तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

तमिलनाडु के कुडनकुलम में रूस के सहयोग से बने परमाणु बिजली घर के खिलाफ जिस तरह का जनसैलाब उमड़ा और सैकड़ों लोग अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे, उससे यह साफ जाहिर होता है कि परमाणु बिजली घर से जुड़ी भीषण दुर्घटना की आशंकाओं ने स्थानीय निवासियों की चेतना को झकझोर दिया है।
जापान के फुकुशिमा में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद दुनिया भर में जो परमाणु बिजली घरों के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ था, वह अब जबर्दस्त ढंग से जोर पकड़ रहा है। तमिलनाडु के कुडनकुलम में रूस के सहयोग से जल्द चालू होने वाले परमाणु बिजली घर के खिलाफ लोगों ने अपने संगठित विरोध से राज्य सरकार को झुकाया, जो एक बड़ी नजीर है। परमाणु ऊर्जा के पक्ष-विपक्ष में बंटे लोगों के बीच इस बात पर सहमति बनती नजर आ रही है कि लोगों की आशंकाओं को दूर किए बिना परमाणु बिजली घर नहीं बनने चाहिए। लिहाजा कुडनकुलन की थाप बहुत दूर तक और देर तक सुनाई देगी। वैसे भी इस समय देश भर में जहां भी नए परमाणु बिजली घर प्रस्तावित हैं, वहां उनका कड़ा विरोध चल रहा है।शहरीकरण का मतलब ही हो गया है रफ्तार। रफ्तार का मतलब है वाहन। और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित हवा। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए। यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहर का मतलब है उद्योगीकरण और अनियोजित कारखानों की भरमार। नतीजा यह हुआ है कि देश की सभी नदियां जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यों के लिए, न कि गंदगी सोखने के लिए।
साल दर साल बढ़ती गर्मी, फैलता जलसंकट और मरीजों से पटते अस्पताल। इसी तरह की तमाम और समस्याएं हैं जो दिनोंदिन चिंता का विषय बनती जा रही हैं। माना जा रहा है कि इन मुश्किलों की एक बड़ी वजह पर्यावरण का विनाश है। पर्यावरण को नष्ट करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा हाथ है। असल में देखें, तो संकट घटते जंगलों का हो या फिर साफ हवा या साफ पानी का। सभी के जड़ में विकास की वह अवधारणा है जिसमें शहररूपी सुरसा का मुंह फैलता ही जा रहा है। इसके निशाने पर है कुदरत और इंसान। शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर, महानगर। देश की बहुसंख्यक आबादी नगरों की तरफ भाग रही है। यह पलायन काफी कुछ रोजी-रोटी से भी जुड़ा है। रोजगार, आधुनिक सुविधाएं और भविष्य की लालसा में लोगबाग अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन कर रहे हैं।जल-दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।
क्या धरती पर पानी के बिना जिंदगानी संभव है? अगर नहीं, तो पानी की इतनी बड़ी बर्बादी क्यों हो रही है। भारत में जलसंकट लगातार दस्तक दे रहा है और सरकार की तंद्रा टूट नहीं रही है। भारत में बारिश का अस्सी फीसद पानी बर्बाद हो जाता है। आलम यह है कि कुछ इलाके तो सैलाब से घिरे रहते हैं और कुछ सूखे से। जनजीवन की हानि दोनों ही स्थितियों में होती है। ऐसे में यह सवाल लगातार उठ रहा है कि देश के जल प्रबंधन को लेकर क्या और कैसे किया जाए। फिर देश के कई हिस्सों में सूखे ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। और कई इलाके बाढ़ से तबाह हैं। कई इलाके ऐसे हैं जहां कम बारिश हुई है। इस वजह से वहां खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद भी कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए काफी अहम है।तमिलनाडु के कुडनकुलम में रूस के सहयोग से बने परमाणु बिजली घर के खिलाफ जिस तरह का जनसैलाब उमड़ा और सैकड़ों लोग अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे, उससे यह साफ जाहिर होता है कि परमाणु बिजली घर से जुड़ी भीषण दुर्घटना की आशंकाओं ने स्थानीय निवासियों की चेतना को झकझोर दिया है।
जापान के फुकुशिमा में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद दुनिया भर में जो परमाणु बिजली घरों के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ था, वह अब जबर्दस्त ढंग से जोर पकड़ रहा है। तमिलनाडु के कुडनकुलम में रूस के सहयोग से जल्द चालू होने वाले परमाणु बिजली घर के खिलाफ लोगों ने अपने संगठित विरोध से राज्य सरकार को झुकाया, जो एक बड़ी नजीर है। परमाणु ऊर्जा के पक्ष-विपक्ष में बंटे लोगों के बीच इस बात पर सहमति बनती नजर आ रही है कि लोगों की आशंकाओं को दूर किए बिना परमाणु बिजली घर नहीं बनने चाहिए। लिहाजा कुडनकुलन की थाप बहुत दूर तक और देर तक सुनाई देगी। वैसे भी इस समय देश भर में जहां भी नए परमाणु बिजली घर प्रस्तावित हैं, वहां उनका कड़ा विरोध चल रहा है।शहरीकरण का मतलब ही हो गया है रफ्तार। रफ्तार का मतलब है वाहन। और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित हवा। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए। यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहर का मतलब है उद्योगीकरण और अनियोजित कारखानों की भरमार। नतीजा यह हुआ है कि देश की सभी नदियां जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यों के लिए, न कि गंदगी सोखने के लिए।
साल दर साल बढ़ती गर्मी, फैलता जलसंकट और मरीजों से पटते अस्पताल। इसी तरह की तमाम और समस्याएं हैं जो दिनोंदिन चिंता का विषय बनती जा रही हैं। माना जा रहा है कि इन मुश्किलों की एक बड़ी वजह पर्यावरण का विनाश है। पर्यावरण को नष्ट करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा हाथ है। असल में देखें, तो संकट घटते जंगलों का हो या फिर साफ हवा या साफ पानी का। सभी के जड़ में विकास की वह अवधारणा है जिसमें शहररूपी सुरसा का मुंह फैलता ही जा रहा है। इसके निशाने पर है कुदरत और इंसान। शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर, महानगर। देश की बहुसंख्यक आबादी नगरों की तरफ भाग रही है। यह पलायन काफी कुछ रोजी-रोटी से भी जुड़ा है। रोजगार, आधुनिक सुविधाएं और भविष्य की लालसा में लोगबाग अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन कर रहे हैं।जल-दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।
क्या धरती पर पानी के बिना जिंदगानी संभव है? अगर नहीं, तो पानी की इतनी बड़ी बर्बादी क्यों हो रही है। भारत में जलसंकट लगातार दस्तक दे रहा है और सरकार की तंद्रा टूट नहीं रही है। भारत में बारिश का अस्सी फीसद पानी बर्बाद हो जाता है। आलम यह है कि कुछ इलाके तो सैलाब से घिरे रहते हैं और कुछ सूखे से। जनजीवन की हानि दोनों ही स्थितियों में होती है। ऐसे में यह सवाल लगातार उठ रहा है कि देश के जल प्रबंधन को लेकर क्या और कैसे किया जाए। फिर देश के कई हिस्सों में सूखे ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। और कई इलाके बाढ़ से तबाह हैं। कई इलाके ऐसे हैं जहां कम बारिश हुई है। इस वजह से वहां खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद भी कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए काफी अहम है।
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