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गोमती नदी की कलकल धारा लोगों की आस्था और विश्वास का संगम थी। उसका साफ और नीला अंजुलियों में भर कर लोग सर-माथे से लगाते थे। लेकिन प्रदूषण ने गोमती के जल को काला कर डाला है। नदी के अतीत और वर्तमान पर निगाह डाल रहे हैं हरिकृष्ण यादव।
दियरा में गोमती के दोनों किनारों को पुल ने मिला डाला था, यह देख कर खुशी हुई। साल में एक बार गोमती के पार जाना ही पड़ता है। पुल नहीं था तो नाव से गोमती पार करने के सिवा कोई चारा न था, लेकिन पुल के निर्माण से हुई खुशी नदी के तट पर पहुंचते ही काफूर भी हो गई। पहले जब भी जाना हुआ नाव पर चढ़ने से पहले साफ नीले जल से हाथ-पैर धोकर एक-दो घूंट पानी जरूर पीता था। पर इस बार पानी इतना गंदा था कि घूंट भरना तो दूर पांव तक धोने की इच्छा न हुई। वैसे तो हर साल जेठ के महीने में दशहरे के दिन लाखों श्रद्धालु पवित्र गोमती में स्नान करते हैं। इस बार दशहरे पर नाले में बदल गई गोमती में श्रद्धालु डुबकी लगाने की आस्था कैसे निभाएंगे।यह समय सिद्ध है कि परमाणु ऊर्जा न तो साफ सुथरी है और न ही सस्ती! इसके अलावा दुर्घटना की स्थिति में होने वाले विनाश का आकलन कर पाना भी कठिन है। इसके विकिरण सैकड़ों-हजारों वर्षों तक पर्यावरण में विद्यमान रहेंगे और मानवता को नुकसान पहुंचाते रहेंगे। भारत के राजनीतिज्ञों ने परमाणु ऊर्जा विकास को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है और देश की सुरक्षा को दरकिनार कर दिया है।
भारत सरकार परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार का निर्णय ले चुकी है। नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से अभी तक हम जितनी बिजली पूरे देश में प्राप्त कर सके हैं, उससे कहीं अधिक बिजली निकट भविष्य में मात्र एक परियोजना, महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के रत्नागिरी जिले में स्थित जैतापुरा जहां 1650 मेगावाट के छः सयंत्र लगाने से अथवा 9900 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। इस विशालकाय परियोजना का विरोध वैसे तो स्थानीय लोग आरंभ से कर रहे हैं, पर जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद इस विरोध ने और अधिक जोर पकड़ा है। वैश्विक जन-विरोध को फुकुशिमा के बाद बेहतर समझा जा रहा है और उसे अधिक व्यापक समर्थन मिल रहा है। परंतु महाराष्ट्र सरकार के दृष्टिकोण में बहुत कम परिवर्तन आया है। वह इस परियोजना को हर हालत में आगे ले जाने के लिए तैयार लगती है। भारत सरकार के दृष्टिकोण में बस इतना सा फर्क आया है कि सुरक्षा पक्ष को थोड़ा सा और पक्का कर दिया जाए।कभी रायपुर में करीब 181 तालाब थे और इसे तालाबों का शहर कहा जाता था लेकिन आज यहां अंगुलियों पर गिनने लायक तालाब बचे हैं और वे भी बेहद खस्ताहाल हैं।
रायपुर, छत्तीसगढ़ में 'बिन पानी सब सून' को ध्यान में रखते हुए बड़ी संख्या में ताल-तलैये खुदवाए गए, जो गर्मी के दिनों में भी लबालब रहते थे। राजधानी रायपुर तो 'तालाबों का शहर' कहलाता रहा है। लेकिन आज यहां के ताल-तलैयों पर उपेक्षा का ग्रहण लग गया है। आज स्थिति यह है कि जिस बूढ़े तालाब की खूबसूरती और उसके स्वच्छ जल के आमंत्रण को शहर में निजी काम से आए पृथ्वीराज कपूर ठुकरा नहीं सके थे उसमें आज डुबकी लगाने का मतलब त्वचा रोगों को आमंत्रित करना साबित होगा।कभी बूढ़े तालाब का फैलाव समंदर जैसा लगता था। जब तेज हवा चलती तो इसके स्वच्छ पानी में लहरें उठने लगतीं। तालाब जीवन का अभिन्न हिस्सा थे और इन्हें पूरी योजना के साथ बनाया गया था।
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गोमती जो एक नदी थी
गोमती नदी की कलकल धारा लोगों की आस्था और विश्वास का संगम थी। उसका साफ और नीला अंजुलियों में भर कर लोग सर-माथे से लगाते थे। लेकिन प्रदूषण ने गोमती के जल को काला कर डाला है। नदी के अतीत और वर्तमान पर निगाह डाल रहे हैं हरिकृष्ण यादव।
दियरा में गोमती के दोनों किनारों को पुल ने मिला डाला था, यह देख कर खुशी हुई। साल में एक बार गोमती के पार जाना ही पड़ता है। पुल नहीं था तो नाव से गोमती पार करने के सिवा कोई चारा न था, लेकिन पुल के निर्माण से हुई खुशी नदी के तट पर पहुंचते ही काफूर भी हो गई। पहले जब भी जाना हुआ नाव पर चढ़ने से पहले साफ नीले जल से हाथ-पैर धोकर एक-दो घूंट पानी जरूर पीता था। पर इस बार पानी इतना गंदा था कि घूंट भरना तो दूर पांव तक धोने की इच्छा न हुई। वैसे तो हर साल जेठ के महीने में दशहरे के दिन लाखों श्रद्धालु पवित्र गोमती में स्नान करते हैं। इस बार दशहरे पर नाले में बदल गई गोमती में श्रद्धालु डुबकी लगाने की आस्था कैसे निभाएंगे।परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार के खतरे
यह समय सिद्ध है कि परमाणु ऊर्जा न तो साफ सुथरी है और न ही सस्ती! इसके अलावा दुर्घटना की स्थिति में होने वाले विनाश का आकलन कर पाना भी कठिन है। इसके विकिरण सैकड़ों-हजारों वर्षों तक पर्यावरण में विद्यमान रहेंगे और मानवता को नुकसान पहुंचाते रहेंगे। भारत के राजनीतिज्ञों ने परमाणु ऊर्जा विकास को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है और देश की सुरक्षा को दरकिनार कर दिया है।
भारत सरकार परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार का निर्णय ले चुकी है। नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से अभी तक हम जितनी बिजली पूरे देश में प्राप्त कर सके हैं, उससे कहीं अधिक बिजली निकट भविष्य में मात्र एक परियोजना, महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के रत्नागिरी जिले में स्थित जैतापुरा जहां 1650 मेगावाट के छः सयंत्र लगाने से अथवा 9900 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। इस विशालकाय परियोजना का विरोध वैसे तो स्थानीय लोग आरंभ से कर रहे हैं, पर जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद इस विरोध ने और अधिक जोर पकड़ा है। वैश्विक जन-विरोध को फुकुशिमा के बाद बेहतर समझा जा रहा है और उसे अधिक व्यापक समर्थन मिल रहा है। परंतु महाराष्ट्र सरकार के दृष्टिकोण में बहुत कम परिवर्तन आया है। वह इस परियोजना को हर हालत में आगे ले जाने के लिए तैयार लगती है। भारत सरकार के दृष्टिकोण में बस इतना सा फर्क आया है कि सुरक्षा पक्ष को थोड़ा सा और पक्का कर दिया जाए।दफन हुए ताल-तलैये
कभी रायपुर में करीब 181 तालाब थे और इसे तालाबों का शहर कहा जाता था लेकिन आज यहां अंगुलियों पर गिनने लायक तालाब बचे हैं और वे भी बेहद खस्ताहाल हैं।
रायपुर, छत्तीसगढ़ में 'बिन पानी सब सून' को ध्यान में रखते हुए बड़ी संख्या में ताल-तलैये खुदवाए गए, जो गर्मी के दिनों में भी लबालब रहते थे। राजधानी रायपुर तो 'तालाबों का शहर' कहलाता रहा है। लेकिन आज यहां के ताल-तलैयों पर उपेक्षा का ग्रहण लग गया है। आज स्थिति यह है कि जिस बूढ़े तालाब की खूबसूरती और उसके स्वच्छ जल के आमंत्रण को शहर में निजी काम से आए पृथ्वीराज कपूर ठुकरा नहीं सके थे उसमें आज डुबकी लगाने का मतलब त्वचा रोगों को आमंत्रित करना साबित होगा।कभी बूढ़े तालाब का फैलाव समंदर जैसा लगता था। जब तेज हवा चलती तो इसके स्वच्छ पानी में लहरें उठने लगतीं। तालाब जीवन का अभिन्न हिस्सा थे और इन्हें पूरी योजना के साथ बनाया गया था।
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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