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अगर गंगा को स्वच्छ करना है तो पहले दृष्टि बदलनी होगी। उसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। गंगा की अस्वच्छता को पर्यावरण और स्वास्थ्य वाली भौतिकवादी दृष्टि से देखना छोड़ना होगा। उसके दूषण के लिए मूलतः बढ़ती आबादी, उद्योगों और शहरों का विस्तार, दाह-संस्कार की प्रथा आदि को प्राथमिक दोषी ठहराना भी सही नहीं है।
दो सप्ताह पहले आधिकारिक तौर पर घोषणा की गई कि सन् 2020 तक गंगा में शहरी गंदगी और औद्योगिक कचरा गिराना पूरी तरह बंद हो जाएगा। इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर की सहायता मिलने का करार हुआ है। प्रश्न है कि क्या धन की कमी के चलते गंगा मैली होती गई है? अपने घर के पूजा-घर की गंदगी भी हम अपने श्रम या साधन से दूर न कर सकें तो इससे विचित्र बात क्या हो सकती है। किस तरह की प्रगति या विकास कर रहे हैं हम, यह भी सोचने की बात है। मगर पहले इस पर विचार करें कि पिछले पच्चीस वर्षों में गंगा सफाई अभियान में जितना खर्च हुआ, उससे क्या निकला है। सन् 1985 में शुरू हुई गंगा कार्य योजना प्रायः विफल रही, जबकि उसमें आठ सौ सोलह करोड़ रुपए से अधिक धन खर्च किया जा चुका है। इसकी ईमानदार समीक्षा के बिना यह नई योजना भी वैसी ही साबित होगी। यह तो एक यांत्रिक, भौतिकवादी, नौकरशाही, आलसी समझ है कि किसी कार्य के लिए धन का आबंटन कर देने मात्र से फल प्राप्त हो सकता है।प्लास्टिक का इतने लंबे समय तक न गलना सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। इसी कारण इसे न तो जमीन में गाड़ा जा सकता, न ही हवा में उड़ते छोड़ा जा सकता, न ही पानी में तैरते छोड़ा जा सकता, न ही जलाया जा सकता है, क्योंकि इसे जलाने से जहरीले तत्त्व हवा में घुलते हैं। प्लास्टिक का यह लगभग ‘अमर रूप’ न सिर्फ इंसानों का जीवन संकट में डाल रहा है बल्कि जानवरों को भी मौत के घाट उतार रहा है।
बारिश के कारण 2009 में मुंबई में जो तबाही मची थी उसके लिए काफी हद तक पॉलिथीन से अटी पड़ीं नालियां और नाले जिम्मेदार थे। इंसानी सभ्यता की वाहक नदियां अब पॉलिथीन और दूसरे प्लास्टिक के कचरे से अटी पड़ी हैं। इंसानों और जीवों के जीवनदायी नदी, झील, तालाब, समुद्र प्लास्टिक के कचरे को ढोने वाले बनकर ही रह जाएंगे। सस्ता, हल्का, टिकाऊ, मजबूत, कम जगह घेरने वाला, लोचदार, हर तरह के सामान को ले जा सकने वाला, तापरोधी जैसी खासियतों के साथ प्लास्टिक एक बहुउपयोगी और बहुउद्देशीय वस्तु की तरह जहन में आता है। फिर ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया में इस बहुउपयोगी चीज के प्रतिPagination
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मां रेवा थारो पानी निर्मल....
मन की मैल से गंगा मैली
अगर गंगा को स्वच्छ करना है तो पहले दृष्टि बदलनी होगी। उसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। गंगा की अस्वच्छता को पर्यावरण और स्वास्थ्य वाली भौतिकवादी दृष्टि से देखना छोड़ना होगा। उसके दूषण के लिए मूलतः बढ़ती आबादी, उद्योगों और शहरों का विस्तार, दाह-संस्कार की प्रथा आदि को प्राथमिक दोषी ठहराना भी सही नहीं है।
दो सप्ताह पहले आधिकारिक तौर पर घोषणा की गई कि सन् 2020 तक गंगा में शहरी गंदगी और औद्योगिक कचरा गिराना पूरी तरह बंद हो जाएगा। इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर की सहायता मिलने का करार हुआ है। प्रश्न है कि क्या धन की कमी के चलते गंगा मैली होती गई है? अपने घर के पूजा-घर की गंदगी भी हम अपने श्रम या साधन से दूर न कर सकें तो इससे विचित्र बात क्या हो सकती है। किस तरह की प्रगति या विकास कर रहे हैं हम, यह भी सोचने की बात है। मगर पहले इस पर विचार करें कि पिछले पच्चीस वर्षों में गंगा सफाई अभियान में जितना खर्च हुआ, उससे क्या निकला है। सन् 1985 में शुरू हुई गंगा कार्य योजना प्रायः विफल रही, जबकि उसमें आठ सौ सोलह करोड़ रुपए से अधिक धन खर्च किया जा चुका है। इसकी ईमानदार समीक्षा के बिना यह नई योजना भी वैसी ही साबित होगी। यह तो एक यांत्रिक, भौतिकवादी, नौकरशाही, आलसी समझ है कि किसी कार्य के लिए धन का आबंटन कर देने मात्र से फल प्राप्त हो सकता है।जरूरत जो बन गई मुसीबत
प्लास्टिक का इतने लंबे समय तक न गलना सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। इसी कारण इसे न तो जमीन में गाड़ा जा सकता, न ही हवा में उड़ते छोड़ा जा सकता, न ही पानी में तैरते छोड़ा जा सकता, न ही जलाया जा सकता है, क्योंकि इसे जलाने से जहरीले तत्त्व हवा में घुलते हैं। प्लास्टिक का यह लगभग ‘अमर रूप’ न सिर्फ इंसानों का जीवन संकट में डाल रहा है बल्कि जानवरों को भी मौत के घाट उतार रहा है।
बारिश के कारण 2009 में मुंबई में जो तबाही मची थी उसके लिए काफी हद तक पॉलिथीन से अटी पड़ीं नालियां और नाले जिम्मेदार थे। इंसानी सभ्यता की वाहक नदियां अब पॉलिथीन और दूसरे प्लास्टिक के कचरे से अटी पड़ी हैं। इंसानों और जीवों के जीवनदायी नदी, झील, तालाब, समुद्र प्लास्टिक के कचरे को ढोने वाले बनकर ही रह जाएंगे। सस्ता, हल्का, टिकाऊ, मजबूत, कम जगह घेरने वाला, लोचदार, हर तरह के सामान को ले जा सकने वाला, तापरोधी जैसी खासियतों के साथ प्लास्टिक एक बहुउपयोगी और बहुउद्देशीय वस्तु की तरह जहन में आता है। फिर ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया में इस बहुउपयोगी चीज के प्रतिPagination
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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