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‘लो’ वॉटर इकॉनमी का अर्थ है, पानी को कम खर्च करना और उसका दोबारा इस्तेमाल करना। इसके पीछे यह सिद्धांत है कि पर्यावरण में प्राकृतिक अवस्था में जितना भी पानी है, उसे जहां तक संभव है बचाया जाए। पानी की हर बूंद का दोबारा इस्तेमाल किया जाए।
पानी के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। गर्मियों के मौसम में पानी की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है और यही वह समय होता है, जब इसकी सबसे ज्यादा किल्लत होती है। भारतीय उपमहाद्वीप की भीषण गर्मी के बीच हर साल मानसून में हम अच्छी बारिश की कामना करते हैं। हमारे जल स्रोत बहुत हद तक बारिश पर निर्भर करते हैं। वैसे पानी की कमी सिर्फ गर्मियों की समस्या नहीं है। अगर पिछले दशक का सारा संघर्ष तेल को लेकर था, तो बेशक यह दशक पानी के नाम रहने वाला है। धरती पर पानी तेजी से खत्म हो रहा है और जो उपलब्ध है, वह भी अच्छी क्वालिटी का नहीं है।
छत्तीसगढ़ की एक बड़ी आबादी शुद्ध पेयजल और सिंचाई के पानी से महरूम है पर उद्योगों को पानी बेचने का खेल सरेआम चल रहा है। पेयजल और सिंचाई के नाम पर बनाए जा रहे तमाम एनीकट (सिंचाई बांध) और बैराज ऐसी स्थिति में शायद ही आम लोगों को लाभ दे पाएं।
बुंदेलखंड के किसान बेहाल हैं। उनकी समस्याओं के समाधान के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। जो पैसा पैकेज के तौर पर मिला भी है उसे तेजी से जमीन पर उतारा नहीं जा रहा है। विकास योजनाओं के पैसे की लूटखसोट जमकर हो रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
बुंदेले हरबोलों की सरजमीं पानी, पलायन, भुखमरी और कर्ज के दबाव में हो रही मौतों से जूझ रही है। राज्य की मायावती सरकार ने सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होते ही केंद्र सरकार से इलाके के लिए 80 हजार करोड़ के पैकेज की मांग तो कर दी लेकिन नवंबर, 2009 में संयुक्त बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश) के लिए केंद्र सरकार ने जो 7, 622 करोड़ रुपए का पैकेज दिया उसे जमीन पर विकास के रूप में उतारने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। नतीजा यह कि जो थोड़ी-बहुत धनराशि केंद्र से बुंदेलखंड पैकेज के नाम पर मिली उसका बड़ा हिस्सा अधिकारियों की जेब में चला गया। पैसों के सही इस्तेमाल के लिए जिला स्तर पर सफल मॉनीटरिंग तो दूर इसके संपूर्ण जानकारी संकलन की व्यवस्था तक नहीं है। बुंदेलखंड पैकेज का एक अरब 33 करोड़ रुपया आज भी विभागों में यूं ही पड़ा है।Pagination
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‘लो’ कार्बन के साथ ‘लो’ वॉटर इकॉनमी भी जरूरी
‘लो’ वॉटर इकॉनमी का अर्थ है, पानी को कम खर्च करना और उसका दोबारा इस्तेमाल करना। इसके पीछे यह सिद्धांत है कि पर्यावरण में प्राकृतिक अवस्था में जितना भी पानी है, उसे जहां तक संभव है बचाया जाए। पानी की हर बूंद का दोबारा इस्तेमाल किया जाए।
पानी के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। गर्मियों के मौसम में पानी की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है और यही वह समय होता है, जब इसकी सबसे ज्यादा किल्लत होती है। भारतीय उपमहाद्वीप की भीषण गर्मी के बीच हर साल मानसून में हम अच्छी बारिश की कामना करते हैं। हमारे जल स्रोत बहुत हद तक बारिश पर निर्भर करते हैं। वैसे पानी की कमी सिर्फ गर्मियों की समस्या नहीं है। अगर पिछले दशक का सारा संघर्ष तेल को लेकर था, तो बेशक यह दशक पानी के नाम रहने वाला है। धरती पर पानी तेजी से खत्म हो रहा है और जो उपलब्ध है, वह भी अच्छी क्वालिटी का नहीं है।
नदी-नालों की नीलामी!
हरबोलों की जमीं पर हाहाकार
बुंदेलखंड के किसान बेहाल हैं। उनकी समस्याओं के समाधान के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। जो पैसा पैकेज के तौर पर मिला भी है उसे तेजी से जमीन पर उतारा नहीं जा रहा है। विकास योजनाओं के पैसे की लूटखसोट जमकर हो रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
बुंदेले हरबोलों की सरजमीं पानी, पलायन, भुखमरी और कर्ज के दबाव में हो रही मौतों से जूझ रही है। राज्य की मायावती सरकार ने सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होते ही केंद्र सरकार से इलाके के लिए 80 हजार करोड़ के पैकेज की मांग तो कर दी लेकिन नवंबर, 2009 में संयुक्त बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश) के लिए केंद्र सरकार ने जो 7, 622 करोड़ रुपए का पैकेज दिया उसे जमीन पर विकास के रूप में उतारने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। नतीजा यह कि जो थोड़ी-बहुत धनराशि केंद्र से बुंदेलखंड पैकेज के नाम पर मिली उसका बड़ा हिस्सा अधिकारियों की जेब में चला गया। पैसों के सही इस्तेमाल के लिए जिला स्तर पर सफल मॉनीटरिंग तो दूर इसके संपूर्ण जानकारी संकलन की व्यवस्था तक नहीं है। बुंदेलखंड पैकेज का एक अरब 33 करोड़ रुपया आज भी विभागों में यूं ही पड़ा है।Pagination
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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