जलवायु परिवर्तन समस्या नहीं, समाधान की ओर कदम बढ़े

Submitted by RuralWater on Sun, 12/13/2015 - 11:37
.पेरिस में जो भी निर्णय बुद्धिजिवी व जिम्मेदार लोग लेंगे वह स्वागत योग्य ही होगा। मगर आज तक के पर्यावरण सम्मेलनों में भी बहुत सारे निर्णय लिये गए हैं उन पर कितना अमल हुआ है यह भी अहम सवाल है। पेरिस में भी इस पर मंथन होना चाहिए।

यहाँ हम भारतीय हिमालय की बात यदि कर रहे हैं तो आज भी भारत का वन क्षेत्र प्रचुर मात्रा में देश को स्वच्छ व स्वस्थ पर्यावरण उपलब्ध करा रहा है। परन्तु भारतीय हिमालय पर विकास के नाम पर लगातार राजनीतिक हमले हो रहे हैं जिसका जवाब शायद ही ये जिम्मेदार लोग दे पाये।

इसका कारण यह माना जाता रहा है कि पर्यावरण संरक्षण की बात को करने वाले लोग विकास विरोधी कहे जाने लगे हैं। फलस्वरूप इसके पर्यावरण संरक्षण का कार्य सिर्फ-व-सिर्फ संघर्षों की गाथा बनती जा रही हैं।

ताज्जुब हो कि हिमालय में विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो किया जा रहा है मगर संरक्षण के कार्यों की कोई अब तक ठोस योजना सामने नहीं आई है।

यही वजह है कि पिछले 10 वर्षों से प्राकृतिक आपदाएँ तेजी से घटती जा रही हैं। हाल-ये-सूरते यही कहा जा सकता है कि जो वर्तमान में प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं उनके संरक्षण बाबत कोई ठोस कार्य योजना सामने आये तो बात बनें।

बता दें कि भारतीय हिमालय क्षेत्र की अपनी एक विशेष जलवायु है जो एशिया के बड़े भू-भाग की जलवायु को भी प्रभावित करती है। फिर भी तीन आयामीय संरचना अर्थात अक्षांशीयः दक्षिण-उत्तर, देशान्तरीयः पूर्व-पश्चिम, उच्चताः निम्न-उच्च के साथ इसकी स्थलाकृतियों में भिन्नता के कारण जलवायु और आवास की स्थितियों में विविधता पाई जाती है। जिसके कारण जीन से लेकर पारिस्थितिकी तंत्र तक जैव-विविधता के तत्वों में समृद्धि प्रतिनिधित्व और अद्वितीयता पाई जाती है।

कहा जाता है कि मानवीय आवासों, संस्कृति और ज्ञान प्रणाली में इस हिमालय ने अनेक प्रकार से विविधता लाने में योगदान दिया है। अर्थात विश्व के 34 जैव विविधता के प्रमुख स्थलों के रूप में हिमालय की मान्यता इसके व्यापक पारिस्थितिकीय महत्त्व को उपयुक्त रूप में प्रदर्शित करती है।

भारतीय हिमालय क्षेत्र (आईएचआर) 5.37 लाख वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र में फैला है। आईएचआर 21” 57’-37” 5’ उत्तरी अक्षांश और 720 40’ -970 25’ पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है और देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.2 प्रतिशत भाग को घेरे हुए है।

प्रशासनिक रूप से यह पूर्णतः 10 राज्यों जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल के पर्वतीय जिलों में फैला हुआ है।

विविधतापूर्ण भौगोलिक बनावट के कारण देश और काल की विविधताओं के फलस्वरूप इसकी जलवायु और भू-आकृति में बहुत अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार यह सभी स्तरों पर अपनी जैव विविधता वाले घटकों की प्रचुरता और प्रतिरूपता में अपना अहम योगदान देता है।

इसकी भौगोलिक स्थिति और इसके जैव विविधता वाले तत्वों की विषमता ने इस क्षेत्र के जैव भौगोलिक प्रतिरूप में जटिलता उत्पन्न की है। पूर्वी हिमालय (पूर्वोत्तर भारत सहित), जो पादपों की लगभग 8000 प्रजातियों को आश्रय प्रदान करता है, उसे पुष्पी पौधों का एक जन्म स्थान भी माना जाता है। जबकि पश्चिमी हिमालय 5000 से अधिक पादप प्रजातियों को आश्रय प्रदान करता है।

यह क्षेत्र समय रूप से भारत के कुल पुष्पी पादपोें के लगभग 50 प्रतिशत भाग को आश्रय प्रदान करता है, जिनमें से लगभग 30 प्रतिशत इस क्षेत्र के लिये स्थानिक है। यहाँ पर 816 से अधिक पेड़ों की प्रजातियाँ, 675 वन्य खाद्य और 1740 से अधिक चिकित्सीय महत्त्व की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इस प्रकार से, लगभग 300 स्तनधारी प्राणी (12 स्थानिक) और 979 पक्षी (15 स्थानिक) भी इस क्षेत्र में पाये गए हैं।

यह क्षेत्र जातीय समूहों में भी व्यापक विविधता को प्रदर्शित करता है। भारत की कुल 573 अनुसूचित जनजातियों में से 171 जहाँ आमतौर पर दूरदराज के क्षेत्रों में निवास करते है वहीं आईएचआर सम्पूर्ण उत्तरी सीमा के साथ देश को एक रणनीतिक स्थिति प्रदान करता है।

भारतीय हिमालय क्षेत्र विश्व के सबसे अधिक युवा एवं जटिल पर्वत शृंखलाओं में से एक है। यह क्षेत्र सर्वाधिक पृथक भौगोलिक और पारिस्थितिकीय क्षेत्र होने के कारण पृथ्वी की प्रमुख जैव-भौतिकी संरचनाओं में महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इस पर्वतीय शृंखला में हिमालय की जैव-विविधता के अन्तर्गत आने वाले प्रमुख स्थल शामिल है जो लगभग 7.5 लाख वर्ग किलोमीटर यानि 0.75 वर्ग किमी. क्षेत्र में 3,000 किमी. लम्बा और नीचे घाटी की ओर से 8,000 मीटर ऊँचा है जो पश्चिम में उत्तरी पाकिस्तान से लेकर नेपाल और भूटान होते हुए भारत के पूर्वाेत्तर क्षेत्र तक फैला है। देश की सुरक्षा की दृष्टि के अलावा, आईएचआर अपने घने वन क्षेत्र की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके भौगोलिक क्षेत्र का 41.5 प्रतिशत से भी अधिक भाग वनों से आच्छादित है, जो भारत के कुल वन क्षेत्र का एक तिहाई और देश के वनाच्छादित श्रेणी का लगभग 47 प्रतिशत भाग है। ये वन वस्तुओं और सेवाओं की प्रचुरता को उपलब्ध कराते हैं।

यह अपने व्यापक हरियाली से आच्छादित क्षेत्र के साथ कार्बन डाइऑक्साइड के लिये एक हौदी के रूप में भी काम करता है जो एक महत्त्वपूर्ण पारितंत्र सेवा है। इसके साथ ही, इसका व्यापक क्षेत्र यानि 17 प्रतिशत हमेशा बर्फ और ग्लेशियर ढँका रहता है। जबकि 30 से 40 प्रतिशत भाग मौसमी बर्फ से ढँका रहने के कारण जल का एक अद्वितीय भण्डार का निर्माण करता है।

यह अनेक सदाबहारी नदियों को जल प्रदान करता है, जो हमें पीने, सिंचाई और जल विद्युत के लिये पानी उपलब्ध कराती है। प्रत्येक वर्ष, लगभग 1,200,000 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है। आईएचआर में देश की लगभग 4 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है और यह उन्हें आजीविका भी प्रदान करता है।

अतएव हिमालय का पारितंत्र भूवैज्ञानिक कारणों और जनसंख्या के बढ़ते दबाव, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और अन्य सम्बन्धित चुनौतियों के कारण बहुत ही संवेदनशील है। ये प्रभाव जलवायु परिवर्तन के कारण और भी भयंकर होते जा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन बढ़ते हुए तापमान, बदलते हुए अद्यःपतन प्रतिरूपों, सूखे की घटना और जैविक प्रभावों के कारण हिमालय के पारितंत्र को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर रहा है। इससे न केवल इसके ऊपरी हिस्सों में रहने वाले समुदायों बल्कि देश भर में इसके बहाव क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों की आजीविका भी प्रभावित होगी।

इसलिये, हिमालय के पारितंत्र को बनाए रखने के लिये तत्काल इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 में विशेष रूप से पर्वतों के संरक्षण के लिये उपाय किये गए हैं।

भारत ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी राष्ट्रीय कार्रवाई योजना लागू की है जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र की निरन्तरता के लिये राष्ट्रीय मिशन का भी प्रावधान किया गया है।

एनईपी, 2006 और हिमालय के पारितंत्र को बनाए रखने के राष्ट्रीय मिशन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये इस क्षेत्र के विकास और विनियमन हेतु विशिष्ट दिशा-निर्देशों और विनियमों को अपनाने और राष्ट्रीय एवं राज्य के स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है जिससे कि इस क्षेत्र के विनियमन और प्रबन्धन के लिये हमारे पास स्पष्ट नियम उपलब्ध हो सकें।