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एक तरफ कांग्रेस का एक मंत्री धारी देवी को डुबाने वाली परियोजना को चालू करने की मांग करे और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री धारी देवी मंदिर को बचाने का आश्वासन दें, तो इस दोतरफा खेल को आप क्या कहेंगे? शाह से कहो-जागते रहो और चोर से कहो-चोरी करो। गंगा, अब एक कारपोरेट एजेंडा बन चुकी है। गंगाजल का जल और उसकी भूमि अब निवेशकों के एजेंडे में है। किए गये निवेश की अधिक से अधिक कीमत वसूलने के लिए निवेशक कुछ भी करने पर आमादा हैं। अब चूंकि निर्णय राजनेता करते हैं, अतः दिखावटी तौर पर नेता आगे हैं और निवेशक उनके पीछे।
देश की राष्ट्रीय नदी की कम से कम अविरलता तो फिलहाल पूरी तरह एक प्रदेश की स्वार्थपरक व एकपक्षीय राजनीति में फंस चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने इसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादाओं के उल्लंघन से भी कोई परहेज नहीं किया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा को पूरी तरह क्षुद्र राजनीति का अखाड़ा बना डाला है। अभी विधानसभा का सदस्य बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी सुरक्षित करने का काम बाकी है, उससे पहले ही उन्होंने बिजली बांध परियोजनाओं जैसे विवादित मसले को सड़क पर उतरकर निबटने के आक्रामक अंदाज से जो संकेत दिए हैं, वे अच्छे नहीं हैं। गंगा मुक्ति संग्राम समेत गंगा के पक्ष में आंदोलित तमाम समूहों की टक्कर में मुख्यमंत्री ने जैसे बांध बनाओ मुहिम ही छेड़ दी है। इस मामले में वह पूर्ववर्ती सरकार के सहयोगी उत्तराखंड क्रांतिदल ‘उक्रांद’ से आगे निकल गये हैं।जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।
कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।
सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।'हालांकि यमुना की अच्छी किस्मत भी डाक पत्थर तक ही उसका साथ दे पाती है। यहां से आगे ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई उसे जितना हो सके निचोड़ लेना चाहता हो। यमुना के किनारे चलते हुए तहलका ने उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश तक अलग-अलग इलाकों की लगभग 600 किलोमीटर लंबी यात्रा की। हर जगह हमने यही पाया कि यमुना की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।शिवालिक पहाड़ियों में पतली धार वाली घूमती-इतराती यमुना डाक पत्थर में अचानक ही लबालब पानी से भरा विशाल कटोरा बन जाती है। इसकी वजह है टौंस। इसी जगह पर यमुना से दस गुना ज्यादा पानी अपने में समेटे टौंस इससे मिलती है। डाक पत्थर वह जगह है जहां यमुना पर आदमी का पहला बड़ा हस्तक्षेप हुआ है। इस बैराज से एक नहर निकलती है और करीब बीस किलोमीटर आगे जाकर पांवटा साहिब में यमुना की मुख्य धारा में फिर से मिल जाती है। यानी डाक पत्थर से आगे यमुना की मुख्य धारा में एक बूंद भी पानी नहीं जाता। बीस किलोमीटर लंबी यह पट्टी जल विहीन है क्योंकि सारा पानी नहर में छोड़ा जाता है। डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक जाने वाली इस नहर पर बीच में थोड़े-थोड़े अंतराल पर तीन जल विद्युत संयंत्र बने हुए हैं- ढकरानी, धालीपुर और कुल्हाल।
कहते हैं कि एक नेता जी ने कभी किसी बांध का विरोध करते हुए कह दिया था कि 'पानी से बिजली निकाल लेंगे तो पानी में क्या बचेगा।' नेता जी की यह टिप्पणी कई बार नेताओं की अज्ञानता पर व्यंग्य करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। लेकिन अज्ञानता में कही गई उस बात में कुछ सच्चाई भी है। पानी से बिजली बनाने वाली परियोजनाओं की वजह से पानी का सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ खत्म हो जाता है। सर्दियों में पहाड़ की शीतल धाराओं से निकल कर जो मछलियां नीचे मैदानों की तरफ आती थीं वे गर्मियों में प्रजनन के लिए एक बार फिर से धारा की उल्टी दिशा में जाती थीं। कतला, रोहू, ट्राउट जैसी उन मछलियों का क्या हुआ कोई नहीं जानता। बड़ी-बड़ी पीठ वाले वे कछुए जिन्हें पौराणिक कथाओं में यमुना की सवारी माना गया है अब नहीं दिखते क्योंकि बांधों को कूद कर वापस ऊपर की तरफ जाने की कला उन्हें नहीं आती थी, खैर मछलियों और नदियों के आंसू किसने देखे हैं। उन 500 से ज्यादा मछुआरे गांवों के बारे में भी किसी सरकारी दफ्तर में कोई रिकॉर्ड नहीं है जो सत्तर के दशक तक इसी यमुना के पानी पर मछली पालन का काम करते थे। वे जल पक्षी भी अब नहीं दिखते जो पुराने लोगों की स्मृतियों में नदी के मुहानों पर जलीय जीवों का शिकार करते थे। डाक पत्थर से निकलने वाली यमुना नहर में बंशी लगाए बैठे 27 वर्षीय जितेंदर कहते हैं, 'यहां कोई मछली नहीं मिलती। अपने खाने को मिल जाए वही बहुत है।' हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में नहर यमुना की मुख्य धारा में मिलती है और उसे नया जीवन देती है। पांवटा साहिब सिखों का पवित्र धार्मिक स्थल है। कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह यहां कुछ दिन रुके थे। उन्होंने अपने कई हथियार यहीं छोड़ दिए थे जिनके दर्शन के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं। डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक एक तरफ हिमाचल प्रदेश और दूसरी ओर उत्तराखंड है। यमुना दोनों राज्यों की सीमा तय करती चलती है।
यमुना नहर की वजह से डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक नदी की मुख्य धारा सूखी रहती है। इस 20 किमी की दूरी में जो हो रहा है उसे देखकर लगता है कि यमुना की हत्या के बाद उसकी लाश भी बुरी तरह नोची जा रही हो। सुप्रीम कोर्ट ने सालों पहले नदी में किसी भी तरह के खनन पर प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन नदी के बेसिन में खुदाई करते मजदूर और ट्रकों-ट्रैक्टरों का निर्बाध आवागमन देखना यहां कतई मेहनत का काम नहीं है। नदी के पाट में खनन का पारिस्थितिकी पर काफी बुरा असर पड़ता है। नदी की धारा बदल सकती है। मानसून में पानी आने पर तटों के कटाव का खतरा बढ़ जाता है। पांवटा साहिब औद्योगिक नगर भी है। यहां सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया है, टेक्सटाइल्स उद्योग हैं, केमिकल फैक्ट्रियां हैं और दवा के कारखाने भी हैं। इन सबकी थोड़ी-थोड़ी निर्भरता यमुना पर है और सबका थोड़ा-थोड़ा योगदान यमुना के प्रदूषण में है। हालांकि तब भी यह गंदगी उतनी ही है जितनी नदी खुद साफ कर सकती है।
यमुना की सफाई के नाम पर पिछले दो दशक के दौरान यमुना एक्शन प्लान के तहत करीब 1000 करोड़ रु. खर्च हुए। यह अलग बात है कि इसके बावजूद नदी आज भी उतनी ही मैली है जितनी तब थी।
पांवटा साहिब से यमुना आगे बढ़ती है। लगभग 25 किमी आगे कलेसर राष्ट्रीय प्राणी उद्यान के शांत और सुरम्य वातावरण से गुजरते हुए अचानक ही सामने एक विशाल बांध दिखता है। यह ताजेवाला है। यहीं पर हथिनीकुंड बांध बना है। यह यमुना की कब्र है। यहां से आगे एक बूंद पानी यमुना में नहीं जाता सिवाय बरसात के तीन महीनों के, जब नदी की धारा पर कोई बंधन काम नहीं करता। यहां से यमुना का सारा पानी दो बड़ी नहरों में बांट लिया जाता है। पश्चिमी यमुना नहर और पूर्वी यमुना नहर। पश्चिमी यमुना नहर हरियाणा के आधे हिस्से की खेती-बाड़ी और प्यास बुझाने में होम हो जाती है, पूर्वी यमुना नहर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का गला तर करने में खेत रहती है। इस तरह नदी की मुख्य धारा एक बार फिर से सूख जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी डीडी बसु कहते हैं, 'हथिनीकुंड में यमुना की मृत्यु हो जाती है। अगर एक भी फीसदी कुदरती बहाव यमुना में नहीं होगा तो केवल सीवर के पानी के सहारे यमुना जिंदा नहीं रहेगी। आप लाख ट्रीटमेंट प्लांट लगा लें।'
200 सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है।
हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है। यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर। हरियाणा में पड़ने वाला यह शहर हमें चकित करता है। यमुना में ठीक-ठाक पानी मौजूद है। जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे? इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है। दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए हैं। एक बड़ा विचित्र खेल यहां देखने को मिलता है। जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में मिल रहे हैं। यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है। इससे थोड़ा ऊपर की तरफ हिमालय की निचली पहाड़ियों से निकलने वाली एक-दो छोटी धाराएं भी यमुना में मिलती हैं और इसे जीवन देती हैं। नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखते हैं। लेकिन डाक पत्थर के उलट यहां मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है। वे जानते हैं कि ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं। वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं। यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटाया जा सके। यहां से आगे दो और शहर हैं- सोनीपत और पानीपत। हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं हैं। इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है। कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है।करीब 200 किलोमीटर पहाड़ों में और इससे थोड़ा-सा ज्यादा मैदानों में घूमते-घामते यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यह गांव दिल्ली की उत्तरी सीमा पर बसा है और यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला यहां चलता है। पहला काम होता है वजीराबाद संयंत्र के पास बचा हुआ सारा पानी निकालने का। दो करोड़ लोगों के भार से दबे जा रहे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास इसी पानी से बुझाता है। इस पानी को निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह यहीं पर खोल दिया है। अपने आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है। अब यहां से यही कचरा लेकर यमुना आगे बढ़ती है और बीच-बीच में कई दूसरे कचरे अपने भीतर समेटती चलती है। बदरपुर के पास शहर छोड़ने से ठीक पहले एक और बड़ा नाला, जिसे शाहदरा ड्रेन के नाम से जाना जाता है, इसमें आकर मिल जाता है। अपनी गंदगी से मुक्ति पाकर शहर कभी यह सोचने की जहमत ही नहीं करता कि जो कचरा उसने छोड़ा, वह गया कहां और अगर वह फिलहाल चला भी गया तो क्या हमेशा के लिए चला गया?
दिल्ली कितनी गंदगी यमुना में घोलती है, इसका एक अंदाजा यहां यमुना में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया से लगाया जा सकता है। ये बैक्टीरिया पानी में मानव मल के ऊपर ही पोषित होते हैं। कोलीफॉर्म से प्रदूषित पानी हैजा, टायफाइड और किडनी खराबी जैसी बीमारियां फैलाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पल्ला में जहां नदी शहर में प्रवेश करती है वहां कोलीफॉर्म का स्तर सामान्य से 30 से लेकर 1,000 गुना तक ज्यादा है और शहर पार करने के बाद ओखला बांध के पास इसकी मात्रा सामान्य से दस हजार गुना तक ज्यादा पाई गई है। यानी यह पानी छूने लायक भी नहीं।
हालांकि दिल्ली के नालों को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ करने की कई योजनाएं हैं। हम इन्हें यमुना एक्शन प्लान के नाम से जानते हैं। 1993 से हम इसके बारे में सुनते आ रहे हैं और आज भी यह प्लान उतना ही सफल-असफल है जितना दो दशक पहले था। तब भी यमुना मैली थी आज भी मैली है। हां! सफाई के नाम पर इन दो दशकों में 1000 करोड़ रुपये जरूर साफ हो चुके हैं। फिलहाल यमुना एक्शन प्लान का तीसरा चरण शुरू हो चुका है। हर योजना समय पर पूरी होने में असफल रही है। हर योजना के बजट में बाद में दिल खोलकर बढ़ोतरी भी की गई है। लेकिन हासिल के नाम पर कुछ नहीं है। एक जिम्मेदार अधिकारी इस संबंध में पूछने पर पहले तो कुछ बोलने से मना करते हैं। फिर जल्द ही नजदीक खड़े अपने रिटायरमेंट की दुहाई देते हैं और फिर नाम न छापने की शर्त पर ऐसी बात बताते हैं जिससे शायद ही दुनिया को कोई फर्क पड़े। वे कहते हैं, 'देखिए, इस तरह की योजनाओं के पूरा होने का समय और उस पर आने वाली लागत अनुमानित होती है। इनका बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है।'यह कहकर वे चले जाते हैं। सवाल है कि आखिर इस देश में ऐसी भी कोई योजना है जिसने अनुमानित अवधि से पहले अपना काम निपटा दिया हो और आवंटित बजट से कम में काम कर दिखाया हो? हर बार यह अनुमान बढ़ता ही क्यों है?
हाल ही में देश के 71 शहरों द्वारा पैदा किए जा रहे मल-मूत्र पर दिल्ली स्थित चर्चित संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट(सीएसई) की एक रिपोर्ट आई है। इसमें दिल्ली द्वारा पैदा की जा रही गंदगी पर विस्तार से रोशनी डाली गई है। सीएसई के प्रोग्राम डाइरेक्टर फॉर वाटर नित्या जैकब बताते हैं, 'यह शहर हर दिन 445 करोड़ लीटर से भी ज्यादा गंदगी पैदा कर रहा है। इसमें से सिर्फ 147.8 करोड़ लीटर का ट्रीटमेंट हो रहा है। हालांकि एक्शन प्लान वालों का दावा है कि उनके पास 233 करोड़ लीटर सीवेज ट्रीट करने की क्षमता है। 'यहां यमुना के खादर में खेती भी खूब होती है। खीरा, लौकी, ककड़ी, तरबूज, खरबूज, पालक, तोरी, भिंडी, और भी बहुत कुछ। दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की इसी साल आई रिपोर्ट बताती है कि इन सब्जियों में निकिल, लेड, मरकरी और मैंगनीज जैसी भारी धातुएं सुरक्षित सीमा से कई गुना ज्यादा पाई गई हैं। टीईआरआई का शोध उन्हीं सब्जियों पर आधारित है जो किसी न किसी तरह से यमुना पर निर्भर रही हैं।
यमुना नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। यहां आए हुए भक्त कहते हैं 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
इसकी वजह ढूंढ़ने पर पता चलता है कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्टरियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही हैं। इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है। शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों दोपहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम भी यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे-मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं। सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है। ये सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर आए हैं। लेकिन इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा, हमें पता है। जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसे होगी। यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है। इसका ताल्लुक आधुनिक जिंदगी के आराम से जुड़ता है। टेलीविजन, फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों के लिए दिल्ली के बाशिंदों को बिजली चाहिए। थोड़ी-बहुत नहीं। उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है। इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है। राजघाट पावर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पावर स्टेशन और बदरपुर पावर स्टेशन कोयला जलाकर शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं।हालांकि सिर्फ इतने से दिल्ली की प्यास नहीं बुझती। दिल्ली विश्वविद्यालय का एक विभाग है भूगर्भशास्त्र विभाग। इसके अध्यक्ष डॉ. चंद्रा एस दुबे हैं। इन्हीं की निगरानी में विभाग ने महीने भर पहले यमुना में आर्सेनिक प्रदूषण का विस्तृत अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है। यह बताती है कि दिल्ली के तीनों थर्मल पावर प्लांट कोयला जलाने के बाद बची हुई राख का एक बड़ा हिस्सा यमुना में बहा रहे हैं। डॉ. दुबे के मुताबिक राजघाट पावर प्लांट इस राख के जरिए हर साल 5.5 टन आर्सेनिक यमुना के पानी में बहा रहा है। इसी तरह बदरपुर वाले संयत्र का योगदान सालाना लगभग दो टन है। आर्सेनिक अच्छे-भले आदमी की थोड़े ही समय में हृदय रोग और कैंसर से मुलाकात करवा सकता है। दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर और मयूर विहार फेज 1 वाला इलाका ऐसा है जहां यमुना के कछार में मौसमी सब्जियां खूब उगाई जाती हैं। यहां टीम ने आर्सेनिक का स्तर 135 पार्ट पर बिलियन पाया। जबकि न्यूनतम सुरक्षित सीमा है 10 पार्ट पर बिलियन।
इस अध्ययन के संदर्भ में एक और बात समझना जरूरी है। कंक्रीट के इस जंगल में सिर्फ यमुना के डूब में आने वाला इलाका बचा है जो इस शहर के भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने का काम करता है। यहां जो भूगर्भीय जल जांचा गया उसमें आर्सेनिक का स्तर 180 पार्ट पर बिलियन पाया गया है।
यमुना की मौत का एक और साइड इफेक्ट है। सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है। दनकौर के पास गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा और बुलंदशहर का कचरा समेटे हिंडन नदी यमुना की बची-खुची सांस भी छीन लेती है। एक समय में यह नदी यमुना को जीवन देती थी।
यमुना का अगला पड़ाव है भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा। मथुरा से पहले यमुना वृंदावन आती है। यहां चीर घाट पर भक्त ‘नर सेवा नारायण सेवा’ का नारा लगाते हुए मिलते हैं। समय की मांग है ‘नदी सेवा, नारायण सेवा,’ जिसे कोई नहीं सुनना चाहता। कृष्णभक्त रसखान ने कभी लिखा था कि जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन। उनकी कामना थी कि यदि ईश्वर अगले जन्म में उन्हें पक्षी बनाए तो उनका बसेरा कालिंदी यानी यमुना किनारे खड़े कदंब के पेड़ों पर हो। आज की तारीख में रसखान निश्चित पुनर्विचार करते।
वृंदावन में हमारा सामना अव्यवस्थित घाट, काम चलाऊ सुविधाओं और सड़क की जगह तीन किलोमीटर लंबी धूल भरी पगडंडी से होता है। इन सबसे पार पाकर जब हम चीर घाट पहुंचते हैं तो वहां नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। आंध्र प्रदेश के किसी गांव से आए श्रद्धालुओं का पूरा जत्था यहां कर्मकांड में लीन है। एक भक्त से यह पूछने पर कि यहां स्नान-पूजा करने पर आपको दिक्कत नहीं होती है, उनका जवाब धर्म की ध्वजा बुलंद करने वाला होता है। वे कहते हैं, 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यानी चीर घाट पर भी यमुना के चीर हरण की किसी को परवाह नहीं थी। यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
आगे बढ़ते हुए हम मथुरा पहुंचते हैं। यहां हमारा सामना मसानी नाले से होता है। गर्मी के इस मौसम में अनुमान लगाना मुश्किल है कि मसानी नाला बड़ा है या यमुना बड़ी है। श्मशान के किनारे से बहने के कारण शायद इस नाले का नाम मसानी नाला पड़ गया है। पास ही चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम यादव यमुना की दुर्दशा पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, 'यमुना तो सूखती-भीगती रहती है। मसानी बारहमासी है।' मथुरा का नाम भगवान कृष्ण और यमुना के रिश्तों की अनगिनत कथाओं से जुड़ा हुआ है। लेकिन यहां भी हमें यमुना की वही दशा देखने को मिलती है जैसी बाकी जगहों पर है, कहीं कोई अंतर नहीं। भगवान कृष्ण की जन्मस्थली का गर्व रखने वाले मथुरावासियों को विचारने का वक्त नहीं है कि उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही यमुना नाला क्यों बन गई है। कुरेदने पर वे सरकार को कोसते हैं और जब अपनी जिम्मेदारियों को निबाहने की बात छिड़ती है तो टाल-मटोल करने लगते हैं। यमुना की दुर्दशा में मथुरा कुछ योगदान औद्योगिक कचरे से भी देता है। यहां सस्ती साड़ियों की रंगाई का बड़ा कुटीर उद्योग है।
रंगाई-पुताई के बाद सारा रसायन यमुना के हवाले कर दिया जाता है। यह शहर निकिल से बनने वाले नकली आभूषणों का भी बड़ा उत्पादक है। इनके निर्माण से लेकर घिसाई और चमकाई में बहुत सारे रसायनों का इस्तेमाल होता है और ये सब बेचारी यमुना को ही समर्पित किए जाते हैं।
आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है।
आगे महाबन है। कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं यमुना के किनारे बनी है। यहीं गोकुल बैराज भी बना है। यमुना यहां से बढ़ती हुई आगरा पहुंचती है जो इसके तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां भी नदी के साथ बाकी शहरों वाली कहानी दोहराई जाती है। दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिलता है। यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा-सा नाला बिना रोक-टोक के यमुना में मिल रहा है। नदी के उस पार ताजमहल है। ताजमहल के ठीक पीछे महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है। यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए नोच रहे हैं। विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं। ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है। यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए मिलते हैं। हम हैरान हैं। पूछने पर पता चलता है कि वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं। उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आती है। अपने देश, अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरूक और चिंतित सुशांत किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में लिए हुए हैं। वे कहते हैं, 'ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे। हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें। मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं। शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े।'आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है। एक धोबी, जो पहले कैमरा और साथ में पुलिस का एक जवान देखने के बाद भागने लगा था, काफी मान-मनौव्वल के बाद सिर्फ इतना कहता है, 'पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं। दूसरा काम क्या करेंगे। हमें कोई और जगह दिला दीजिए, हम चले जाएंगे।'
इतनी मौतों के बाद यमुना में कुछ बचता नहीं। लेकिन नदी जो सदियों से बहती आई है वह आगे बढ़ती है। आगरा के बाद यमुना उस इलाके में पहुंचती है जहां इंसानी विकास की रोशनी थोड़ी कम पड़ी है। आगरा से लगभग 80 किलोमीटर आगे बटेश्वर है। यह मंदिरों और घंटे-घड़ियालों का नगर है। नदी की बीच धारा में मंदिरों की पंक्ति बिछी हुई है। कहते हैं एक समय में इन मंदिरों की संख्या 101 हुआ करती थी। फिलहाल बीच धारा में 42 मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। यहां घंटे चढ़ाने का रिवाज है। मेला भी लगता है और चंबल के मशहूर डाकुओं में यहां घंटा चढ़ाने की स्पर्धा भी अतीत में खूब होती रही है। हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या दो पर चलते हुए इटावा पहुंचते हैं। शहर से करीब 25 किलोमीटर आगे राष्ट्रीय राजमार्ग से अलग उत्तर दिशा की तरफ एक पतली सड़क भीखेपुर कस्बे तक जाती है। भीखेपुर से लगभग बीस किलोमीटर और आगे बीहड़ में यमुना का चंबल नदी के साथ संगम होता है। यहां दोनों नदियां मिलने के बाद जुहीखा गांव पहुंचती हैं। जुहीखा पहुंच कर रास्ता खत्म हो जाता है। आगे जाने के लिए पीपे का पुल हर साल बनता है जो बरसात में टूट जाता है। पिछले साल की बरसात में कुछ पीपे बह गए थे, इसलिए इस बार पुल नहीं बन पाया है।
इस इलाके को पंचनदा कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि यहां थोड़ी-थोड़ी दूर पर यमुना में चार नदियां मिलती हैं- चंबल, क्वारी, सिंधु और पहुज। इस तरह पांच नदियों के संगम से मिलकर बनता है पंचनदा। लेकिन हम पंचनदा तक नहीं पहुंच सके। जुहीखा में जहां सड़क खत्म होती है वहां से लगभग एक किलोमीटर रेत में आगे बढ़ने पर यमुना की पतली धारा बह रही है। पानी साफ है क्योंकि चारों नदियों ने मिलकर यमुना को नया जीवन दे दिया है। इनमें सबसे बड़ी चंबल है। देश और दुनिया की कुछेक सबसे साफ-सुथरी नदियों में चंबल का नाम शुमार है। जहां चंबल यमुना में मिलती है वहां यमुना और चंबल के पानी का अनुपात एक और दस का है।
विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।
खैर, यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ-सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है। चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है। चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र है भारतीय घड़ियाल। घड़ियाल सिर्फ चंबल में पाए जाते हैं। 2008 में अचानक ही ये घड़ियाल मरने लगे। दो महीने के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई। इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी। रौम कहते हैं, 'शुरुआती सारे सबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना। इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है। बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है। मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता। एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?' घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, 'हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत-से घड़ियालों ने अपने घोंसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे। इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौतें हुई थीं।'घड़ियालों की मौत का दाग अपने सिर पर लेकर यमुना बीहड़ से आगे एक बार फिर खुले मैदानों की ओर बढ़ जाती है। बुंदेलखंड (काल्पी, हमीरपुर) के कुछ इलाकों को छूती हुई यह इलाहाबाद पहुंचती है। हजार मौतें मरने के बाद यह अपना अस्तित्व अपनी सहोदर गंगा में समाहित कर देती है। लोग इसे प्रयाग का विश्वप्रसिद्ध संगम कहते हैं। इतना सब जानने के बाद कोई पूछेगा कि आखिर यमुना की समस्या का उपाय क्या है। हमने यह यात्रा उपाय बताने के लिए नहीं की थी, हमारा मकसद सिर्फ यमुना की दशा खुद जानना और अपनी आंखों देखी लोगों के सामने रखना था। उपाय के सवाल पर जल-थल- मल विषय पर शोध कर रहे वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, 'हम नदी से सारा पानी निकाल लेना चाहते हैं और अपनी गंदगी उसी में बहाना चाहते हैं। आज विकसित उसे माना जाता है जिसके पास नल में पानी हो और बाथरूम में फ्लश। यमुना कभी देवी रही होगी, आज तो बिना पानी के शौचालय जैसी है, जिसमें फ्लश करने के लिए कुछ भी नहीं है।'
तो क्या कोई रास्ता नहीं है? जवाब में अनुपम मिश्र कहते हैं, 'हमारे समाज ने बरसात में गिरने वाले पानी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था, इंजीनियरिंग तय की थी न कि बांधों और दूसरे के हिस्से का पानी छीन लाने की कला के आधार पर।’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।'
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देवभूमि में उड़ी लोकतांत्रिक मर्यादाओं की धज्जियां
एक तरफ कांग्रेस का एक मंत्री धारी देवी को डुबाने वाली परियोजना को चालू करने की मांग करे और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री धारी देवी मंदिर को बचाने का आश्वासन दें, तो इस दोतरफा खेल को आप क्या कहेंगे? शाह से कहो-जागते रहो और चोर से कहो-चोरी करो। गंगा, अब एक कारपोरेट एजेंडा बन चुकी है। गंगाजल का जल और उसकी भूमि अब निवेशकों के एजेंडे में है। किए गये निवेश की अधिक से अधिक कीमत वसूलने के लिए निवेशक कुछ भी करने पर आमादा हैं। अब चूंकि निर्णय राजनेता करते हैं, अतः दिखावटी तौर पर नेता आगे हैं और निवेशक उनके पीछे।
देश की राष्ट्रीय नदी की कम से कम अविरलता तो फिलहाल पूरी तरह एक प्रदेश की स्वार्थपरक व एकपक्षीय राजनीति में फंस चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने इसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादाओं के उल्लंघन से भी कोई परहेज नहीं किया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा को पूरी तरह क्षुद्र राजनीति का अखाड़ा बना डाला है। अभी विधानसभा का सदस्य बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी सुरक्षित करने का काम बाकी है, उससे पहले ही उन्होंने बिजली बांध परियोजनाओं जैसे विवादित मसले को सड़क पर उतरकर निबटने के आक्रामक अंदाज से जो संकेत दिए हैं, वे अच्छे नहीं हैं। गंगा मुक्ति संग्राम समेत गंगा के पक्ष में आंदोलित तमाम समूहों की टक्कर में मुख्यमंत्री ने जैसे बांध बनाओ मुहिम ही छेड़ दी है। इस मामले में वह पूर्ववर्ती सरकार के सहयोगी उत्तराखंड क्रांतिदल ‘उक्रांद’ से आगे निकल गये हैं।कुछ लाख रसोइये चाहिए
जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।
कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।यमुना नदी का मर्सिया
200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।
सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।'हालांकि यमुना की अच्छी किस्मत भी डाक पत्थर तक ही उसका साथ दे पाती है। यहां से आगे ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई उसे जितना हो सके निचोड़ लेना चाहता हो। यमुना के किनारे चलते हुए तहलका ने उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश तक अलग-अलग इलाकों की लगभग 600 किलोमीटर लंबी यात्रा की। हर जगह हमने यही पाया कि यमुना की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।शिवालिक पहाड़ियों में पतली धार वाली घूमती-इतराती यमुना डाक पत्थर में अचानक ही लबालब पानी से भरा विशाल कटोरा बन जाती है। इसकी वजह है टौंस। इसी जगह पर यमुना से दस गुना ज्यादा पानी अपने में समेटे टौंस इससे मिलती है। डाक पत्थर वह जगह है जहां यमुना पर आदमी का पहला बड़ा हस्तक्षेप हुआ है। इस बैराज से एक नहर निकलती है और करीब बीस किलोमीटर आगे जाकर पांवटा साहिब में यमुना की मुख्य धारा में फिर से मिल जाती है। यानी डाक पत्थर से आगे यमुना की मुख्य धारा में एक बूंद भी पानी नहीं जाता। बीस किलोमीटर लंबी यह पट्टी जल विहीन है क्योंकि सारा पानी नहर में छोड़ा जाता है। डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक जाने वाली इस नहर पर बीच में थोड़े-थोड़े अंतराल पर तीन जल विद्युत संयंत्र बने हुए हैं- ढकरानी, धालीपुर और कुल्हाल।
कहते हैं कि एक नेता जी ने कभी किसी बांध का विरोध करते हुए कह दिया था कि 'पानी से बिजली निकाल लेंगे तो पानी में क्या बचेगा।' नेता जी की यह टिप्पणी कई बार नेताओं की अज्ञानता पर व्यंग्य करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। लेकिन अज्ञानता में कही गई उस बात में कुछ सच्चाई भी है। पानी से बिजली बनाने वाली परियोजनाओं की वजह से पानी का सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ खत्म हो जाता है। सर्दियों में पहाड़ की शीतल धाराओं से निकल कर जो मछलियां नीचे मैदानों की तरफ आती थीं वे गर्मियों में प्रजनन के लिए एक बार फिर से धारा की उल्टी दिशा में जाती थीं। कतला, रोहू, ट्राउट जैसी उन मछलियों का क्या हुआ कोई नहीं जानता। बड़ी-बड़ी पीठ वाले वे कछुए जिन्हें पौराणिक कथाओं में यमुना की सवारी माना गया है अब नहीं दिखते क्योंकि बांधों को कूद कर वापस ऊपर की तरफ जाने की कला उन्हें नहीं आती थी, खैर मछलियों और नदियों के आंसू किसने देखे हैं। उन 500 से ज्यादा मछुआरे गांवों के बारे में भी किसी सरकारी दफ्तर में कोई रिकॉर्ड नहीं है जो सत्तर के दशक तक इसी यमुना के पानी पर मछली पालन का काम करते थे। वे जल पक्षी भी अब नहीं दिखते जो पुराने लोगों की स्मृतियों में नदी के मुहानों पर जलीय जीवों का शिकार करते थे। डाक पत्थर से निकलने वाली यमुना नहर में बंशी लगाए बैठे 27 वर्षीय जितेंदर कहते हैं, 'यहां कोई मछली नहीं मिलती। अपने खाने को मिल जाए वही बहुत है।' हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में नहर यमुना की मुख्य धारा में मिलती है और उसे नया जीवन देती है। पांवटा साहिब सिखों का पवित्र धार्मिक स्थल है। कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह यहां कुछ दिन रुके थे। उन्होंने अपने कई हथियार यहीं छोड़ दिए थे जिनके दर्शन के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं। डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक एक तरफ हिमाचल प्रदेश और दूसरी ओर उत्तराखंड है। यमुना दोनों राज्यों की सीमा तय करती चलती है।
यमुना नहर की वजह से डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक नदी की मुख्य धारा सूखी रहती है। इस 20 किमी की दूरी में जो हो रहा है उसे देखकर लगता है कि यमुना की हत्या के बाद उसकी लाश भी बुरी तरह नोची जा रही हो। सुप्रीम कोर्ट ने सालों पहले नदी में किसी भी तरह के खनन पर प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन नदी के बेसिन में खुदाई करते मजदूर और ट्रकों-ट्रैक्टरों का निर्बाध आवागमन देखना यहां कतई मेहनत का काम नहीं है। नदी के पाट में खनन का पारिस्थितिकी पर काफी बुरा असर पड़ता है। नदी की धारा बदल सकती है। मानसून में पानी आने पर तटों के कटाव का खतरा बढ़ जाता है। पांवटा साहिब औद्योगिक नगर भी है। यहां सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया है, टेक्सटाइल्स उद्योग हैं, केमिकल फैक्ट्रियां हैं और दवा के कारखाने भी हैं। इन सबकी थोड़ी-थोड़ी निर्भरता यमुना पर है और सबका थोड़ा-थोड़ा योगदान यमुना के प्रदूषण में है। हालांकि तब भी यह गंदगी उतनी ही है जितनी नदी खुद साफ कर सकती है।
यमुना की सफाई के नाम पर पिछले दो दशक के दौरान यमुना एक्शन प्लान के तहत करीब 1000 करोड़ रु. खर्च हुए। यह अलग बात है कि इसके बावजूद नदी आज भी उतनी ही मैली है जितनी तब थी।
पांवटा साहिब से यमुना आगे बढ़ती है। लगभग 25 किमी आगे कलेसर राष्ट्रीय प्राणी उद्यान के शांत और सुरम्य वातावरण से गुजरते हुए अचानक ही सामने एक विशाल बांध दिखता है। यह ताजेवाला है। यहीं पर हथिनीकुंड बांध बना है। यह यमुना की कब्र है। यहां से आगे एक बूंद पानी यमुना में नहीं जाता सिवाय बरसात के तीन महीनों के, जब नदी की धारा पर कोई बंधन काम नहीं करता। यहां से यमुना का सारा पानी दो बड़ी नहरों में बांट लिया जाता है। पश्चिमी यमुना नहर और पूर्वी यमुना नहर। पश्चिमी यमुना नहर हरियाणा के आधे हिस्से की खेती-बाड़ी और प्यास बुझाने में होम हो जाती है, पूर्वी यमुना नहर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का गला तर करने में खेत रहती है। इस तरह नदी की मुख्य धारा एक बार फिर से सूख जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी डीडी बसु कहते हैं, 'हथिनीकुंड में यमुना की मृत्यु हो जाती है। अगर एक भी फीसदी कुदरती बहाव यमुना में नहीं होगा तो केवल सीवर के पानी के सहारे यमुना जिंदा नहीं रहेगी। आप लाख ट्रीटमेंट प्लांट लगा लें।'
200 सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है।
हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है। यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर। हरियाणा में पड़ने वाला यह शहर हमें चकित करता है। यमुना में ठीक-ठाक पानी मौजूद है। जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे? इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है। दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए हैं। एक बड़ा विचित्र खेल यहां देखने को मिलता है। जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में मिल रहे हैं। यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है। इससे थोड़ा ऊपर की तरफ हिमालय की निचली पहाड़ियों से निकलने वाली एक-दो छोटी धाराएं भी यमुना में मिलती हैं और इसे जीवन देती हैं। नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखते हैं। लेकिन डाक पत्थर के उलट यहां मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है। वे जानते हैं कि ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं। वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं। यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटाया जा सके। यहां से आगे दो और शहर हैं- सोनीपत और पानीपत। हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं हैं। इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है। कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है।करीब 200 किलोमीटर पहाड़ों में और इससे थोड़ा-सा ज्यादा मैदानों में घूमते-घामते यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यह गांव दिल्ली की उत्तरी सीमा पर बसा है और यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला यहां चलता है। पहला काम होता है वजीराबाद संयंत्र के पास बचा हुआ सारा पानी निकालने का। दो करोड़ लोगों के भार से दबे जा रहे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास इसी पानी से बुझाता है। इस पानी को निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह यहीं पर खोल दिया है। अपने आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है। अब यहां से यही कचरा लेकर यमुना आगे बढ़ती है और बीच-बीच में कई दूसरे कचरे अपने भीतर समेटती चलती है। बदरपुर के पास शहर छोड़ने से ठीक पहले एक और बड़ा नाला, जिसे शाहदरा ड्रेन के नाम से जाना जाता है, इसमें आकर मिल जाता है। अपनी गंदगी से मुक्ति पाकर शहर कभी यह सोचने की जहमत ही नहीं करता कि जो कचरा उसने छोड़ा, वह गया कहां और अगर वह फिलहाल चला भी गया तो क्या हमेशा के लिए चला गया?
दिल्ली कितनी गंदगी यमुना में घोलती है, इसका एक अंदाजा यहां यमुना में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया से लगाया जा सकता है। ये बैक्टीरिया पानी में मानव मल के ऊपर ही पोषित होते हैं। कोलीफॉर्म से प्रदूषित पानी हैजा, टायफाइड और किडनी खराबी जैसी बीमारियां फैलाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पल्ला में जहां नदी शहर में प्रवेश करती है वहां कोलीफॉर्म का स्तर सामान्य से 30 से लेकर 1,000 गुना तक ज्यादा है और शहर पार करने के बाद ओखला बांध के पास इसकी मात्रा सामान्य से दस हजार गुना तक ज्यादा पाई गई है। यानी यह पानी छूने लायक भी नहीं।
हालांकि दिल्ली के नालों को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ करने की कई योजनाएं हैं। हम इन्हें यमुना एक्शन प्लान के नाम से जानते हैं। 1993 से हम इसके बारे में सुनते आ रहे हैं और आज भी यह प्लान उतना ही सफल-असफल है जितना दो दशक पहले था। तब भी यमुना मैली थी आज भी मैली है। हां! सफाई के नाम पर इन दो दशकों में 1000 करोड़ रुपये जरूर साफ हो चुके हैं। फिलहाल यमुना एक्शन प्लान का तीसरा चरण शुरू हो चुका है। हर योजना समय पर पूरी होने में असफल रही है। हर योजना के बजट में बाद में दिल खोलकर बढ़ोतरी भी की गई है। लेकिन हासिल के नाम पर कुछ नहीं है। एक जिम्मेदार अधिकारी इस संबंध में पूछने पर पहले तो कुछ बोलने से मना करते हैं। फिर जल्द ही नजदीक खड़े अपने रिटायरमेंट की दुहाई देते हैं और फिर नाम न छापने की शर्त पर ऐसी बात बताते हैं जिससे शायद ही दुनिया को कोई फर्क पड़े। वे कहते हैं, 'देखिए, इस तरह की योजनाओं के पूरा होने का समय और उस पर आने वाली लागत अनुमानित होती है। इनका बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है।'यह कहकर वे चले जाते हैं। सवाल है कि आखिर इस देश में ऐसी भी कोई योजना है जिसने अनुमानित अवधि से पहले अपना काम निपटा दिया हो और आवंटित बजट से कम में काम कर दिखाया हो? हर बार यह अनुमान बढ़ता ही क्यों है?
हाल ही में देश के 71 शहरों द्वारा पैदा किए जा रहे मल-मूत्र पर दिल्ली स्थित चर्चित संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट(सीएसई) की एक रिपोर्ट आई है। इसमें दिल्ली द्वारा पैदा की जा रही गंदगी पर विस्तार से रोशनी डाली गई है। सीएसई के प्रोग्राम डाइरेक्टर फॉर वाटर नित्या जैकब बताते हैं, 'यह शहर हर दिन 445 करोड़ लीटर से भी ज्यादा गंदगी पैदा कर रहा है। इसमें से सिर्फ 147.8 करोड़ लीटर का ट्रीटमेंट हो रहा है। हालांकि एक्शन प्लान वालों का दावा है कि उनके पास 233 करोड़ लीटर सीवेज ट्रीट करने की क्षमता है। 'यहां यमुना के खादर में खेती भी खूब होती है। खीरा, लौकी, ककड़ी, तरबूज, खरबूज, पालक, तोरी, भिंडी, और भी बहुत कुछ। दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की इसी साल आई रिपोर्ट बताती है कि इन सब्जियों में निकिल, लेड, मरकरी और मैंगनीज जैसी भारी धातुएं सुरक्षित सीमा से कई गुना ज्यादा पाई गई हैं। टीईआरआई का शोध उन्हीं सब्जियों पर आधारित है जो किसी न किसी तरह से यमुना पर निर्भर रही हैं।
यमुना नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। यहां आए हुए भक्त कहते हैं 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
इसकी वजह ढूंढ़ने पर पता चलता है कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्टरियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही हैं। इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है। शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों दोपहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम भी यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे-मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं। सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है। ये सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर आए हैं। लेकिन इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा, हमें पता है। जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसे होगी। यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है। इसका ताल्लुक आधुनिक जिंदगी के आराम से जुड़ता है। टेलीविजन, फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों के लिए दिल्ली के बाशिंदों को बिजली चाहिए। थोड़ी-बहुत नहीं। उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है। इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है। राजघाट पावर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पावर स्टेशन और बदरपुर पावर स्टेशन कोयला जलाकर शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं।हालांकि सिर्फ इतने से दिल्ली की प्यास नहीं बुझती। दिल्ली विश्वविद्यालय का एक विभाग है भूगर्भशास्त्र विभाग। इसके अध्यक्ष डॉ. चंद्रा एस दुबे हैं। इन्हीं की निगरानी में विभाग ने महीने भर पहले यमुना में आर्सेनिक प्रदूषण का विस्तृत अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है। यह बताती है कि दिल्ली के तीनों थर्मल पावर प्लांट कोयला जलाने के बाद बची हुई राख का एक बड़ा हिस्सा यमुना में बहा रहे हैं। डॉ. दुबे के मुताबिक राजघाट पावर प्लांट इस राख के जरिए हर साल 5.5 टन आर्सेनिक यमुना के पानी में बहा रहा है। इसी तरह बदरपुर वाले संयत्र का योगदान सालाना लगभग दो टन है। आर्सेनिक अच्छे-भले आदमी की थोड़े ही समय में हृदय रोग और कैंसर से मुलाकात करवा सकता है। दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर और मयूर विहार फेज 1 वाला इलाका ऐसा है जहां यमुना के कछार में मौसमी सब्जियां खूब उगाई जाती हैं। यहां टीम ने आर्सेनिक का स्तर 135 पार्ट पर बिलियन पाया। जबकि न्यूनतम सुरक्षित सीमा है 10 पार्ट पर बिलियन।
इस अध्ययन के संदर्भ में एक और बात समझना जरूरी है। कंक्रीट के इस जंगल में सिर्फ यमुना के डूब में आने वाला इलाका बचा है जो इस शहर के भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने का काम करता है। यहां जो भूगर्भीय जल जांचा गया उसमें आर्सेनिक का स्तर 180 पार्ट पर बिलियन पाया गया है।
यमुना की मौत का एक और साइड इफेक्ट है। सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है। दनकौर के पास गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा और बुलंदशहर का कचरा समेटे हिंडन नदी यमुना की बची-खुची सांस भी छीन लेती है। एक समय में यह नदी यमुना को जीवन देती थी।
यमुना का अगला पड़ाव है भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा। मथुरा से पहले यमुना वृंदावन आती है। यहां चीर घाट पर भक्त ‘नर सेवा नारायण सेवा’ का नारा लगाते हुए मिलते हैं। समय की मांग है ‘नदी सेवा, नारायण सेवा,’ जिसे कोई नहीं सुनना चाहता। कृष्णभक्त रसखान ने कभी लिखा था कि जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन। उनकी कामना थी कि यदि ईश्वर अगले जन्म में उन्हें पक्षी बनाए तो उनका बसेरा कालिंदी यानी यमुना किनारे खड़े कदंब के पेड़ों पर हो। आज की तारीख में रसखान निश्चित पुनर्विचार करते।
वृंदावन में हमारा सामना अव्यवस्थित घाट, काम चलाऊ सुविधाओं और सड़क की जगह तीन किलोमीटर लंबी धूल भरी पगडंडी से होता है। इन सबसे पार पाकर जब हम चीर घाट पहुंचते हैं तो वहां नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। आंध्र प्रदेश के किसी गांव से आए श्रद्धालुओं का पूरा जत्था यहां कर्मकांड में लीन है। एक भक्त से यह पूछने पर कि यहां स्नान-पूजा करने पर आपको दिक्कत नहीं होती है, उनका जवाब धर्म की ध्वजा बुलंद करने वाला होता है। वे कहते हैं, 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यानी चीर घाट पर भी यमुना के चीर हरण की किसी को परवाह नहीं थी। यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
आगे बढ़ते हुए हम मथुरा पहुंचते हैं। यहां हमारा सामना मसानी नाले से होता है। गर्मी के इस मौसम में अनुमान लगाना मुश्किल है कि मसानी नाला बड़ा है या यमुना बड़ी है। श्मशान के किनारे से बहने के कारण शायद इस नाले का नाम मसानी नाला पड़ गया है। पास ही चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम यादव यमुना की दुर्दशा पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, 'यमुना तो सूखती-भीगती रहती है। मसानी बारहमासी है।' मथुरा का नाम भगवान कृष्ण और यमुना के रिश्तों की अनगिनत कथाओं से जुड़ा हुआ है। लेकिन यहां भी हमें यमुना की वही दशा देखने को मिलती है जैसी बाकी जगहों पर है, कहीं कोई अंतर नहीं। भगवान कृष्ण की जन्मस्थली का गर्व रखने वाले मथुरावासियों को विचारने का वक्त नहीं है कि उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही यमुना नाला क्यों बन गई है। कुरेदने पर वे सरकार को कोसते हैं और जब अपनी जिम्मेदारियों को निबाहने की बात छिड़ती है तो टाल-मटोल करने लगते हैं। यमुना की दुर्दशा में मथुरा कुछ योगदान औद्योगिक कचरे से भी देता है। यहां सस्ती साड़ियों की रंगाई का बड़ा कुटीर उद्योग है।
रंगाई-पुताई के बाद सारा रसायन यमुना के हवाले कर दिया जाता है। यह शहर निकिल से बनने वाले नकली आभूषणों का भी बड़ा उत्पादक है। इनके निर्माण से लेकर घिसाई और चमकाई में बहुत सारे रसायनों का इस्तेमाल होता है और ये सब बेचारी यमुना को ही समर्पित किए जाते हैं।
आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है।
आगे महाबन है। कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं यमुना के किनारे बनी है। यहीं गोकुल बैराज भी बना है। यमुना यहां से बढ़ती हुई आगरा पहुंचती है जो इसके तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां भी नदी के साथ बाकी शहरों वाली कहानी दोहराई जाती है। दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिलता है। यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा-सा नाला बिना रोक-टोक के यमुना में मिल रहा है। नदी के उस पार ताजमहल है। ताजमहल के ठीक पीछे महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है। यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए नोच रहे हैं। विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं। ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है। यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए मिलते हैं। हम हैरान हैं। पूछने पर पता चलता है कि वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं। उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आती है। अपने देश, अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरूक और चिंतित सुशांत किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में लिए हुए हैं। वे कहते हैं, 'ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे। हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें। मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं। शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े।'आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है। एक धोबी, जो पहले कैमरा और साथ में पुलिस का एक जवान देखने के बाद भागने लगा था, काफी मान-मनौव्वल के बाद सिर्फ इतना कहता है, 'पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं। दूसरा काम क्या करेंगे। हमें कोई और जगह दिला दीजिए, हम चले जाएंगे।'
इतनी मौतों के बाद यमुना में कुछ बचता नहीं। लेकिन नदी जो सदियों से बहती आई है वह आगे बढ़ती है। आगरा के बाद यमुना उस इलाके में पहुंचती है जहां इंसानी विकास की रोशनी थोड़ी कम पड़ी है। आगरा से लगभग 80 किलोमीटर आगे बटेश्वर है। यह मंदिरों और घंटे-घड़ियालों का नगर है। नदी की बीच धारा में मंदिरों की पंक्ति बिछी हुई है। कहते हैं एक समय में इन मंदिरों की संख्या 101 हुआ करती थी। फिलहाल बीच धारा में 42 मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। यहां घंटे चढ़ाने का रिवाज है। मेला भी लगता है और चंबल के मशहूर डाकुओं में यहां घंटा चढ़ाने की स्पर्धा भी अतीत में खूब होती रही है। हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या दो पर चलते हुए इटावा पहुंचते हैं। शहर से करीब 25 किलोमीटर आगे राष्ट्रीय राजमार्ग से अलग उत्तर दिशा की तरफ एक पतली सड़क भीखेपुर कस्बे तक जाती है। भीखेपुर से लगभग बीस किलोमीटर और आगे बीहड़ में यमुना का चंबल नदी के साथ संगम होता है। यहां दोनों नदियां मिलने के बाद जुहीखा गांव पहुंचती हैं। जुहीखा पहुंच कर रास्ता खत्म हो जाता है। आगे जाने के लिए पीपे का पुल हर साल बनता है जो बरसात में टूट जाता है। पिछले साल की बरसात में कुछ पीपे बह गए थे, इसलिए इस बार पुल नहीं बन पाया है।
इस इलाके को पंचनदा कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि यहां थोड़ी-थोड़ी दूर पर यमुना में चार नदियां मिलती हैं- चंबल, क्वारी, सिंधु और पहुज। इस तरह पांच नदियों के संगम से मिलकर बनता है पंचनदा। लेकिन हम पंचनदा तक नहीं पहुंच सके। जुहीखा में जहां सड़क खत्म होती है वहां से लगभग एक किलोमीटर रेत में आगे बढ़ने पर यमुना की पतली धारा बह रही है। पानी साफ है क्योंकि चारों नदियों ने मिलकर यमुना को नया जीवन दे दिया है। इनमें सबसे बड़ी चंबल है। देश और दुनिया की कुछेक सबसे साफ-सुथरी नदियों में चंबल का नाम शुमार है। जहां चंबल यमुना में मिलती है वहां यमुना और चंबल के पानी का अनुपात एक और दस का है।
विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।
खैर, यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ-सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है। चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है। चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र है भारतीय घड़ियाल। घड़ियाल सिर्फ चंबल में पाए जाते हैं। 2008 में अचानक ही ये घड़ियाल मरने लगे। दो महीने के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई। इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी। रौम कहते हैं, 'शुरुआती सारे सबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना। इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है। बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है। मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता। एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?' घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, 'हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत-से घड़ियालों ने अपने घोंसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे। इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौतें हुई थीं।'घड़ियालों की मौत का दाग अपने सिर पर लेकर यमुना बीहड़ से आगे एक बार फिर खुले मैदानों की ओर बढ़ जाती है। बुंदेलखंड (काल्पी, हमीरपुर) के कुछ इलाकों को छूती हुई यह इलाहाबाद पहुंचती है। हजार मौतें मरने के बाद यह अपना अस्तित्व अपनी सहोदर गंगा में समाहित कर देती है। लोग इसे प्रयाग का विश्वप्रसिद्ध संगम कहते हैं। इतना सब जानने के बाद कोई पूछेगा कि आखिर यमुना की समस्या का उपाय क्या है। हमने यह यात्रा उपाय बताने के लिए नहीं की थी, हमारा मकसद सिर्फ यमुना की दशा खुद जानना और अपनी आंखों देखी लोगों के सामने रखना था। उपाय के सवाल पर जल-थल- मल विषय पर शोध कर रहे वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, 'हम नदी से सारा पानी निकाल लेना चाहते हैं और अपनी गंदगी उसी में बहाना चाहते हैं। आज विकसित उसे माना जाता है जिसके पास नल में पानी हो और बाथरूम में फ्लश। यमुना कभी देवी रही होगी, आज तो बिना पानी के शौचालय जैसी है, जिसमें फ्लश करने के लिए कुछ भी नहीं है।'
तो क्या कोई रास्ता नहीं है? जवाब में अनुपम मिश्र कहते हैं, 'हमारे समाज ने बरसात में गिरने वाले पानी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था, इंजीनियरिंग तय की थी न कि बांधों और दूसरे के हिस्से का पानी छीन लाने की कला के आधार पर।’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।'
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