो गया है एवं पहले जहां 14 बस्तियों के भूजल को प्रदूषित माना जा रहा था, अब 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं रहा गया है। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार के अनुसार संगठनों की आवाज़ को अनसुनी कर सरकार ने कचरे के निष्पादन में लापरवाही बरती है, जिसके कारण आसपास के पर्यावरण एवं भोजन चक्र में यूनियन कार्बाइड कारखाने में उपयोग होने वाले रसायन शामिल हो गए हैं। यह लोगों एवं पर्यावरण की सेहत बिगाड़ने में धीमा जहर का काम कर रहा है एवं यदि जल्द ही इसका समाधान नहीं किया गया, तो यह भोपाल के लिए एक नई त्रासदी का कारण बन सकता है।

हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च, लखनऊ ने यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास के क्षेत्र से भूजल का नमूना लेकर जांच किया था, जिसमें उसने पाया कि परिसर से उत्तर-पूर्व की ओर 5 किलोमीटर तक भूजल प्रदूषित हो गया है एवं भोपाल की 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं है। संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया, तो गैस त्रासदी पर कार्यरत संगठनों की बात पर मुहर लग गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कहा है कि रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द से जल्द होना चाहिए एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण के स्तर पर अब किसी भी तरह का कोई नुकसान भोपाल में नहीं होना चाहिए। पर जो स्थितियाँ दिख रही हैं, उसमें यह नहीं लगता कि न्यायालय की बात को तरजीह देकर सरकार कोई कदम उठा रही है। भोपाल गैस पीड़ित निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष बालकृष्ण नामदेव के अनुसार केंद्र एवं राज्य के मंत्री रसायनिक कचरे को लेकर हास्यास्पद बयान देते हैं। कुछ समय पूर्व तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कचरे को हाथ में उठाकर कहा था कि उन पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह पीड़ितों का अपमान था। बाद में उन्होंने माफी भी मांगी थी। राज्य के पूर्व गैस राहत मंत्री आरिफ अकील ने भी पानी पीकर कहा था कि उन पर कोई असर नहीं हुआ। यही स्थिति वर्तमान गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर का है, जो कहते हैं कि इलाके में पेड़-पौधे हैं, चिड़िया हैं एवं अन्य जीव-जंतु हैं, उन पर कुछ असर नहीं दिखता। पर जब भी बयानों से परे वैज्ञानिक शोध होता है, तो पता चलता है कि कचरे के कारण पहले से बढ़े हुए दायरे में भूजल एवं मिट्टी प्रदूषित हो गया है।

यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। समय बीतने के साथ ही इसका निपटारा कठिन से कठिन होता जा रहा है। 1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रसायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फैक्ट्री के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे की पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। कंपनी डंपिंग साइट एवं इंपोरेशन तालाब में काली पलास्टिक की पन्नी बिछाकर 1969 से 1984 तक कचरा डालती रही थी, जो कि लगभग 18 हजार टन अनुमानित है। समय के साथ पन्नियां फट गई एवं खतरनाक रसायन भूजल में मिलने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ है कि कचरा पानी के साथ दूर तक पहुंच चुका है। यद्यपि अभी भी उन साइट्स पर मिट्टीनुमा कचरे का ढेर है, जिसे उठाकर पैक करने की जरूरत है, पर अब उसे सरकार रासायनिक कचरा मान ही नहीं रही है एवं शेड में पैक कर रखे गए सिर्फ 346 टन रासायनिक कचरे (40 टन कचरा चुपके से पीथमपुर की रामकी एनवायरो में जला दिया गया था, जिसका वहां के पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ा था एवं स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया, जिससे सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया) की ही बात की जा रही है। गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर कहते हैं कि बाहर जो भी कचरा रहा हो, अब नहीं है। वह पानी में बह-बहकर एवं लंबे समय के बाद खत्म हो गया है।

भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की संयोजक साधना कार्णिक के अनुसार परिसर के बाहर खुले में पड़े कचरे को चारदीवारी से घेरना जरूरी है, जिससे कि वहां कोई जा नहीं सके। फिर उसके बाद एक व्यापक शोध की जरूरत है, जिससे पता लगाया जा सके कि कचरे का प्रभाव कहां तक पहुंच गया है एवं उसके बाद समस्या का तत्काल समाधान करने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यह आखिरी में जनता पर ही थोप दिया जाएगा।

यूनियन कार्बाइड कचरे से प्रदूषित होता भूजलयूनियन कार्बाइड कचरे से प्रदूषित होता भूजलअब्दुल जब्बार का कहना है कि सरकार के लिए शेड में पैक कर रखे गए कचरे का निष्पादन करना ही सिरदर्द बना हुआ है, तो वह बाहर फैले कचरे की बात क्यों करना चाहेगी। पर दुखद बात तो यह है कि बाहर पड़े कचरे से जो लोग गैस पीड़ित नहीं हैं, वे भी आगे चलकर उन रसायनों से प्रभावित हो जाएंगे। बाहर के कचरे ने अभी मिट्टी एवं पानी को प्रदूषित किया है, पर अब वह जानवरों एवं पौधों के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करेगा एवं फिर एक बड़ा समुदाय उन घातक रसायनों का शिकार होगा। इसलिए सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था के साथ-साथ बाहर फैले कचरे को अधिक से अधिक मात्रा में पैक करने की जरूरत है एवं जब निष्पादन किया जाए, तो पूरे कचरे का किया जाए।

केंद्र एवं राज्य सरकार सिर्फ पैक्ड कचरे के निष्पादन से ही जूझ रही है। सबसे पहले गुजरात के अंकलेश्वर में कचरे को भस्म करने की बात की गई, फिर मध्य प्रदेश के पीथमपुर में कचरे को भस्म करने की बात की गई और उसके बाद नागपुर के पास स्थित तमोजा में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशाला में जलाने की बात की गई, पर स्थानीय विरोध एवं सरकारों के इनकार के बाद ऐसा संभव नहीं हो पाया। तब जून 2012 में जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन से बात की गई थी। पर उसने भी इनकार की दृष्टि से कड़े शर्त लाद लिए, जिसे नहीं मानने पर उसने कचरे के निष्पादन से इनकार कर दिया। अब एक बार फिर मंत्री समूह की बैठक में यह तय किया गया है कि पहले यह जांचा जाए कि इसमें कौन-कौन से रसायन हैं एवं तब उसे नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाई जाए। आश्चर्यजनक है कि इतने सालों में सरकारी स्तर पर यह भी तय नहीं हो पाया है।

उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र की मिट्टी एवं पानी की जांच 1989 से लेकर अब तक 15 से अधिक बार सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर की जा चुकी है। कुछ साल पूर्व सी.एस.ई. ने कचरे के कारण फैल रहे प्रदूषण को देखकर कहा था कि भोपाल एक बार फिर ज्वालामुखी के मुहाने पर है। राज्य की लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग हो या केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की इकाई हो या फिर अन्य एजेंसियाँ, सभी ने आगाह किया है कि आसपास के क्षेत्र में रासायनिक कचरे के कारण मिट्टी एवं पानी में प्रदूषण फैल रहा है, पर सरकार खुले में पड़े कचरे के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती, जो भोपाल के लिए खतरनाक बनता जा रहा है।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
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Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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