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जनसत्ता (रविवारी), 21 अक्टूबर 2012
तमाम प्रगति और तरक्की के दावों के बावजूद भारत की छवि दुनियाभर में कूड़े-कचरे से घिरे देश की बन रही है। महानगरों और नगरों में पसरी गंदगी तो लाइलाज हो चुकी है। यहां तक कि मनोरम पर्यटन और तीर्थस्थल भी साफ-सुथरे नहीं रह गए। देश में पनप रहे इस नए खतरे का जायजा ले रही हैं कविता वाचक्नवी।
अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है। विदेशों-खासकर, यूरोप, अमेरिका और विकसित देशों में कचरे-कूड़े की व्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से होती है। हर परिवार के पास काउंसिल के बिंस एंड वेस्ट कलेक्शन विभाग की ओर से बड़े आकार के तीन वेस्ट बिंस खासकर मिले हुए होते हैं, जो घर के बाहर, लॉन में एक ओर या गैरेज या मुख्यद्वार के आसपास कहीं रखे रहते हैं। परिवार स्वयं अपने घर के भीतर रखे दूसरे छोटे कूड़ेदानों में अपने कचरे को तीन प्रकार से डालता रहता होता है। इसलिए घर के भीतर भी कम से कम तीन तरह के कूड़ेदान होते हैं। एक ऑर्गेनिक कचरा, दूसरा रिसाइकिल हो सकने वाला और तीसरा जो एकदम नितांत गंदगी है, इन दोनों से अलग। हफ्ते में एक सुनिश्चित दिन, विभाग की तीन तरह की गाड़ियां आती हैं, उससे पहले या (भर जाने पर यथा इच्छा) अपने घर के भीतर के कूड़ेदनों से निकाल कर तीनों प्रकार के बाहर रखे बिंस में स्थानांतरित कर देना होता है, जिसे वे निर्धारित दिन पर आकर एक-एक कर अलग-अलग ले जाती हैं।
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