तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

अगर स्वयं मानवीय प्रयास न हों तो झीलों की मृत्यु यानी लुप्त होना तय हो जाता है। इस दिशा में वर्ष 2004 में अहमदाबाद की कांकरिया झील में हुआ हादसा उल्लेखनीय है जहां बड़ी संख्या में मछलियां और अन्य जीव मौत की गोद में जा समाए थे। कांकरिया झील में डूबती मत्स्य विविधता ने भारत के मत्स्य विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और सरकार तक को झकझोर दिया था। दुनिया भर का पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है।
नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्रोत गर्माने लगेंगे, वहीं लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। पर्यावरण में आ रहे बदलावों से जूझने के लिए हर तरफ प्रयास हो रहे हैं। पिछले दिनों अमरीकी वैज्ञानिकों द्वारा पहली बार चौंकाती रिपोर्ट प्रस्तुत की है कि लगातार बढ़ता ताप धरती की अपेक्षा उसके जल स्रोतों को तेजी से गर्म कर रहा है, जो धरती के ताप में बढ़ोतरी का प्रमुख कारण है। इस दिशा में नासा के वैज्ञानिकों ने विश्व स्तर पर विभिन्न देशों की 104 विशाल झीलों तथा अन्य जल स्रोतों का उपग्रहीय अध्ययन किया है। रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरणीय असंतुलन और बढ़ती सौर ऊर्जा के कारण इन जल स्रोतों का ताप धरातल से गर्माहट संजोकर समूचे स्रोत को उबाल रहा है। इसका प्रभाव आसपास के तापमान पर भी पड़ा है। प्रभाव मैदानी क्षेत्र के वातावरण पर भी है जो ताप में घट बढ़ कर मौसम में उलटफेर कर रहा है। भारत के जल स्रोत भी इसकी चपेट में हैं। रिपोर्ट चौंकाते तथ्य प्रस्तुत करती है कि 1985 से यह असर दिख रहा है। तब यह ताप बढ़ोतरी 1.1 डिग्री सेल्सियस आंकी गई थी जो अब ढाई गुना बढ़ गई है।
धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। अगर इस तरफ ध्यान दिया जाए तो कुछ समस्याएं हल हो सकती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे को रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की गई तो आने वाले समय में अनाज का संकट खड़ा हो जाएगा। आज उपजाऊ भूमि के बंजर में तब्दील होने के खतरे बढ़ रहे हैं। हर साल खाद्यान्न उत्पादन में काफी कमी आ रही है। इसके लिए वन विनाश, खनन नीतियां, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, नकदी खेती आदि जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीवन का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया।अगर स्वयं मानवीय प्रयास न हों तो झीलों की मृत्यु यानी लुप्त होना तय हो जाता है। इस दिशा में वर्ष 2004 में अहमदाबाद की कांकरिया झील में हुआ हादसा उल्लेखनीय है जहां बड़ी संख्या में मछलियां और अन्य जीव मौत की गोद में जा समाए थे। कांकरिया झील में डूबती मत्स्य विविधता ने भारत के मत्स्य विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और सरकार तक को झकझोर दिया था। दुनिया भर का पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है।
नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्रोत गर्माने लगेंगे, वहीं लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। पर्यावरण में आ रहे बदलावों से जूझने के लिए हर तरफ प्रयास हो रहे हैं। पिछले दिनों अमरीकी वैज्ञानिकों द्वारा पहली बार चौंकाती रिपोर्ट प्रस्तुत की है कि लगातार बढ़ता ताप धरती की अपेक्षा उसके जल स्रोतों को तेजी से गर्म कर रहा है, जो धरती के ताप में बढ़ोतरी का प्रमुख कारण है। इस दिशा में नासा के वैज्ञानिकों ने विश्व स्तर पर विभिन्न देशों की 104 विशाल झीलों तथा अन्य जल स्रोतों का उपग्रहीय अध्ययन किया है। रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरणीय असंतुलन और बढ़ती सौर ऊर्जा के कारण इन जल स्रोतों का ताप धरातल से गर्माहट संजोकर समूचे स्रोत को उबाल रहा है। इसका प्रभाव आसपास के तापमान पर भी पड़ा है। प्रभाव मैदानी क्षेत्र के वातावरण पर भी है जो ताप में घट बढ़ कर मौसम में उलटफेर कर रहा है। भारत के जल स्रोत भी इसकी चपेट में हैं। रिपोर्ट चौंकाते तथ्य प्रस्तुत करती है कि 1985 से यह असर दिख रहा है। तब यह ताप बढ़ोतरी 1.1 डिग्री सेल्सियस आंकी गई थी जो अब ढाई गुना बढ़ गई है।
धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। अगर इस तरफ ध्यान दिया जाए तो कुछ समस्याएं हल हो सकती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे को रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की गई तो आने वाले समय में अनाज का संकट खड़ा हो जाएगा। आज उपजाऊ भूमि के बंजर में तब्दील होने के खतरे बढ़ रहे हैं। हर साल खाद्यान्न उत्पादन में काफी कमी आ रही है। इसके लिए वन विनाश, खनन नीतियां, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, नकदी खेती आदि जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीवन का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया।
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