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तमाम विरोध को दरकिनार कर केंद्र सरकार देवसारी जलविद्युत परयोजना को हरी झंडी देने की तैयारी कर रही है। इसे बनाने वाली कंपनी सतलुज जल विद्युत निगम ने अपनी तैयारियां पूरी कर ली हैं। इसके बाद नंदकेशरी गांव से पैठाणी तक बनने वाली सत्रह किलोमीटर लंबी सुरंग में पिंडर बहने लगेगी। इस सुरंग की वजह से बत्तीस गांव सीधे तौर पर प्रभावित होंगे और अप्रत्यक्ष रूप से कितने गांवों पर इसका असर होगा इसका कोई आकलन ही नहीं है। पहाड़ों की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा राजजात को रास्ता बताती है पिंडर नदी। हर बारह साल में होने वाली दो सौ अस्सी किलोमीटर की इस दुर्गम यात्रा को पर्वतीय महाकुंभ भी कहा जाता है। मान जाता है कि शिव पार्वती को विवाह के बाद पिंडर घाटी के रास्ते ही विदा करा कर ले गए थे। आज भी हिमालय क्षेत्र की बेटियां यह कामना करती हैं कि उनकी विदाई के रास्ते में पिंडर के दर्शन हों। पिंडर घाटी की खूबसूरती यहां के लोकगीतों में बसती है जिनमें पिंडर को दूध का झरना कहा गया है। पिंडर को काफी ऊंचाई से देखने पर भी इसकी तलहटी पर पड़े पत्थर साफ नजर आते हैं। अलकनंदा और पिंडर के संगम कर्णप्रयाग से दस किलोमीटर दूर मौजूद पिंडर घाटी ही राजजात का मुख्य मार्ग है। पिंडर की इन्हीं खूबसूरत वादियों में सुनाउ तल्ला गांव भी है।
अनहद नाद/दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है/एक भूली याद वर्षों बाद ......।
ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष 1989 में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम 5 एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा। इसके बावजूद पिछले 25 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है। लेकिन 17 दिन के जल सत्याग्रह से सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां 10 सितम्बर 2012 को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले 17 दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान लीं तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया। सरकार ने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया। यह एक ऐतिहासिक जीत थी। सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए।Pagination
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विकास की धारा में गुम होती पिंडर नदी
तमाम विरोध को दरकिनार कर केंद्र सरकार देवसारी जलविद्युत परयोजना को हरी झंडी देने की तैयारी कर रही है। इसे बनाने वाली कंपनी सतलुज जल विद्युत निगम ने अपनी तैयारियां पूरी कर ली हैं। इसके बाद नंदकेशरी गांव से पैठाणी तक बनने वाली सत्रह किलोमीटर लंबी सुरंग में पिंडर बहने लगेगी। इस सुरंग की वजह से बत्तीस गांव सीधे तौर पर प्रभावित होंगे और अप्रत्यक्ष रूप से कितने गांवों पर इसका असर होगा इसका कोई आकलन ही नहीं है। पहाड़ों की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा राजजात को रास्ता बताती है पिंडर नदी। हर बारह साल में होने वाली दो सौ अस्सी किलोमीटर की इस दुर्गम यात्रा को पर्वतीय महाकुंभ भी कहा जाता है। मान जाता है कि शिव पार्वती को विवाह के बाद पिंडर घाटी के रास्ते ही विदा करा कर ले गए थे। आज भी हिमालय क्षेत्र की बेटियां यह कामना करती हैं कि उनकी विदाई के रास्ते में पिंडर के दर्शन हों। पिंडर घाटी की खूबसूरती यहां के लोकगीतों में बसती है जिनमें पिंडर को दूध का झरना कहा गया है। पिंडर को काफी ऊंचाई से देखने पर भी इसकी तलहटी पर पड़े पत्थर साफ नजर आते हैं। अलकनंदा और पिंडर के संगम कर्णप्रयाग से दस किलोमीटर दूर मौजूद पिंडर घाटी ही राजजात का मुख्य मार्ग है। पिंडर की इन्हीं खूबसूरत वादियों में सुनाउ तल्ला गांव भी है।
मर्यादा बचाने को घर-घर में हो शौचालय
पानी में गलते विस्थापितों की जीत
अनहद नाद/दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है/एक भूली याद वर्षों बाद ......।
ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष 1989 में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम 5 एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा। इसके बावजूद पिछले 25 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है। लेकिन 17 दिन के जल सत्याग्रह से सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां 10 सितम्बर 2012 को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले 17 दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान लीं तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया। सरकार ने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया। यह एक ऐतिहासिक जीत थी। सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए।Pagination
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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