तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

एक तरफ कांग्रेस का एक मंत्री धारी देवी को डुबाने वाली परियोजना को चालू करने की मांग करे और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री धारी देवी मंदिर को बचाने का आश्वासन दें, तो इस दोतरफा खेल को आप क्या कहेंगे? शाह से कहो-जागते रहो और चोर से कहो-चोरी करो। गंगा, अब एक कारपोरेट एजेंडा बन चुकी है। गंगाजल का जल और उसकी भूमि अब निवेशकों के एजेंडे में है। किए गये निवेश की अधिक से अधिक कीमत वसूलने के लिए निवेशक कुछ भी करने पर आमादा हैं। अब चूंकि निर्णय राजनेता करते हैं, अतः दिखावटी तौर पर नेता आगे हैं और निवेशक उनके पीछे।
देश की राष्ट्रीय नदी की कम से कम अविरलता तो फिलहाल पूरी तरह एक प्रदेश की स्वार्थपरक व एकपक्षीय राजनीति में फंस चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने इसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादाओं के उल्लंघन से भी कोई परहेज नहीं किया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा को पूरी तरह क्षुद्र राजनीति का अखाड़ा बना डाला है। अभी विधानसभा का सदस्य बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी सुरक्षित करने का काम बाकी है, उससे पहले ही उन्होंने बिजली बांध परियोजनाओं जैसे विवादित मसले को सड़क पर उतरकर निबटने के आक्रामक अंदाज से जो संकेत दिए हैं, वे अच्छे नहीं हैं। गंगा मुक्ति संग्राम समेत गंगा के पक्ष में आंदोलित तमाम समूहों की टक्कर में मुख्यमंत्री ने जैसे बांध बनाओ मुहिम ही छेड़ दी है। इस मामले में वह पूर्ववर्ती सरकार के सहयोगी उत्तराखंड क्रांतिदल ‘उक्रांद’ से आगे निकल गये हैं।जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।
कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।
सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।'हालांकि यमुना की अच्छी किस्मत भी डाक पत्थर तक ही उसका साथ दे पाती है। यहां से आगे ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई उसे जितना हो सके निचोड़ लेना चाहता हो। यमुना के किनारे चलते हुए तहलका ने उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश तक अलग-अलग इलाकों की लगभग 600 किलोमीटर लंबी यात्रा की। हर जगह हमने यही पाया कि यमुना की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।200 सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है।
हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है। यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर। हरियाणा में पड़ने वाला यह शहर हमें चकित करता है। यमुना में ठीक-ठाक पानी मौजूद है। जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे? इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है। दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए हैं। एक बड़ा विचित्र खेल यहां देखने को मिलता है। जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में मिल रहे हैं। यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है। इससे थोड़ा ऊपर की तरफ हिमालय की निचली पहाड़ियों से निकलने वाली एक-दो छोटी धाराएं भी यमुना में मिलती हैं और इसे जीवन देती हैं। नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखते हैं। लेकिन डाक पत्थर के उलट यहां मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है। वे जानते हैं कि ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं। वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं। यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटाया जा सके। यहां से आगे दो और शहर हैं- सोनीपत और पानीपत। हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं हैं। इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है। कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है।यमुना नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। यहां आए हुए भक्त कहते हैं 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
इसकी वजह ढूंढ़ने पर पता चलता है कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्टरियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही हैं। इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है। शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों दोपहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम भी यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे-मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं। सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है। ये सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर आए हैं। लेकिन इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा, हमें पता है। जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसे होगी। यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है। इसका ताल्लुक आधुनिक जिंदगी के आराम से जुड़ता है। टेलीविजन, फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों के लिए दिल्ली के बाशिंदों को बिजली चाहिए। थोड़ी-बहुत नहीं। उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है। इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है। राजघाट पावर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पावर स्टेशन और बदरपुर पावर स्टेशन कोयला जलाकर शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं।आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है।
आगे महाबन है। कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं यमुना के किनारे बनी है। यहीं गोकुल बैराज भी बना है। यमुना यहां से बढ़ती हुई आगरा पहुंचती है जो इसके तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां भी नदी के साथ बाकी शहरों वाली कहानी दोहराई जाती है। दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिलता है। यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा-सा नाला बिना रोक-टोक के यमुना में मिल रहा है। नदी के उस पार ताजमहल है। ताजमहल के ठीक पीछे महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है। यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए नोच रहे हैं। विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं। ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है। यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए मिलते हैं। हम हैरान हैं। पूछने पर पता चलता है कि वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं। उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आती है। अपने देश, अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरूक और चिंतित सुशांत किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में लिए हुए हैं। वे कहते हैं, 'ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे। हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें। मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं। शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े।'विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।
खैर, यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ-सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है। चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है। चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र है भारतीय घड़ियाल। घड़ियाल सिर्फ चंबल में पाए जाते हैं। 2008 में अचानक ही ये घड़ियाल मरने लगे। दो महीने के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई। इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी। रौम कहते हैं, 'शुरुआती सारे सबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना। इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है। बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है। मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता। एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?' घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, 'हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत-से घड़ियालों ने अपने घोंसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे। इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौतें हुई थीं।'एक तरफ कांग्रेस का एक मंत्री धारी देवी को डुबाने वाली परियोजना को चालू करने की मांग करे और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री धारी देवी मंदिर को बचाने का आश्वासन दें, तो इस दोतरफा खेल को आप क्या कहेंगे? शाह से कहो-जागते रहो और चोर से कहो-चोरी करो। गंगा, अब एक कारपोरेट एजेंडा बन चुकी है। गंगाजल का जल और उसकी भूमि अब निवेशकों के एजेंडे में है। किए गये निवेश की अधिक से अधिक कीमत वसूलने के लिए निवेशक कुछ भी करने पर आमादा हैं। अब चूंकि निर्णय राजनेता करते हैं, अतः दिखावटी तौर पर नेता आगे हैं और निवेशक उनके पीछे।
देश की राष्ट्रीय नदी की कम से कम अविरलता तो फिलहाल पूरी तरह एक प्रदेश की स्वार्थपरक व एकपक्षीय राजनीति में फंस चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने इसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादाओं के उल्लंघन से भी कोई परहेज नहीं किया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा को पूरी तरह क्षुद्र राजनीति का अखाड़ा बना डाला है। अभी विधानसभा का सदस्य बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी सुरक्षित करने का काम बाकी है, उससे पहले ही उन्होंने बिजली बांध परियोजनाओं जैसे विवादित मसले को सड़क पर उतरकर निबटने के आक्रामक अंदाज से जो संकेत दिए हैं, वे अच्छे नहीं हैं। गंगा मुक्ति संग्राम समेत गंगा के पक्ष में आंदोलित तमाम समूहों की टक्कर में मुख्यमंत्री ने जैसे बांध बनाओ मुहिम ही छेड़ दी है। इस मामले में वह पूर्ववर्ती सरकार के सहयोगी उत्तराखंड क्रांतिदल ‘उक्रांद’ से आगे निकल गये हैं।जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।
कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।
सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।'हालांकि यमुना की अच्छी किस्मत भी डाक पत्थर तक ही उसका साथ दे पाती है। यहां से आगे ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई उसे जितना हो सके निचोड़ लेना चाहता हो। यमुना के किनारे चलते हुए तहलका ने उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश तक अलग-अलग इलाकों की लगभग 600 किलोमीटर लंबी यात्रा की। हर जगह हमने यही पाया कि यमुना की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।200 सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती। नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है। मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है। जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी। खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है।
हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है। यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर। हरियाणा में पड़ने वाला यह शहर हमें चकित करता है। यमुना में ठीक-ठाक पानी मौजूद है। जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे? इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है। दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए हैं। एक बड़ा विचित्र खेल यहां देखने को मिलता है। जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में मिल रहे हैं। यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है। इससे थोड़ा ऊपर की तरफ हिमालय की निचली पहाड़ियों से निकलने वाली एक-दो छोटी धाराएं भी यमुना में मिलती हैं और इसे जीवन देती हैं। नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखते हैं। लेकिन डाक पत्थर के उलट यहां मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है। वे जानते हैं कि ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं। वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं। यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटाया जा सके। यहां से आगे दो और शहर हैं- सोनीपत और पानीपत। हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं हैं। इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है। कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है।यमुना नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है। ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है। यहां आए हुए भक्त कहते हैं 'यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा। ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं।' यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा।
इसकी वजह ढूंढ़ने पर पता चलता है कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्टरियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही हैं। इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है। शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों दोपहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम भी यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे-मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं। सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है। ये सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर आए हैं। लेकिन इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा, हमें पता है। जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसे होगी। यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है। इसका ताल्लुक आधुनिक जिंदगी के आराम से जुड़ता है। टेलीविजन, फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों के लिए दिल्ली के बाशिंदों को बिजली चाहिए। थोड़ी-बहुत नहीं। उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है। इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है। राजघाट पावर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पावर स्टेशन और बदरपुर पावर स्टेशन कोयला जलाकर शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं।आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं। हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है। यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है। इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है। गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है।
आगे महाबन है। कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं यमुना के किनारे बनी है। यहीं गोकुल बैराज भी बना है। यमुना यहां से बढ़ती हुई आगरा पहुंचती है जो इसके तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां भी नदी के साथ बाकी शहरों वाली कहानी दोहराई जाती है। दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिलता है। यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा-सा नाला बिना रोक-टोक के यमुना में मिल रहा है। नदी के उस पार ताजमहल है। ताजमहल के ठीक पीछे महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है। यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए नोच रहे हैं। विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं। ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है। यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए मिलते हैं। हम हैरान हैं। पूछने पर पता चलता है कि वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं। उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आती है। अपने देश, अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरूक और चिंतित सुशांत किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में लिए हुए हैं। वे कहते हैं, 'ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे। हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें। मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं। शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े।'विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है। हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं। दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं। इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं।
खैर, यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ-सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है। चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है। चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र है भारतीय घड़ियाल। घड़ियाल सिर्फ चंबल में पाए जाते हैं। 2008 में अचानक ही ये घड़ियाल मरने लगे। दो महीने के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई। इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी। रौम कहते हैं, 'शुरुआती सारे सबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना। इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है। बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है। मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता। एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?' घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, 'हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत-से घड़ियालों ने अपने घोंसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे। इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौतें हुई थीं।'
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