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यह बीज महोत्सव के मौके पर आयोजित पोस्टर प्रदर्शनी का हिस्सा है। यह कार्यक्रम 20-21 सितंबर को सतना में आयोजित किया गया था। इसे परंपरागत देसी बीज अनाज बीज महोत्सव समिति ने आयोजित किया था।
इस अवसर पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें देशी अनाजों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था। कुटकी, सांवा, ज्वार, मक्का, जौ, कठिया, बाजरा, आदि अनाजों की कहानी आकर्षण का केंद्र थी।
बीज महोत्सव के संयोजक सतना जिले के एक छोटे किसान बाबूलाल दाहिया हैं, जो न केवल देशी बीजों के संरक्षण-संवर्धन में लगे हैं बल्कि इस धरोहर को लोक व्यवहार में लाने के लिए सतत प्रयासरत हैं। वे स्कूली बच्चों के बीच पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के कार्यक्रम तो करते हैं, किसान और नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं।
बाबूलाल दाहिया सतना जिले की उचेहरा विकासखंड के पिथौराबाद गांव में रहते हैं। वे बघेली के साहित्यकार हैं और जब उन्हें लगा लोक भाषा, लोक साहित्य के साथ लोक अनाज भी बचाने की जरूरत है तब से वे देशी अनाजों के संरक्षण में लगे हैं।
सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै
आज उनके पास देशी धान की करीब 110 किस्में हैं जिनको वे छोटे-छोटे भूखंड में हर साल उगाते हैं और बीज संरक्षण करते हैं। धान के अलावा, अन्य देशी अनाजों की किस्में भी हैं।
प्रदर्शनी में सांवा के बारे में पोस्टर कहता है कि- मैं सभी अनाजों का ज्येष्ठ भ्राता हूं। क्योंकि मैं भोजन से त्रस्त गरीब किसान को शीघ्र पककर उसे राहत पहुंचाता हूं। अगर किसान मानसूनी वर्षा के तुरंत बाद एक बार खेत में हल्की जुताई कर मेरे बीज बिखेर दें और एक दो पानी और मिल जाए तो मेरी फसल डेढ़ माह में पक जाती है। फिर चाहे मेरी आप रोटी खाएं चाहे भात। तभी तो लोग मेरे बारे में कहते हैं-सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै।
तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी
कुटकी कहती है कि मैं सिर्फ तीन पखवाड़े में पक जाने वाला छोटा अनाज हूं। इसलिए लोग मेरे बारे में कहते हैं कि तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी। मेरी खिचड़ी या दूध के साथ पकाई गई खीर स्वाद में लाजवाब होती है। मैं अनेक औषधीय गुणों से परिपूर्ण हूं। पर मेरी गिनती खेती में नहीं की जाती है जैसे बकरी पालन को धन नहीं माना जाता। इसलिए कहते हैं- कुटकी खेती न म्यावधन।
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार...
ज्वार बोलती है कि मेरी लाल और मटमैले रंगों वाली लगभग बारह प्रजातियां थी। मेरी तासीर गर्म होने के कारण लोग मुझे कार्तिक से फागुन तक अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते थे। कभी रोटी, कभी दलिया और कभी लाई के रूप में उपयोग करते थे।
हम अपने पारंपरिक तालाब, गढ़री, जोहड़, बावड़ी, चाल और खाल को बचाना चाहते हैं तो हमें अपने देशी (स्थानीय) अनाजों की किस्मों को भी बचाना या उन्हे पुनजीर्वित करना होगा क्योंकि देशी अनाज कम से कम पानी पाकर अपने को तैयार कर लेते हैं। मैं असाढ़ में बोने के पश्चात कार्तिक में पक कर आ जाती हूं। मेरी फसल को दूर-दूर अंतराल में बोने की परंपरा है। इसलिए मेरे साथ अरहर, तिल, अवारी, मूूंग उड़द, भिंडी, खीरा, ककड़ी और बरबटी आदि कई की मिलवां खेती की जा सकती है। कहावत भी कही गई है किः-
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार,
जो जन ऐसा बोइ है उनके भरे कुठार।
इसी प्रकार कठिया गेहूं की कहानी दर्ज थी। मेरा नाम कठिया गेहूं है। रंग में लाल और खाने में स्वादिष्ट होने के कारण लोगों के दिल दिमाग में मेरी आज तक पैठ बनी हुई है। मेरा हलवा लाजवाब होता है। मैं बगैर सिंचाई पकने वाली प्रजाति हूं पर बौनी जाति के मेरे अन्य विदेशी स्वजातीय भाईयों की घुसपैठ के कारण दिन प्रतिदिन मेरा रकबा सिमटता जा रहा है। अब मेरी खोज खबर सिर्फ बीमार लोग ही करते देखे गए हैं।
मैं जौ हूं। खाने में भले ही गेंहू की तरह कोमल और स्वादिष्ट लगूं पर मैं मनुष्य का बहुत पुरानी साथी हूं। मनुष्य ने अनाज के रूप में सब से पहले मेरी और तिल की ही पहचान की थी यही कारण है कि सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमो में आज भी मेरी पूंछ परख है। अब मेरा उपयोग मनुष्य के खाने में नहीं, भैंस को खिलाने मे किया जाता है।
मक्का कहता है कि मैं मनुष्य का प्रागैतिहासिक काल का साथी हूं। आग की खोज के पहले ही वह मुझे खाने के काम में लाता था। मेरा उपयोग रोटी, महेरी, फूटा आदि कई पकवानों में होता है । यदि भुट्टों को भूंज कर खाया जाय तो स्वाद में लाजवाब।
बाबूलाल दाहिया देशी अनाजों के महत्व के बारे में बताते हैं कि मौसम बदलाव के कारण यह जरूरी हो गया है कि हम अपनी मिट्टी पानी में वर्षों से विकसित बीजों को बचाएं। इनसे ही हमारी खेती बच सकती है। वे बताते हैं कि हमारे देश में 1965 में करीब 1 लाख 10 हजार धान की प्रजातियां थीं लेकिन वर्तमान में केवल 2 हजार ही धान की प्रजातियां बची हुई हैं। देशी व परंपरागत धान की कई ऐसी प्रजातियां थी जो प्रतिकूल मौसम में भी पककर तैयार हो जाती थी। इनमें कई कीट प्रतिरोधी थी।
मोटे अनाजों की श्रेणी में मुख्यतः कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, बाजरा, मेड़िया, मक्का आदि अनाज माने जाते हैं। हमारे देश मे इन की खेती लगभग हजारों वर्षों से होती चली आ रही है। जब मनुष्य ने आग की खोज नहीं की थी और इन अनाजों को पका कर खाने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी तब मनुष्य के खानपान में फल, फूल कंद और मांस ही मुख्यतः शामिल थे। उन दिनों यह सभी अनाज घास के रूप में चिन्हित थे। पर आग की खोज के पश्चात मनुष्य इन अनाजों को कूट पीस और भून पकाकर खुद खाने लगा।
आज की हाईब्रीड बीजों का कार्यकाल दो से तीन वर्ष होता है। इसके साथ ही उन्हें महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। इन हाईब्रीड किस्मों को उगाने हर वर्ष पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। क्योंकि ये फसलें यहां की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
वे बताते हैं कि 90 के दशक में हमारे विंध्य क्षेत्र में कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल और अलसी आदि की खेती होती थी। इन फसलों में मौसम की मार सहने की अद्भुत क्षमता थी। ऋतुओं के साथ-साथ संचालित होने के कारण आगे पीछे फसलें पक जाती थीं। कोदो-कुटकी को तो 90 साल तो अकाल और दुर्भिक्ष के मौके के लिए सुरक्षित रखा जाता था।
रासायनिक बेतहाशा इस्तेमाल के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। मौसम बदलाव के कारण हर साल कभी सूखा और अधिक, अनियमित बारिश से फसलें खराब हो रही हैं। इसलिए हमें यहां की मिट्टी, पानी और आबोहवा के अनुकूल देशी अनाजों को बचाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। हमें देशी बीजों की परंपरागत खेती की ओर लौटने पर विचार करना चाहिए, यही हमें खेती के संकट से निजात दिलाने में सहायक होगी।
गुजरात विद्यापीठ के बेहतरीन कार्यकर्ताओं और शिक्षकों में से एक ने ग्राम और ब्लॉक स्तर के सरकारी अधिकारियों के रवैये को लेकर पिछले दिनों चिंता जाहिर की थी। इन अधिकारियों को व्यक्तिगत शौचालय निर्माण और उसके लिए धन की व्यवस्था के बारे में प्रस्ताव संभावित लाभार्थियों द्वारा दिए गए थे। लेकिन उन्होंने इस बात को ही नकार दिया कि उन्हें ऐसे प्रस्ताव मिले हैं।
हमारी स्वयं से की गई प्रतिबद्धता की वजह से ही शौचालय के निर्माण को संधि रूप से प्रोत्साहित करने के लिए विद्यापीठ शामिल है। यह संकल्प श्री नारायण देसाई की 108वीं गांधी कथा (भारतीय परंपरा के अनुसार पौराणिक कथाएं सार्वजनिक तौर पर सुनाई जाती हैं। गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति नारायण देसाई (गांधीजी की कहानियों को उसी तरह सुनाया करते थे) के बाद किया गया था।
सफाई की छूत-अछूत
दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्वच्छ भारत’ का आगाज करने के उपक्रम में हमने भाजपा नेता, अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी कर्मचारियों व आम आदमी के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी के नेता व कार्यकर्ताओं को ही शामिल देखा। दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या यह नई तरह की राजनीति नहीं है?महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति और सत्ता की जगह स्वराज और सत्याग्रह जैसे नए शब्द देकर नए तरह की राजनीति पैदा करने की कोशिश की थी।
क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है? राजीव शुक्ला ने इस अभियान को अच्छी पहल कहा। किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस पार्टी को गांधी के सपने के लिए हाथ में झाड़ू थामने से गुरेज करने की जरूरत थी? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या स्वयं महात्मा गांधी को अच्छा लगता? आइये, अपने दिमाग के जालों को साफ करें; जवाब मिल जाएगा।
मोहन का सपना, मोदी का मिशन
12 वर्षीय मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है? वह और घर वाले खुद अपना पाखाना साफ क्यों नहीं करते? किंतु क्या आज 133 बरस बाद भी हम यह सोच पाए? जातीय भेदभाव और छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास, ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती।
विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में अपना पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था। मौका था, दीक्षांत समारोह का; बोलना था शिक्षा पर, गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। उन्होंने कहा कि यदि अभी कोई अजनबी आ जाए, तो वह हिंदुओं के बारे में क्या सोचेगा?
यह बात 100 बरस पुरानी है। आज 100 बरस बाद भी हिंदू समाज अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाए। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया? मायावती ने सफाई कर्मी की नौकरी को बाकि दूसरी जातियों के लिए खोलकर छुआछूत की खाई को पाटने का एक प्रयोग किया था। वह आगे न बढ़ सका। ऐसे में यदि आज उसी बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया है, तो क्या बुरा किया?
बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन-जन को यदि मोदी यह बता सकें कि राष्ट्रपिता की जन्मतिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी-सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आत्मप्रयोग करने के लिए भी होती है; तो क्या यह आह्वान नकार देने लायक है? भारत की सड़कों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और गंदी बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस बाबत् की किसी भी सकारात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए।
प्रतीकों से आगे जाएगी पहल
यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी; कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोड़ रुपए का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत् धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों के लिए जुर्माना। 2019 तक 11 करोड़, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों में प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपए की राशि।
शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला एवं बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है।
शौचालय, स्वच्छता और सावधानी
हालांकि, यदि यह कार्यक्रम सिर्फ शौचालयों तक सीमित रहा, तो ‘स्वच्छ भारत’ की सफलता भी सीमित ही रह जाएगी। संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। ऐसा न हो। शौचालय, निस्संदेह हमारी सांस्थानिक, सार्वजनिक, शहरी और शहरीकृत ग्रामीण आबादी की एक जरूरी जरूरत हैं।
इस जरूरत की पूर्ति भी निस्संदेह, एक बड़ी चुनौती है। पैसा जुटाकर हम इस चुनौती से तो निबट सकते हैं। किंतु सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते सभी शौचालयों से निकलने वाले मल को निपटा नहीं सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। गांधी जी ने गांवों में गंदगी का निपटारा करने के लिए कभी शौचालयों की मांग की हो; मेरे संज्ञान में नहीं है। वह खुले शौच को मिट्टी डालकर ढक देने के पक्ष में थे।
भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। यदि हम इसका ठीक से निष्पादन करें, तो इतने कचरे से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है। उचित नियोजन और सभी के संकल्प से यह किया जा सकता है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनाएं। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन यदि यह संभव कर सका, तो सफाई की सौगात दूर तक जाएगी। वाल्मीकि बस्ती के परिसर में प्रधानमंत्री जी ने जिस शौचालय का फीता काटकर लोकार्पण किया था, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती हैं। यदि हमने भिन्न भू-सांस्कृतिक विविधता की अनुकूल तकनीकों को नहीं अपनाया अथवा हर शौचालय को सीवेज पाइपलाइन आधारित बनाने की गलती की, तो सवाल फिर उठेंगे। न निपट पाने वाला मल, हमारे भूजल और नदियों को और मलीन करेगा; साथ ही हमें भी।
ठोस कचरे की चुनौती
इस चुनौती में हमें औद्योगिक कचरे के अलावा अन्य ठोस कचरा निपटान को भी शामिल कर लेना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने अभी हाल ही में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, तो हम ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। कचरे का निष्पादन उसके स्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। कचरे का सर्वश्रेष्ठ निष्पादन विशेषज्ञता, सुनियोजन, कड़े कानून, क्रियान्वयन में बेहद सख्त अनुशासन तथा प्रेरणा की भी मांग करता है। यह किए बगैर ‘स्वच्छ भारत’ की कल्पना मुश्किल है।
रोजी छूटे न
पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ‘वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरू किया गया साबित हुआ, तो तारीफ करने से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर लुढ़क रही हैै। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी को ठेंगा देखने की नौबत न आए; यह सुनिश्चित करना होगा।
आज भारत, दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। भारत, दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर बुलाकर खुश होने वाला देश है। भारत अब एक ऐसा देश भी हो गया है, जो पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलीन करने में यकीन रखता है और फिर मलीनता को साफ करने के लिए कर्जदार होने में। आइये, हम इस ककहरा को उलट दें। हम यह सुनिश्चित करें किं ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो।
सफाई बने सौगात
एक आकलन के मुताबिक, भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। यदि हम इसका ठीक से निष्पादन करें, तो इतने कचरे से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है।
उचित नियोजन और सभी के संकल्प से यह किया जा सकता है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनाएं। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन यदि यह संभव कर सका, तो सफाई की सौगात दूर तक जाएगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
व्यापक मलीनता को व्यापक शुचिता की दरकार
हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रहों को सामने रख गांधी द्वारा किए आत्मप्रयोग और संपूर्ण सपने को सामने रखेंगे, तो हमें बात मलीन राजनीति, मलीन अर्थव्यवस्था, मलीन तंत्र, मलीन नदियां, हवा, भूमि, भ्रष्टाचार, बीमार अस्पताल, बलात्कार, पोर्न और नशे से लेकर हमारी मलीन मानसिकता के कई पहलुओं की करनी होगी; किंतु गांधी ने सफाई करने वालों के बारे में हमारे समाज की जिस मलीनता को दूर करने का संदेशा दिया था, उसका उल्लेख किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा।
आइए, हम सभी भंगी बने
गांधी ने सफाई करने के काम को अलग पेशा मानने वाले समाज को दोषपूर्ण करार दिया था। वह मानते थे कि यह भावना हम सब के मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए कि हम सब भंगी हैं। इसका सबसे आसान तरीका यह बताया था कि हम अपने शारीरिक श्रम का आरंभ पाखाना साफ करके करें।
शहरों की स्वच्छता को निगम पार्षदों द्वारा सेवा भाव से लेने की हिदायत देते हुए गांधी जी ने उनसे अपेक्षा की थी कि वे अपने को भंगी कहने में गौरव का अनुभव करेंगे। गौर कीजिए, उनका लक्ष्य सिर्फ सफाई अथवा सफाई वाला वर्ग नहीं था। वह चाहते थे कि इसके जरिए हम धर्म को एक निराले ढंग से समझें व स्वीकारने योग्य बन जाएं। दुआ कीजिए कि ‘स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम निजी और सार्वजनिक ही नहीं, बल्कि धर्म और जाति की मलीन खाइयों को पाट सकें। इससे महात्मा जी का सपना भी पूरा हो जाएगा और मोदी का मिशन भी।
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तालाबों के लिए देशी अनाजों को भी बचाना होगा
यह बीज महोत्सव के मौके पर आयोजित पोस्टर प्रदर्शनी का हिस्सा है। यह कार्यक्रम 20-21 सितंबर को सतना में आयोजित किया गया था। इसे परंपरागत देसी बीज अनाज बीज महोत्सव समिति ने आयोजित किया था।
इस अवसर पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें देशी अनाजों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था। कुटकी, सांवा, ज्वार, मक्का, जौ, कठिया, बाजरा, आदि अनाजों की कहानी आकर्षण का केंद्र थी।
बीज महोत्सव के संयोजक सतना जिले के एक छोटे किसान बाबूलाल दाहिया हैं, जो न केवल देशी बीजों के संरक्षण-संवर्धन में लगे हैं बल्कि इस धरोहर को लोक व्यवहार में लाने के लिए सतत प्रयासरत हैं। वे स्कूली बच्चों के बीच पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के कार्यक्रम तो करते हैं, किसान और नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं।
बाबूलाल दाहिया सतना जिले की उचेहरा विकासखंड के पिथौराबाद गांव में रहते हैं। वे बघेली के साहित्यकार हैं और जब उन्हें लगा लोक भाषा, लोक साहित्य के साथ लोक अनाज भी बचाने की जरूरत है तब से वे देशी अनाजों के संरक्षण में लगे हैं।
सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै
आज उनके पास देशी धान की करीब 110 किस्में हैं जिनको वे छोटे-छोटे भूखंड में हर साल उगाते हैं और बीज संरक्षण करते हैं। धान के अलावा, अन्य देशी अनाजों की किस्में भी हैं।
प्रदर्शनी में सांवा के बारे में पोस्टर कहता है कि- मैं सभी अनाजों का ज्येष्ठ भ्राता हूं। क्योंकि मैं भोजन से त्रस्त गरीब किसान को शीघ्र पककर उसे राहत पहुंचाता हूं। अगर किसान मानसूनी वर्षा के तुरंत बाद एक बार खेत में हल्की जुताई कर मेरे बीज बिखेर दें और एक दो पानी और मिल जाए तो मेरी फसल डेढ़ माह में पक जाती है। फिर चाहे मेरी आप रोटी खाएं चाहे भात। तभी तो लोग मेरे बारे में कहते हैं-सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै।
तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी
कुटकी कहती है कि मैं सिर्फ तीन पखवाड़े में पक जाने वाला छोटा अनाज हूं। इसलिए लोग मेरे बारे में कहते हैं कि तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी। मेरी खिचड़ी या दूध के साथ पकाई गई खीर स्वाद में लाजवाब होती है। मैं अनेक औषधीय गुणों से परिपूर्ण हूं। पर मेरी गिनती खेती में नहीं की जाती है जैसे बकरी पालन को धन नहीं माना जाता। इसलिए कहते हैं- कुटकी खेती न म्यावधन।
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार...
ज्वार बोलती है कि मेरी लाल और मटमैले रंगों वाली लगभग बारह प्रजातियां थी। मेरी तासीर गर्म होने के कारण लोग मुझे कार्तिक से फागुन तक अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते थे। कभी रोटी, कभी दलिया और कभी लाई के रूप में उपयोग करते थे।
हम अपने पारंपरिक तालाब, गढ़री, जोहड़, बावड़ी, चाल और खाल को बचाना चाहते हैं तो हमें अपने देशी (स्थानीय) अनाजों की किस्मों को भी बचाना या उन्हे पुनजीर्वित करना होगा क्योंकि देशी अनाज कम से कम पानी पाकर अपने को तैयार कर लेते हैं। मैं असाढ़ में बोने के पश्चात कार्तिक में पक कर आ जाती हूं। मेरी फसल को दूर-दूर अंतराल में बोने की परंपरा है। इसलिए मेरे साथ अरहर, तिल, अवारी, मूूंग उड़द, भिंडी, खीरा, ककड़ी और बरबटी आदि कई की मिलवां खेती की जा सकती है। कहावत भी कही गई है किः-
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार,
जो जन ऐसा बोइ है उनके भरे कुठार।
इसी प्रकार कठिया गेहूं की कहानी दर्ज थी। मेरा नाम कठिया गेहूं है। रंग में लाल और खाने में स्वादिष्ट होने के कारण लोगों के दिल दिमाग में मेरी आज तक पैठ बनी हुई है। मेरा हलवा लाजवाब होता है। मैं बगैर सिंचाई पकने वाली प्रजाति हूं पर बौनी जाति के मेरे अन्य विदेशी स्वजातीय भाईयों की घुसपैठ के कारण दिन प्रतिदिन मेरा रकबा सिमटता जा रहा है। अब मेरी खोज खबर सिर्फ बीमार लोग ही करते देखे गए हैं।
मैं जौ हूं। खाने में भले ही गेंहू की तरह कोमल और स्वादिष्ट लगूं पर मैं मनुष्य का बहुत पुरानी साथी हूं। मनुष्य ने अनाज के रूप में सब से पहले मेरी और तिल की ही पहचान की थी यही कारण है कि सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमो में आज भी मेरी पूंछ परख है। अब मेरा उपयोग मनुष्य के खाने में नहीं, भैंस को खिलाने मे किया जाता है।
मक्का कहता है कि मैं मनुष्य का प्रागैतिहासिक काल का साथी हूं। आग की खोज के पहले ही वह मुझे खाने के काम में लाता था। मेरा उपयोग रोटी, महेरी, फूटा आदि कई पकवानों में होता है । यदि भुट्टों को भूंज कर खाया जाय तो स्वाद में लाजवाब।
बाबूलाल दाहिया देशी अनाजों के महत्व के बारे में बताते हैं कि मौसम बदलाव के कारण यह जरूरी हो गया है कि हम अपनी मिट्टी पानी में वर्षों से विकसित बीजों को बचाएं। इनसे ही हमारी खेती बच सकती है। वे बताते हैं कि हमारे देश में 1965 में करीब 1 लाख 10 हजार धान की प्रजातियां थीं लेकिन वर्तमान में केवल 2 हजार ही धान की प्रजातियां बची हुई हैं। देशी व परंपरागत धान की कई ऐसी प्रजातियां थी जो प्रतिकूल मौसम में भी पककर तैयार हो जाती थी। इनमें कई कीट प्रतिरोधी थी।
मोटे अनाजों की श्रेणी में मुख्यतः कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, बाजरा, मेड़िया, मक्का आदि अनाज माने जाते हैं। हमारे देश मे इन की खेती लगभग हजारों वर्षों से होती चली आ रही है। जब मनुष्य ने आग की खोज नहीं की थी और इन अनाजों को पका कर खाने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी तब मनुष्य के खानपान में फल, फूल कंद और मांस ही मुख्यतः शामिल थे। उन दिनों यह सभी अनाज घास के रूप में चिन्हित थे। पर आग की खोज के पश्चात मनुष्य इन अनाजों को कूट पीस और भून पकाकर खुद खाने लगा।
आज की हाईब्रीड बीजों का कार्यकाल दो से तीन वर्ष होता है। इसके साथ ही उन्हें महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। इन हाईब्रीड किस्मों को उगाने हर वर्ष पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। क्योंकि ये फसलें यहां की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
वे बताते हैं कि 90 के दशक में हमारे विंध्य क्षेत्र में कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल और अलसी आदि की खेती होती थी। इन फसलों में मौसम की मार सहने की अद्भुत क्षमता थी। ऋतुओं के साथ-साथ संचालित होने के कारण आगे पीछे फसलें पक जाती थीं। कोदो-कुटकी को तो 90 साल तो अकाल और दुर्भिक्ष के मौके के लिए सुरक्षित रखा जाता था।
रासायनिक बेतहाशा इस्तेमाल के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। मौसम बदलाव के कारण हर साल कभी सूखा और अधिक, अनियमित बारिश से फसलें खराब हो रही हैं। इसलिए हमें यहां की मिट्टी, पानी और आबोहवा के अनुकूल देशी अनाजों को बचाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। हमें देशी बीजों की परंपरागत खेती की ओर लौटने पर विचार करना चाहिए, यही हमें खेती के संकट से निजात दिलाने में सहायक होगी।
गांधीजी और स्वच्छता
गुजरात विद्यापीठ के बेहतरीन कार्यकर्ताओं और शिक्षकों में से एक ने ग्राम और ब्लॉक स्तर के सरकारी अधिकारियों के रवैये को लेकर पिछले दिनों चिंता जाहिर की थी। इन अधिकारियों को व्यक्तिगत शौचालय निर्माण और उसके लिए धन की व्यवस्था के बारे में प्रस्ताव संभावित लाभार्थियों द्वारा दिए गए थे। लेकिन उन्होंने इस बात को ही नकार दिया कि उन्हें ऐसे प्रस्ताव मिले हैं।
हमारी स्वयं से की गई प्रतिबद्धता की वजह से ही शौचालय के निर्माण को संधि रूप से प्रोत्साहित करने के लिए विद्यापीठ शामिल है। यह संकल्प श्री नारायण देसाई की 108वीं गांधी कथा (भारतीय परंपरा के अनुसार पौराणिक कथाएं सार्वजनिक तौर पर सुनाई जाती हैं। गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति नारायण देसाई (गांधीजी की कहानियों को उसी तरह सुनाया करते थे) के बाद किया गया था।
महात्मा का सपना, मोदी का मिशन - आइए, हम सभी भंगी बने
सफाई की छूत-अछूत
दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्वच्छ भारत’ का आगाज करने के उपक्रम में हमने भाजपा नेता, अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी कर्मचारियों व आम आदमी के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी के नेता व कार्यकर्ताओं को ही शामिल देखा। दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या यह नई तरह की राजनीति नहीं है?महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति और सत्ता की जगह स्वराज और सत्याग्रह जैसे नए शब्द देकर नए तरह की राजनीति पैदा करने की कोशिश की थी।
क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है? राजीव शुक्ला ने इस अभियान को अच्छी पहल कहा। किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस पार्टी को गांधी के सपने के लिए हाथ में झाड़ू थामने से गुरेज करने की जरूरत थी? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या स्वयं महात्मा गांधी को अच्छा लगता? आइये, अपने दिमाग के जालों को साफ करें; जवाब मिल जाएगा।
मोहन का सपना, मोदी का मिशन
12 वर्षीय मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है? वह और घर वाले खुद अपना पाखाना साफ क्यों नहीं करते? किंतु क्या आज 133 बरस बाद भी हम यह सोच पाए? जातीय भेदभाव और छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास, ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती।
विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में अपना पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था। मौका था, दीक्षांत समारोह का; बोलना था शिक्षा पर, गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। उन्होंने कहा कि यदि अभी कोई अजनबी आ जाए, तो वह हिंदुओं के बारे में क्या सोचेगा?
यह बात 100 बरस पुरानी है। आज 100 बरस बाद भी हिंदू समाज अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाए। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया? मायावती ने सफाई कर्मी की नौकरी को बाकि दूसरी जातियों के लिए खोलकर छुआछूत की खाई को पाटने का एक प्रयोग किया था। वह आगे न बढ़ सका। ऐसे में यदि आज उसी बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया है, तो क्या बुरा किया?
बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन-जन को यदि मोदी यह बता सकें कि राष्ट्रपिता की जन्मतिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी-सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आत्मप्रयोग करने के लिए भी होती है; तो क्या यह आह्वान नकार देने लायक है? भारत की सड़कों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और गंदी बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस बाबत् की किसी भी सकारात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए।
प्रतीकों से आगे जाएगी पहल
यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी; कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोड़ रुपए का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत् धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों के लिए जुर्माना। 2019 तक 11 करोड़, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों में प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपए की राशि।
शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला एवं बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है।
शौचालय, स्वच्छता और सावधानी
हालांकि, यदि यह कार्यक्रम सिर्फ शौचालयों तक सीमित रहा, तो ‘स्वच्छ भारत’ की सफलता भी सीमित ही रह जाएगी। संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। ऐसा न हो। शौचालय, निस्संदेह हमारी सांस्थानिक, सार्वजनिक, शहरी और शहरीकृत ग्रामीण आबादी की एक जरूरी जरूरत हैं।
इस जरूरत की पूर्ति भी निस्संदेह, एक बड़ी चुनौती है। पैसा जुटाकर हम इस चुनौती से तो निबट सकते हैं। किंतु सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते सभी शौचालयों से निकलने वाले मल को निपटा नहीं सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। गांधी जी ने गांवों में गंदगी का निपटारा करने के लिए कभी शौचालयों की मांग की हो; मेरे संज्ञान में नहीं है। वह खुले शौच को मिट्टी डालकर ढक देने के पक्ष में थे।
भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। यदि हम इसका ठीक से निष्पादन करें, तो इतने कचरे से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है। उचित नियोजन और सभी के संकल्प से यह किया जा सकता है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनाएं। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन यदि यह संभव कर सका, तो सफाई की सौगात दूर तक जाएगी। वाल्मीकि बस्ती के परिसर में प्रधानमंत्री जी ने जिस शौचालय का फीता काटकर लोकार्पण किया था, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती हैं। यदि हमने भिन्न भू-सांस्कृतिक विविधता की अनुकूल तकनीकों को नहीं अपनाया अथवा हर शौचालय को सीवेज पाइपलाइन आधारित बनाने की गलती की, तो सवाल फिर उठेंगे। न निपट पाने वाला मल, हमारे भूजल और नदियों को और मलीन करेगा; साथ ही हमें भी।
ठोस कचरे की चुनौती
इस चुनौती में हमें औद्योगिक कचरे के अलावा अन्य ठोस कचरा निपटान को भी शामिल कर लेना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने अभी हाल ही में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, तो हम ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। कचरे का निष्पादन उसके स्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। कचरे का सर्वश्रेष्ठ निष्पादन विशेषज्ञता, सुनियोजन, कड़े कानून, क्रियान्वयन में बेहद सख्त अनुशासन तथा प्रेरणा की भी मांग करता है। यह किए बगैर ‘स्वच्छ भारत’ की कल्पना मुश्किल है।
रोजी छूटे न
पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ‘वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरू किया गया साबित हुआ, तो तारीफ करने से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर लुढ़क रही हैै। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी को ठेंगा देखने की नौबत न आए; यह सुनिश्चित करना होगा।
आज भारत, दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। भारत, दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर बुलाकर खुश होने वाला देश है। भारत अब एक ऐसा देश भी हो गया है, जो पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलीन करने में यकीन रखता है और फिर मलीनता को साफ करने के लिए कर्जदार होने में। आइये, हम इस ककहरा को उलट दें। हम यह सुनिश्चित करें किं ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो।
सफाई बने सौगात
एक आकलन के मुताबिक, भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। यदि हम इसका ठीक से निष्पादन करें, तो इतने कचरे से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है।
उचित नियोजन और सभी के संकल्प से यह किया जा सकता है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनाएं। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन यदि यह संभव कर सका, तो सफाई की सौगात दूर तक जाएगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
व्यापक मलीनता को व्यापक शुचिता की दरकार
हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रहों को सामने रख गांधी द्वारा किए आत्मप्रयोग और संपूर्ण सपने को सामने रखेंगे, तो हमें बात मलीन राजनीति, मलीन अर्थव्यवस्था, मलीन तंत्र, मलीन नदियां, हवा, भूमि, भ्रष्टाचार, बीमार अस्पताल, बलात्कार, पोर्न और नशे से लेकर हमारी मलीन मानसिकता के कई पहलुओं की करनी होगी; किंतु गांधी ने सफाई करने वालों के बारे में हमारे समाज की जिस मलीनता को दूर करने का संदेशा दिया था, उसका उल्लेख किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा।
आइए, हम सभी भंगी बने
गांधी ने सफाई करने के काम को अलग पेशा मानने वाले समाज को दोषपूर्ण करार दिया था। वह मानते थे कि यह भावना हम सब के मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए कि हम सब भंगी हैं। इसका सबसे आसान तरीका यह बताया था कि हम अपने शारीरिक श्रम का आरंभ पाखाना साफ करके करें।
शहरों की स्वच्छता को निगम पार्षदों द्वारा सेवा भाव से लेने की हिदायत देते हुए गांधी जी ने उनसे अपेक्षा की थी कि वे अपने को भंगी कहने में गौरव का अनुभव करेंगे। गौर कीजिए, उनका लक्ष्य सिर्फ सफाई अथवा सफाई वाला वर्ग नहीं था। वह चाहते थे कि इसके जरिए हम धर्म को एक निराले ढंग से समझें व स्वीकारने योग्य बन जाएं। दुआ कीजिए कि ‘स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम निजी और सार्वजनिक ही नहीं, बल्कि धर्म और जाति की मलीन खाइयों को पाट सकें। इससे महात्मा जी का सपना भी पूरा हो जाएगा और मोदी का मिशन भी।
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