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नदियों के विनाश के लिये जितना औद्योगिक प्रदूषण दोषी है, उतना ही महाराष्ट्र और गुजरात में हुआ शहरीकरण भी दोषी है। नदियों में बढ़ते जा रहे प्रदूषण से निपटने के लिये राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्यक्रम बनाया गया था, परन्तु केन्द्र की इस योजना का दायरा 20 राज्यों में महज 38 नदियों तक ही सिमटा हुआ है। इनमें भी गंगा और यमुना पर सबसे ज्यादा ध्यान केन्द्रित है। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते नदियाँ निरन्तर सिकुड़ रही हैं। पानी पर जिस तरह से बातें उभरकर सामने आ रही हैं, उससे पता चलता है कि पानी वाकई अनमोल है और उसका संरक्षण करना अकेले सरकारों की वश की बात नहीं है। लिहाजा अपने रेडियो उद्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा है कि पानी बचाना सिर्फ सरकारों और नेताओं का ही नहीं, बल्कि जन साधारण का भी काम है।
साफ है, देश के सामने जल संकट की जो भीषण समस्या आ खड़ी हुई है, उसका सामना तभी किया जा सकता है, जब केन्द्र एवं राज्य सरकारों के साथ, उनकी विभिन्न एजेंसियों के साथ समाज भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरीके से करे। वैसे हमारे देश में पानी का बहुत बड़ा संकट नहीं है, लेकिन उसका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल, जल की बर्बादी का सबब बन रही है। इस बर्बादी पर अंकुश के उपाय ढूँढने के बजाय, उनके समाधान तलाश लिये जाएँ तो एक हद तक पानी के संकट का निवारण हो सकता है।
इन उपायों के सिलसिले में पानी को कानून के दायरे में लाने की कई स्तर पर पहल हो रही है। नोबेल पुरस्कार विजेता और समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी ने पानी पर आपातकाल लगाने की बात करके जलसंकट पर नए तरह का विमर्श छेड़ने की कोशिश की है। दूसरी तरफ जल संसाधन मंत्री उमा भरती ने ताजा व शुद्ध जल के समुचित उपयोग के लिये जल कानून बनाने की बात की है। तीसरी बात लोकसभा की जल से सम्बन्धित स्थायी संसदीय समिति ने उठाते हुए, जल को संविधान की समवर्ती सूची में डालने की सिफारिश की है। विधि आयोग की भी यही सिफारिश है।
राज्यसभा में जदयू के सांसद शरद यादव ने जल को केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में लाने की बात उठाई है। साफ है, लगातार दो मानसून कमजोर रहने और मराठवाड़, विर्दभ, बुन्देलखण्ड तथा कालाहांडी में पानी को लेकर जिस तरह के भयावह हालात निर्मित हुए हैं, उसके तईं समस्या के कानूनी हल तलाशे जाने के मुद्दे बहुरूपों में सामने आये हैं। वैसे पानी, शिक्षा, और स्वास्थ्य की तरह संविधान की मूलभूत आवश्यकताओं में शामिल है।
लिहाजा विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या पानी को कानून के दायरे में ला देने भर से समस्या का हल सम्भव है? क्योंकि शिक्षा को ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ से जोड़ने के बावजूद शिक्षा में व्यापक बदलाव नहीं आये हैं।
प्यासे देश में बाढ़ व सुखाड़ के जो हालात बने हैं, वे मानव-मिर्मित घटनाक्रमों की देन हैं। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण जिस सुरसामुख की तरह फैल रहे हैं, उसी का परिणाम है कि पहली बार देश में पेयजल संकट इतने बड़े हिस्से में त्रासद रूप में असर दिखा रहा है। नतीजन सूखा प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बच्चों को पढ़ाई छोड़कर बाल मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ा है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक जल अभाव के चलते 24 प्रतिशत बच्चे बाल मजदूरी को और 22 फीसदी बच्चे पाठशाला छोड़ने को विवश हुए हैं। जबकि हजारों करोड़ रुपए सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं के मदों में व्यर्थ पड़े हैं। इस बाबत कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी के मद में पड़ी राशि को सूखाग्रस्त इलाकों में बच्चों की सुरक्षा व शिक्षा पर खर्च करने की जरूरत है।
दरअसल देश के 256 जिलों के 33 करोड़ से भी अधिक लोग सूखा पीड़ित हैं। इन्हीं के उद्धार के लिये सत्यार्थी ने पानी पर आपातकाल लगाने का मुद्दा उठाया है। ठीक इसी समय जल से जुड़ी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट आई, जिसमें पानी को समवर्ती सूची में रखने की बात कही गई। विधि आयोग की सिफारिश में भी यही मंशा जताई गई।
संविधान के अनुच्छेद-262 और केन्द्र की प्रविष्टि-56 में दिये गए पानी पर अधिकार के बावजूद पानी और पानी के प्रमुख स्रोत नदी व तालाबों पर केन्द्र सरकार का कोई अधिकार नहीं है। फिलहाल जल की आपूर्ति और उसका भण्डारण आदि तो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है, किन्तु अन्तरराज्यीय नदियों का विकास केन्द्र की जिम्मेवारी है। इस कारण इन नदियों से जुड़े जो भी विवाद हैं, उन्हें सुलझाने का दायित्व केन्द्र का है।
यही वजह है कि जल बँटवारे से सम्बन्धित जो भी विवाद हैं, वे दशकों बाद भी नहीं सुलझे हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी पर चल रहा विवाद आजादी के समय से है। इस पर बनाए प्राधिकरण के फैसले के मुताबिक कर्नाटक, तमिलनाडु व पांडिचेरी के लिये जल का उपयोग व उसकी बचत की मात्रा तय कर दी गई थी, लेकिन किसी भी पक्ष ने इस फैसले को नहीं माना। अब यह अदालती लड़ाई में फँसा हुआ है।
15 नदियों वाले प्रदेश पंजाब में रावी एवं व्यास नदी के बँटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई साल से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा विवाद सतलुज एवं यमुना को जोड़ने का है। इन दोनों नदियों के बीच नहर बनाना प्रस्तावित है। इससे पूर्वी व पश्चिमी भारत के बीच जलमार्ग अस्तित्व में आ जाएगा। हरियाणा ने अपने हिस्से की नहर का निर्माण कर लिया है, लेकिन पंजाब को जब इसमें नुकसान का आभास हुआ तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को रद्द कर दिया।
अब मामला न्यायालय में है। जल बँटवारे में इस तरह से पैदा किये जा रहे व्यवधानों से लगता है, राज्य सरकारें मामलों को निपटाने की बजाय क्षेत्रीय राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखती हैं। इस नाते अन्तरराज्यीय नदियों का विकास केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में होने के बावजूद, केन्द्र का हस्तक्षेप असरकारी साबित नहीं होता, क्योंकि जल की आपूर्ति और भण्डारण का दायित्व राज्यों के पास है। गोया, यह आशंका भी जताई जा रही है कि जल को समवर्ती सूची में दर्ज कर देने भर से जल सम्बन्धी समस्याओं का निदान होने वाला नहीं है?
इस परिप्रेक्ष्य में जल को पूरी तरह केन्द्र के अधीन करने की जरूरत को भी रेखांकित किया जा रहा है। हालांकि इसके भी अपने खतरे हैं? दरअसल आर्थिक उदारवाद के बाद से लेकर अब तक केन्द्र में जो भी सरकारें रही हैं, उन सब पर औद्योगिक हितों के लिये पानी के दोहन का दबाव नजर आता रहा है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नदियों से सम्बन्धित एक रिपोर्ट में कहा है कि ऐसा विकास दुखद है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों को लेकर अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने का रवैया अपनाया जाये। बोर्ड ने जताया था कि महाराष्ट्र और गुजरात ऐसे राज्य हैं,जहाँ कि ज्यादातर नदियाँ प्रदूषण के मामले में खतरे के निशान को पार कर गई हैं। ये दोनों ही राज्य देश के कथित औद्योगिक विकास में अग्रणी माने जाते हैं। अलबत्ता यही वे राज्य हैं, जो अपनी प्राकृतिक सम्पदा तेजी से खोते जा रहे हैं।
नदियों के विनाश के लिये जितना औद्योगिक प्रदूषण दोषी है, उतना ही महाराष्ट्र और गुजरात में हुआ शहरीकरण भी दोषी है। नदियों में बढ़ते जा रहे प्रदूषण से निपटने के लिये राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्यक्रम बनाया गया था, परन्तु केन्द्र की इस योजना का दायरा 20 राज्यों में महज 38 नदियों तक ही सिमटा हुआ है। इनमें भी गंगा और यमुना पर सबसे ज्यादा ध्यान केन्द्रित है।
बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते नदियाँ निरन्तर सिकुड़ रही हैं। पर्यावरण के तकाजों की अनदेखी का आलम यह है कि शहरों के विकास के क्रम में औद्योगिक और घरेलू कचरे के साथ-साथ सीवर की गन्दगी के निष्पादन के लिये भी नदियों और तलाबों को एक आसान माध्यम मान लिया गया है।
नतीजन जल भण्डारण क्षमता लगातार घट रही है। भूजल स्तर खतरनाक ढंग से नीचे गिर रहा है। इसे गिराने का काम तथाकथित नलकूप क्रान्ति ने भी किया है। यही वजह है कि देश में पानी के जो 6607 जल क्षेत्र हैं, उनमें से 2000 क्षेत्रों में पानी के अन्धाधुन्ध दोहन से हालात चिन्ताजनक हैं। ऐसे ही हालातों को देखते हुए एक बार सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी सन्तुलन की कीमत पर किसी भी तरह का विकास कार्य नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु वास्तविकता क्या है, किसी से छिपी नहीं है।
इसीलिये यह आशंका जताई जा रही है कि पानी यदि केन्द्र के हवाले कर दिया जाता है तो बोतलबन्द पानी के लिये निजी कारोबारियों को खुली छूट मिल जाएगी। हालांकि ऐसी आशंकाएँ पानी के राज्य सरकार के नियंत्रण में रहते हुए भी बनी रही हैं। क्योंकि देश में निजी स्तर पर पानी के कारोबार की शुरुआत अविभाजित मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ से हुई थी। यहाँ कांग्रेस के नेतृत्व वाली दिग्विजय सिंह सरकार ने शिवना नदी पर शुद्ध पानी का संयंत्र लगाने की मंजूरी दी थी।
इसी आधार पर हीराकुंड बाँध का पानी किसानों से छीनकर बड़े कारखानों को देने की चाल उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ने चली थी। लेकिन किसानों के विरोध के कारण यह चाल फलीभूत नहीं हो पाई थी। जरूरत भी यही थी, क्योंकि पानी पर पहला अधिकार मानव समूहों और खेती-किसानी का है।
इधर उमा भारती ने ताजे पानी के लिये अलग से ‘जल-कानून’ बनाने को कहा है। इसके तहत भविष्य में लोग ताजा पानी का इस्तेमाल केवल सीमित जरूरतों के लिये करेंगे। क्योंकि ताजा या शुद्ध पानी, भूजल या सरंक्षित वर्षाजल का हर कार्य के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता है। इस हेतु फिलहाल कानूनी प्रारूप तैयार किया जा रहा है।
ताजा पानी के सीमित उपयोग की बात उचित है, लेकिन शुद्ध और अशुद्ध पानी को अलग कैसे किया जाएगा, यह समझना थोड़ा मुश्किल है। हालांकि राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में ऐसा होता है। लोग खाट पर बैठकर नहाने के साथ फैले पानी को खाट के नीचे रखे बर्तन में इकट्ठा करते हैं और फिर उसे कपड़े धोने व शौच इत्यादि के लिये काम में लाते हैं। लेकिन वहाँ यह बचत ज्ञान-परम्परा से चली आ रही समाज की संस्कृति का दर्शन है।
शेष भारत में पाश्चात्य जीवनशैली अपना लिये जाने के कारण तरण-ताल, बाथ टब, कमोड और वाहनों की धुलाई में ही करोड़ों लीटर ताजा जल रोजाना बहाया जा रहा है। इन पर नियंत्रण के उपाय जल कानून में शामिल करने की जरूरत है।
फिलहाल हमारे यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और विद्युत जैसे विषय संविधान की समवर्ती सूची में शामिल हैं। इसी तर्ज पर पानी को इस सूची में डालने की बात कही जा रही है। लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि जब इस सूची में रहते हुए शिक्षा, चिकित्सा और बिजली की समस्याएँ दूर नहीं हुई हैं तो फिर जल समस्या का निदान कैसे हो जाएगा?
इससे अच्छा है, संविधान में संशोधन करते हुए पानी को पूर्ण रूप से केन्द्र के अधीन कर दिया जाये और जल-कानून को अस्तित्व में लाकर शुद्ध और अशुद्ध जल का इस्तेमाल अलग-अलग कामों में सुनिश्चित हो। इसके साथ ही जिस तरह से हमने पाश्चात्य जीवनशैली से जुड़े पानी के जिन खर्चीले साधनों को अपनाया हुआ है, उनको भी शत-प्रतिशत प्रतिबन्धित करने की जरूरत है। पानी के आसन्न संकट जैसी आशंकाओं से तभी निपटा जा सकता है?