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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Hindi on Sun, 10/05/2014 - 11:07
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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 05 अक्टूबर 2014
संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए एक भाषण के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से एक शख्स ने देश भर में कम्प्यूटर और संचार क्रांति की मुनादी पीटते हुए पीठ थपथपाने के सपनों के बीच यह पूछा कि क्या उन्हें पता है कि उनके देश के ग्रामीण इलाकों के कितने फीसदी घरों में शौचालय है।
Submitted by Shivendra on Sat, 10/04/2014 - 10:44
Source:
Polluted ganga

गंगा, आदिकाल से स्वच्छ जल का अमूल्य स्रोत और प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग रही है। इसके अलावा, आर्य संस्कृति के विकास की कहानी भी किसी हद तक गंगा के पानी के समावेशी अवदान की कहानी है। उसके निर्मल जल ने, एक ओर यदि समाज की निस्तार, आजीविका तथा खेती की आवश्यकताओं को पूरा किया है तो दूसरी ओर गंगाजल की पवित्रता ने उसे धार्मिक अनुष्ठानों में अनिवार्य बनाया है।

वह कछार की जीवंत जैविक विविधता, हमारी सांस्कृतिक विरासत और अटूट आस्था तथा देश की लगभग 43 प्रतिशत आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति का विश्वसनीय आधार है। भारत सरकार द्वारा 1990 में प्रकाशित नेशनल वाटरशेड एटलस के अनुसार गंगा नदी तंत्र में 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट और 22 कैचमेंट हैं। ये कैचमेंट मुख्यतः हिमालय, अरावली और विन्ध्याचल पर्वतमाला में स्थित हैं तथा उनसे निकलने वाली नदियाँ अपने से बड़ी नदी से मिलकर अंततः गंगा में समा जाती हैं। हिमालयीन नदियों को बर्फ के पिघलने से गर्मी के मौसम में अतिरिक्त पानी मिलता है पर अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत से निकलने वाली नदियों का मुख्य स्रोत मानसूनी वर्षा है।

पिछले कुछ सालों से गंगा की निर्मल और अविरल धारा पर संकट गहरा रहा है। यह संकट बढ़ते प्रदूषण और घटते जल प्रवाह का है। यह संकट, भले ही नदी तंत्र के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग हो पर हकीकत में वह पूरे नदी तंत्र का संकट है। इसे ध्यान में रख 1986 में भारत सरकार ने गंगा एक्शन प्लान प्रारंभ किया था। भारत सरकार ने फरवरी 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्रदान कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की और अगस्त 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन कर अभियान के दूसरे चरण को प्रारंभ किया था।

इन अभियानों का ध्येय, गंगा को सीधे-सीधे मिलने वाले प्रदूषित जल को उपचारित कर, गंगा के पानी की निर्मलता की बहाली था। इसके लिए सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए थे पर घोषणाओं, अभियानों, कार्यक्रमों, सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों और बजट के बावजूद गंगा का प्रदूषण कम नहीं हुआ। प्रदूषण का चिंताजनक पक्ष यह है कि वह उन नए-नए स्थानों पर भी गंभीर हो रहा है जहां, पूर्व में, उसकी आहट भी नहीं थी। लगता है, पूरा नदी तंत्र प्रदूषण की चपेट में है।

गंगा एक्शन प्लान के दोनों चरणों का सारा प्रयास, किसी हद तक, गंगा नदी के प्रदूषित हिस्सों में सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने तक सीमित था। इस अवधि में बजट तो लक्ष्य पूरे हुए किंतु गंगा का प्रदूषण बढ़ता गया। बढ़ते प्रदूषण के बावजूद कार्यक्रम की दिशा यथावत रही। विदेह दृष्टि या अनदेखी के कारण गंगा के समूचे नदीतंत्र में हो रहे बदलावों की अनदेखी हुई।

बढ़ते प्रदूषण, घटते गैर-मानसूनी जल प्रवाह और बदलावों की अनदेखी ने संकट को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया। गहराते संकट की पृष्टभूमि में जरूरी है कि नमामि गंगा अभियान को आगे बढ़ाते समय पिछली रणनीति तथा दृष्टिबोध की समीक्षा की जाए और गलतियों से बचा जाए। इस क्रम में सबसे पहले नदी तंत्र को समझने का प्रयास किया जाए।

प्रकृति ने वर्षा को धरती को संवारने तथा परिमार्जित करने का काम सौंपा है इसलिए बरसात के दौरान जो कचरा या मलबा निकलता है, वर्षा, उसे बहा कर ले जाती है तथा नदी को सौंप देती है। हर नदी का प्राकृतिक दायित्व उसे बहाकर समुद्र तक ले जाना है। हर नदी यह काम, प्रकृति द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलकर पूरा करती है। यह काम साल भर चलता है।

इस तरीके से धरती का अवांछित कचरा समुद्र में पहुँच जाता है। यही काम गंगा नदी का तंत्र करता है। वह हिमालय, अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत माला से कचरा एकत्रित कर गंगा की मुख्य धारा को सौंप देता है। गंगा की मुख्य धारा उसे बंगाल की खाड़ी को सौंप देती है। इसके अतिरिक्त गंगा कछार की उथली परतों की साफ-सफाई का काम बरसात बाद भी चलता रहता है।

धरती की परतों में रिसा पानी उथली परत में आश्रय पाता है। यही उथली परतें गंगा और उसकी सहायक नदियों को पानी सप्लाई करती है और घुलनशील रसायनों को हटाने का काम पूरे साल चलता है लेकिन यह काम केवल उस समय तक संभव है, जब तक भूजल का स्तर नदी तल के ऊपर होता है। यही नदियों के प्रवाह की आवश्यकता तथा उसकी निरंतरता का उद्देश्य है। यही निरंतरता गंगा कछार को साफ रखती है। भूजल स्तर की गिरावट गंगा की प्राकृतिक भूमिका को खंडित करती है।

पिछले कुछ सालों से गंगा की निर्मल और अविरल धारा पर संकट गहरा रहा है। यह संकट बढ़ते प्रदूषण और घटते जल प्रवाह का है। यह संकट, भले ही नदी तंत्र के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग हो पर हकीकत में वह पूरे नदी तंत्र का संकट है। इसे ध्यान में रख 1986 में भारत सरकार ने गंगा एक्शन प्लान प्रारंभ किया था। भारत सरकार ने फरवरी 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्रदान कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की और अगस्त 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन कर अभियान के दूसरे चरण को प्रारंभ किया था। गंगा नदी तंत्र में मौजूद रेत की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण है। वह, बाढ़ के पानी का आंशिक संचय कर बाढ़ का नियमन करती है। अतिरिक्त पानी को नदी तंत्र को सौंप कर जल प्रवाह में निरंतरता पैदा करती है। वह, गंगा कछार की उथली परतों के रसायनों को हटाने में मदद देती है। रेत की परतों से पानी का लगातार मिलना, जलप्रवाह को टिकाऊ बनाता है। इस व्यवस्था को रेत के कणों की जमावट क्षमता प्रदान करती है। नदी विज्ञान की यही जानकारी गंगा नदी-तंत्र को अविरल बनाने के लिए आवश्यक है।

नमामि गंगा मिशन
केन्द्र सरकार द्वारा ‘नमामि गंगा’ के नाम से नए एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन की स्थापना की गई है। गंगा की प्रतिष्ठा तथा समाज की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस मिशन को समूचे गंगा नदी तंत्र में प्रवाह की निरंतरता, जल में निर्मलता, प्राकृतिक दायित्वों का बाधा रहित निर्वाह और पर्यावरणीय आवश्यकताओं को पूरा करना होगा।

अविरल गंगा: निर्मल गंगा के एक्शन प्लान की प्रस्तावित चरणबद्ध प्रक्रिया
सन् 1986 से अब तक दोनों गंगा एक्शन प्लान एक समयबद्ध कार्यक्रम की तरह संचालित किए गए थे। विदित है कि अभियान या कार्यक्रम फौरी जरूरतों की पूर्ति के लिए ही उपयुक्त होते हैं।

उनकी अवधि बीतने के बाद, उनका नामलेवा भी नहीं बचता। उनको क्रियान्वित करने वाला विभाग भी शेष जिम्मेदारियों को पूरा करने में लग जाता है इसलिए अभियानों या कार्यक्रमों का प्रभाव तथा परिणाम सीमित और अस्थाई होते हैं। इसलिए नमामि गंगा अभियान को कार्यक्रम या अभियान की शक्ल में संचालित नहीं किया जाए। प्रस्तावित है कि सबसे पहले नदी विज्ञान के सिद्धांतों, जिनकी ऊपर संक्षेप में चर्चा की गई है, को ध्यान में रख नदी नीति बनाई जाए।

नदी नीति का उद्देश्य केन्द्र स्तर पर दिशाबोध देने तथा राज्य स्तर पर दिशाबोध की फिलासफी को जमीन पर उतारने के लिए होगा। राज्य की क्रियान्वयन ऐजेंसी को परिणामों के लिए उत्तरदायी बनाना होगा। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने बिना नदी नीति निर्धारण के जल संसाधन विभाग के अंतर्गत नमामि गंगा मिशन का गठन कर काम प्रारंभ करने का निर्णय लिया है। इस कारण, पुराने इतिहास को दोहराने में बहुत देर नहीं लगेगी। इस अनुक्रम में पहला सुझाव है कि सबसे पहले राष्ट्रीय और राज्य नदी नीतियों का गठन किया जावे फिर नदी नीति के मार्गदर्शी कदमों के आधार पर कार्ययोजनाएं बनाई जाएं।

1. अविरल प्रवाह तथा जलप्रवाह में वृद्धि
स्वस्थ नदी तंत्र की आवश्यकता अविरल प्रवाह होती है इसलिए मझोली तथा बड़ी नदियों पर बांधों तथा बैराजों का निर्माण नदी विज्ञान के प्रतिकूल है। सिद्धांततः बांधों और बैराजों की फिलासफी में कोई खास अंतर नहीं होता। दोनों के परिणाम भी लगभग एक जैसे होते हैं। बांधों के कारण नदी का प्राकृतिक जलप्रवाह खंडित होता है। नदी के प्राकृतिक प्रवाहों के खंडित होने के कारण परिवहित मलबा तथा पानी में घुले रसायन बांध में जमा होने लगते हैं।

परिणामस्वरूप कुछ सालों बाद, बांध के पानी के प्रदूषित होने तथा जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर पर्यावणीय खतरों की संभावना बढ़ जाती है। कार्बनिक पदार्थों और बांध के पानी में पनपने वाली वनस्पतियों के ऑक्सीजनविहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बनती है जो जलवायु परिवर्तन तथा तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार होती है। जल प्रवाह वृद्धि के लिए समूचे गंगा नदी तंत्र में एक साथ प्रयास करना होगा। इसके लिए नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्शाई गंगा नदी तंत्र की पांचों हाइड्रोलॉजिकल इकाईयों के लिए कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। विदित है कि गंगा नदी तंत्र में 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट और 22 कैचमेंट हैं। सभी, 836 वाटरशेड इकाईयों से एक साथ समानुपातिक भूजल संवर्धन कार्यक्रमों को प्रारंभ करना होगा और प्रवाह की माप, विभिन्न हाईड्रोलॉजिकल इकाईयों के निकास बिंदु पर करना होगा।

यह माप 836 वाटरशेड से प्रारंभ होकर उत्तरोत्तर बढ़ते क्रम में 22 कैचमेंटों के निकास बिंदु पर समाप्त होगी। इसके अतिरिक्त, सीवर ट्रीटमेंट प्लांट्स द्वारा उपचारित जल निकास बिंदुओं पर उनके योगदान की माप ली जानी चाहिए। यह माप, गुणवत्ता माप का अभिन्न हिस्सा होगा। प्रवाह वृद्धि/बहाली के लिये समावेशी कैचमेंट उपचार (भूजल स्टोरेज क्षमता वृद्धि द्वारा भूजल योगदान बढ़ाने, भूमि कटाव रोकने, हरितमा वृद्धि करने इत्यादि), समूचे नदी तंत्र में समानुपातिक भूजल प्रबंध करने, समानुपातिक भूजल रीचार्ज और रेत के खनन को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, नदी नीति के आधार पर योजनाओं का स्वरूप तय करते समय जलवायु बदलाव के संभावित प्रभावों को ध्यान में रखना होगा तथा तदानुसार गतिविधियों को धारदार बनाने की आवश्यकता है।

टिकाऊ तथा समानुपातिक परिणामों के लिए जनोन्मुखी नोडल विभाग का गठन किया जाए। उसे प्रशिक्षित कर जिम्मेदारी सौंपी जाए तथा परिणामों के लिए उत्तरदायी बनाया जाए। उल्लेखनीय है कि जल प्रवाह वृद्धि के प्रयासों को सफल बनाने में उच्च स्तरीय संस्थान विफल रहे हैं और नदी तल को खोदकर या काई तथा जलकुंभी निकालकर गंगा के प्रवाह को नहीं बढ़ाया जा सका है इसलिए नमामि गंगा अभियान को संस्थानों के चयन में सावधानी बरतना होगा अन्यथा असफलता के पुराने इतिहास को दोहराने में वक्त नहीं लगेगा।

2. प्रदूषित जल का उपचार, रीसाइकिलिंग तथा उपयोग
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गंगा का प्रदूषण, हरिद्वार से लेकर डायमंड हारबर तक मौजूद है। गंगा के उदगम के निकट स्थित रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग में भी साल-दर-साल प्रदूषण बढ़ रहा है। हरिद्वार, कन्नौज और कानपुर यदि प्रदूषण के हाट-स्पाट हैं तो वाराणसी की स्थिति बेहद चिंताजनक है इसलिए संपूर्ण गंगा नदी तंत्र के प्रदूषित पानी को साफ करने के लिए स्रोत पर सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाना चाहिए। इस हेतु प्रावधान भी किए जा रहे हैं। उम्मीद है, अब सभी प्रदूषक इकाईयों में स्रोत पर ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए जाएंगे। पुराना अनुभव बताता है कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का प्रयोग अपेक्षित परिणाम नहीं दे सका। कई जगह वे अस्तित्व में नहीं आए। कहीं-कहीं उन्होंने आधी-अधूरी सेवा दी। कई जगह उन्होंने दायित्वों की अनदेखी की। हुई। उपर्युक्त कारणों से सीवर ट्रीटमेंट प्लांट व्यवस्था को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है-

सुझाव है कि प्रदूषित पानी पैदा करने वाली संस्था को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। संस्थाएं प्रदूषित पानी को साफ कर स्वतः के उपयोग में लाएगी। उनके उपयोग के बाद बचा पानी उपयोगकर्ताओं को बेचा जाएगा। संस्था के की ट्रीटमेंट प्लांट का बिजली मीटर अलग होगा। वे जल संरक्षण तथा पानी का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग अपनाकर पानी की कमी पूरी करेंगी। सरकार द्वारा उन्हें पृथक से पानी उपलब्ध नहीं कराया जाएगा। अपवाद स्वरूप या अल्प काल के लिए उपचारित जल को नदी या जल स्रोत में छोड़ा जाएगा। इस प्रकार की व्यवस्थाए अनेक देशों में प्रचलन में हैं।

3. निगरानी व्यवस्था
नेशनल वाटरशेड एटलस के आधार पर गंगा नदी तंत्र के लिए पांच स्तरीय डायरेक्टरी बनाकर व्यापक निगरानी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। प्रारंभ में निगरानी तंत्र को 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट, 22 कैचमेंट के निकास बिंदुओं पर मानकों की निगरानी/मापन करना चाहिए। निगरानी व्यवस्था के सुझावों के आधार पर योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए लगातार प्रयास करना होगा।

4. गंगा नदी तंत्र का हेल्थ कार्ड
गंगा नदी तंत्र में मानकों की वस्तुस्थिति दर्शाने के लिए हेल्थ कार्ड व्यवस्था लागू की जाना चाहिए। गंगा नदी तंत्र में प्रस्तावित हेल्थ कार्ड 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट, 22 कैचमेंट के निकास बिंदुओं पर मापी जानकारी अर्थात वस्तुस्थिति को दर्शाएगा। वस्तुस्थिति की जानकारी समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध होना चाहिए। परिणामों के आधार पर नदी शुद्धिकरण तथा प्रवाह बहाली अभियान की दशा तथा दिशा निर्धारित की जाना चाहिए।

5. नदी फ्रंट विकास
पुराना अनुभव बताता है कि जल स्रोतों की सफाई के लिए उपलब्ध बजट का अधिकतम हिस्सा सौन्दर्यीकरण पर खर्च हुआ है इसलिए सुझाव है कि नदी के घाटों के विकास के लिए विधायक, सांसद, एन.आर.आई या दान की राशियों का उपयोग किया जाना चाहिए। इस काम के लिए कारपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी मद में उपलब्ध राशियों का भी उपयोग किया जा सकता है। इस काम को नमामि गंगा मिशन का अंग नहीं बनाया जाना चाहिए।

Submitted by Shivendra on Fri, 10/03/2014 - 11:08
Source:
Krishi
हम टीवी के रूपहले पर्दे पर भील आदिवासियों को रंग-बिरंगी पोषाकों में नाचते हुए देखते हैं और मोहित हो जाते हैं लेकिन जब हम उनसे सीधा साक्षात्कार करते हैं तो उनके कठिन जीवन की असलियत देख-सुनकर वह आकर्षण काफूर हो जाता है।

ऐसा ही अहसास मुझे तब हुआ जब मैं उनसे मिला और उनके दुख-दर्द की कहानियां सुनीं। हाल ही मुझे 31 अगस्त से 3 सितंबर तक पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर में रहने का मौका मिला।

इस दौरान एक भिलाला युवक रेमू के साथ मैं डेढ़ दर्जन गांवों में गया। ये सभी गांव अलीराजपुर जिले में स्थित हैं। इनमें से कुछ हैं-खारकुआ, छोटा उण्डवा, तिति नानपुर, घोंगसा, उन्दरी, हिरापुर,फाटा इत्यादि।

यहां के गांवों में बसाहट घनी नहीं है। एक घर से दूसरे घर की दूरी काफी है। पहाड़ियों की टेकरियों पर बने इनके घर कच्चे और खपरैल वाले हैं। इन घरों को मिलाकर एक फलिया (मोहल्ला) बनता है। घास-फूस व लकड़ियों के घर में दीवारें कच्ची, लकड़ी की और कुछ ईंटों की बनी हैं। मुर्गा- मुर्गी, बकरी और मवेशी भी साथ-साथ रहते हैं।

जमीन ऊंची-नीची ढलान वाली व पहाड़ी है तो कहीं समतल मैदान वाली। पेड़ बहुत कम हैं। जब पेड़ नहीं हैं तो पक्षी भी नहीं। वे पेड़ों पर घोंसला बनाकर रहते हैं या बैठते है। छींद और ताड़ी के पेड़ दिखाई दिए, छातानुमा बहुत सुंदर। इन्हीं पेड़ों से ताड़ी निकाली जाती है। गर्मी में ठंडा के रूप में ताड़ी पी जाती है।

खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी।

जब हम गांवों में पहुंचते तो चरवाहे हमें देखकर दौड़ लगा देते थे या पेड़ों के पीछे छिप जाते। जब हम उनसे किसी का पता-ठिकाना पूछते तो जवाब नहीं देते। फिर रेमू अपनी भीली जुबान में पूछता तो बता देते। गांवों में अधिकांश बुजुर्ग लंगोटी में मिले और कुछ जगह हुक्का वाले भी दिखाई दिए।

यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं।

महिलाएं और पुरूष मिलकर खेती का काम करते हैं। वे खेतों में उड़द और मूंगफली की निंदाई करते हुए दिखे। इसके अलावा, महिलाओं पर घर के काम की पूरी जिम्मेदारी होती है। भोजन पकाना, पानी लाना, ईंधन लाना, साफ-सफाई करना, गाय-बैल, बकरी चराना इत्यादि। बच्चों संभालने का काम तो रहता ही है।

आदिवासियों की जिंदगी उधार के पैसे से चलती है। वे साहूकार व महाजनों से कर्ज लेते हैं। लेकिन अक्सर गरीबी और तंगी के कारण समय पर अदा नहीं कर पाते। कर्ज के बदले गिरवी रखी वस्तु वे वापस नहीं ले पाते।

बारिश नहीं हुई तो फसल भी नहीं। मजबूर होकर लोग काम की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। भोपाल और दिल्ली भी जाते हैं जो खेती और निर्माण कार्य में मजदूरी करते हैं, उन्हें न उचित मजदूरी मिलती है, न वहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं।

पलायन करने वालों में जवान स्त्री-पुरूष सभी हैं। ज्यादातर परिवारों में घर के छोटे खाने-कमाने जाते हैं और बड़े-बूढ़े घर की जिम्मेदारी संभालते हैं।

खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी। यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं। पहले यहां बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था जो इनके जीने का बड़ा आधार था। जंगल से उनका मां-बेटे जैसा संबंध था। वे उससे उतना ही लेते थे जितनी उनको जरूरत होती थी। आदिवासी समाज संग्रह नहीं करते हैं। लेकिन जंगल अब साफ हो चुका है। यहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं। आदिवासियों की हालत के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तलवड़ा बताते हैं कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न कर दिया गया है। बाजार ने हमारी सामूहिकता को तोड़ दिया है। लालच ने एक-दूसरे को सहयोग करने की भावना को खत्म कर दिया।

वे बताते हैं कि फसल चक्र के बदलाव ने हमारे देसी अनाजों को खत्म कर दिया। अब आदिवासी पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया, जहां उसे शोषण का शिकार होने पड़ रहा है। वहीं जीने के लिए उसे बुनियादी सुविधाएं और रोजगार भी नहीं मिल पा रहा है।

भीलों की अस्मिता और संस्कृति खतरे में है। वे बताते हैं कि भीलों का रामायण और महाभारत में भी जिक्र मिलता है। भील बालक एकलव्य धर्नुविद्या में महाभारत के क्षत्रिय नायकों में एक अर्जुन से भी ज्यादा निपुण था। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा गुरूदक्षिणा के बतौर मांग लिया था। भीलों से लेने का सिलसिला आज भी चल रहा है। बडे़ बांध बनाने के लिए आदिवासियों को ही उजाड़ा जा रहा है।

आदिवासियों के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। उनके लिए कई योजनाएं और आयोग बनाए जा चुके हैं। उनकी हालत को लेकर कई रिपोर्टें तैयार की जा चुकी हैं। कानून भी बने। लेकिन आदिवासियों का जीवन दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। सवाल उनकी अस्मिता और संस्कृति का है। खेती-किसानी का है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति कैसे सुधरेगी। उनकी बेहतरी का सवाल भी मौजूं है।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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सबको सन्मति दे भगवान

Submitted by Hindi on Sun, 10/05/2014 - 11:07
Author
योगेश मिश्र
Source
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 05 अक्टूबर 2014
.संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए एक भाषण के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से एक शख्स ने देश भर में कम्प्यूटर और संचार क्रांति की मुनादी पीटते हुए पीठ थपथपाने के सपनों के बीच यह पूछा कि क्या उन्हें पता है कि उनके देश के ग्रामीण इलाकों के कितने फीसदी घरों में शौचालय है।

अविरल गंगा: निर्मल गंगा का एक्शन प्लान

Submitted by Shivendra on Sat, 10/04/2014 - 10:44
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Polluted ganga

. गंगा, आदिकाल से स्वच्छ जल का अमूल्य स्रोत और प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग रही है। इसके अलावा, आर्य संस्कृति के विकास की कहानी भी किसी हद तक गंगा के पानी के समावेशी अवदान की कहानी है। उसके निर्मल जल ने, एक ओर यदि समाज की निस्तार, आजीविका तथा खेती की आवश्यकताओं को पूरा किया है तो दूसरी ओर गंगाजल की पवित्रता ने उसे धार्मिक अनुष्ठानों में अनिवार्य बनाया है।

वह कछार की जीवंत जैविक विविधता, हमारी सांस्कृतिक विरासत और अटूट आस्था तथा देश की लगभग 43 प्रतिशत आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति का विश्वसनीय आधार है। भारत सरकार द्वारा 1990 में प्रकाशित नेशनल वाटरशेड एटलस के अनुसार गंगा नदी तंत्र में 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट और 22 कैचमेंट हैं। ये कैचमेंट मुख्यतः हिमालय, अरावली और विन्ध्याचल पर्वतमाला में स्थित हैं तथा उनसे निकलने वाली नदियाँ अपने से बड़ी नदी से मिलकर अंततः गंगा में समा जाती हैं। हिमालयीन नदियों को बर्फ के पिघलने से गर्मी के मौसम में अतिरिक्त पानी मिलता है पर अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत से निकलने वाली नदियों का मुख्य स्रोत मानसूनी वर्षा है।

पिछले कुछ सालों से गंगा की निर्मल और अविरल धारा पर संकट गहरा रहा है। यह संकट बढ़ते प्रदूषण और घटते जल प्रवाह का है। यह संकट, भले ही नदी तंत्र के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग हो पर हकीकत में वह पूरे नदी तंत्र का संकट है। इसे ध्यान में रख 1986 में भारत सरकार ने गंगा एक्शन प्लान प्रारंभ किया था। भारत सरकार ने फरवरी 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्रदान कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की और अगस्त 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन कर अभियान के दूसरे चरण को प्रारंभ किया था।

इन अभियानों का ध्येय, गंगा को सीधे-सीधे मिलने वाले प्रदूषित जल को उपचारित कर, गंगा के पानी की निर्मलता की बहाली था। इसके लिए सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए थे पर घोषणाओं, अभियानों, कार्यक्रमों, सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों और बजट के बावजूद गंगा का प्रदूषण कम नहीं हुआ। प्रदूषण का चिंताजनक पक्ष यह है कि वह उन नए-नए स्थानों पर भी गंभीर हो रहा है जहां, पूर्व में, उसकी आहट भी नहीं थी। लगता है, पूरा नदी तंत्र प्रदूषण की चपेट में है।

गंगा एक्शन प्लान के दोनों चरणों का सारा प्रयास, किसी हद तक, गंगा नदी के प्रदूषित हिस्सों में सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने तक सीमित था। इस अवधि में बजट तो लक्ष्य पूरे हुए किंतु गंगा का प्रदूषण बढ़ता गया। बढ़ते प्रदूषण के बावजूद कार्यक्रम की दिशा यथावत रही। विदेह दृष्टि या अनदेखी के कारण गंगा के समूचे नदीतंत्र में हो रहे बदलावों की अनदेखी हुई।

बढ़ते प्रदूषण, घटते गैर-मानसूनी जल प्रवाह और बदलावों की अनदेखी ने संकट को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया। गहराते संकट की पृष्टभूमि में जरूरी है कि नमामि गंगा अभियान को आगे बढ़ाते समय पिछली रणनीति तथा दृष्टिबोध की समीक्षा की जाए और गलतियों से बचा जाए। इस क्रम में सबसे पहले नदी तंत्र को समझने का प्रयास किया जाए।

प्रकृति ने वर्षा को धरती को संवारने तथा परिमार्जित करने का काम सौंपा है इसलिए बरसात के दौरान जो कचरा या मलबा निकलता है, वर्षा, उसे बहा कर ले जाती है तथा नदी को सौंप देती है। हर नदी का प्राकृतिक दायित्व उसे बहाकर समुद्र तक ले जाना है। हर नदी यह काम, प्रकृति द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलकर पूरा करती है। यह काम साल भर चलता है।

इस तरीके से धरती का अवांछित कचरा समुद्र में पहुँच जाता है। यही काम गंगा नदी का तंत्र करता है। वह हिमालय, अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत माला से कचरा एकत्रित कर गंगा की मुख्य धारा को सौंप देता है। गंगा की मुख्य धारा उसे बंगाल की खाड़ी को सौंप देती है। इसके अतिरिक्त गंगा कछार की उथली परतों की साफ-सफाई का काम बरसात बाद भी चलता रहता है।

धरती की परतों में रिसा पानी उथली परत में आश्रय पाता है। यही उथली परतें गंगा और उसकी सहायक नदियों को पानी सप्लाई करती है और घुलनशील रसायनों को हटाने का काम पूरे साल चलता है लेकिन यह काम केवल उस समय तक संभव है, जब तक भूजल का स्तर नदी तल के ऊपर होता है। यही नदियों के प्रवाह की आवश्यकता तथा उसकी निरंतरता का उद्देश्य है। यही निरंतरता गंगा कछार को साफ रखती है। भूजल स्तर की गिरावट गंगा की प्राकृतिक भूमिका को खंडित करती है।

पिछले कुछ सालों से गंगा की निर्मल और अविरल धारा पर संकट गहरा रहा है। यह संकट बढ़ते प्रदूषण और घटते जल प्रवाह का है। यह संकट, भले ही नदी तंत्र के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग हो पर हकीकत में वह पूरे नदी तंत्र का संकट है। इसे ध्यान में रख 1986 में भारत सरकार ने गंगा एक्शन प्लान प्रारंभ किया था। भारत सरकार ने फरवरी 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्रदान कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की और अगस्त 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन कर अभियान के दूसरे चरण को प्रारंभ किया था। गंगा नदी तंत्र में मौजूद रेत की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण है। वह, बाढ़ के पानी का आंशिक संचय कर बाढ़ का नियमन करती है। अतिरिक्त पानी को नदी तंत्र को सौंप कर जल प्रवाह में निरंतरता पैदा करती है। वह, गंगा कछार की उथली परतों के रसायनों को हटाने में मदद देती है। रेत की परतों से पानी का लगातार मिलना, जलप्रवाह को टिकाऊ बनाता है। इस व्यवस्था को रेत के कणों की जमावट क्षमता प्रदान करती है। नदी विज्ञान की यही जानकारी गंगा नदी-तंत्र को अविरल बनाने के लिए आवश्यक है।

नमामि गंगा मिशन


केन्द्र सरकार द्वारा ‘नमामि गंगा’ के नाम से नए एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन की स्थापना की गई है। गंगा की प्रतिष्ठा तथा समाज की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस मिशन को समूचे गंगा नदी तंत्र में प्रवाह की निरंतरता, जल में निर्मलता, प्राकृतिक दायित्वों का बाधा रहित निर्वाह और पर्यावरणीय आवश्यकताओं को पूरा करना होगा।

अविरल गंगा: निर्मल गंगा के एक्शन प्लान की प्रस्तावित चरणबद्ध प्रक्रिया


सन् 1986 से अब तक दोनों गंगा एक्शन प्लान एक समयबद्ध कार्यक्रम की तरह संचालित किए गए थे। विदित है कि अभियान या कार्यक्रम फौरी जरूरतों की पूर्ति के लिए ही उपयुक्त होते हैं।

उनकी अवधि बीतने के बाद, उनका नामलेवा भी नहीं बचता। उनको क्रियान्वित करने वाला विभाग भी शेष जिम्मेदारियों को पूरा करने में लग जाता है इसलिए अभियानों या कार्यक्रमों का प्रभाव तथा परिणाम सीमित और अस्थाई होते हैं। इसलिए नमामि गंगा अभियान को कार्यक्रम या अभियान की शक्ल में संचालित नहीं किया जाए। प्रस्तावित है कि सबसे पहले नदी विज्ञान के सिद्धांतों, जिनकी ऊपर संक्षेप में चर्चा की गई है, को ध्यान में रख नदी नीति बनाई जाए।

नदी नीति का उद्देश्य केन्द्र स्तर पर दिशाबोध देने तथा राज्य स्तर पर दिशाबोध की फिलासफी को जमीन पर उतारने के लिए होगा। राज्य की क्रियान्वयन ऐजेंसी को परिणामों के लिए उत्तरदायी बनाना होगा। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने बिना नदी नीति निर्धारण के जल संसाधन विभाग के अंतर्गत नमामि गंगा मिशन का गठन कर काम प्रारंभ करने का निर्णय लिया है। इस कारण, पुराने इतिहास को दोहराने में बहुत देर नहीं लगेगी। इस अनुक्रम में पहला सुझाव है कि सबसे पहले राष्ट्रीय और राज्य नदी नीतियों का गठन किया जावे फिर नदी नीति के मार्गदर्शी कदमों के आधार पर कार्ययोजनाएं बनाई जाएं।

1. अविरल प्रवाह तथा जलप्रवाह में वृद्धि


स्वस्थ नदी तंत्र की आवश्यकता अविरल प्रवाह होती है इसलिए मझोली तथा बड़ी नदियों पर बांधों तथा बैराजों का निर्माण नदी विज्ञान के प्रतिकूल है। सिद्धांततः बांधों और बैराजों की फिलासफी में कोई खास अंतर नहीं होता। दोनों के परिणाम भी लगभग एक जैसे होते हैं। बांधों के कारण नदी का प्राकृतिक जलप्रवाह खंडित होता है। नदी के प्राकृतिक प्रवाहों के खंडित होने के कारण परिवहित मलबा तथा पानी में घुले रसायन बांध में जमा होने लगते हैं।

परिणामस्वरूप कुछ सालों बाद, बांध के पानी के प्रदूषित होने तथा जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर पर्यावणीय खतरों की संभावना बढ़ जाती है। कार्बनिक पदार्थों और बांध के पानी में पनपने वाली वनस्पतियों के ऑक्सीजनविहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बनती है जो जलवायु परिवर्तन तथा तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार होती है। जल प्रवाह वृद्धि के लिए समूचे गंगा नदी तंत्र में एक साथ प्रयास करना होगा। इसके लिए नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्शाई गंगा नदी तंत्र की पांचों हाइड्रोलॉजिकल इकाईयों के लिए कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। विदित है कि गंगा नदी तंत्र में 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट और 22 कैचमेंट हैं। सभी, 836 वाटरशेड इकाईयों से एक साथ समानुपातिक भूजल संवर्धन कार्यक्रमों को प्रारंभ करना होगा और प्रवाह की माप, विभिन्न हाईड्रोलॉजिकल इकाईयों के निकास बिंदु पर करना होगा।

प्रदूषित गंगायह माप 836 वाटरशेड से प्रारंभ होकर उत्तरोत्तर बढ़ते क्रम में 22 कैचमेंटों के निकास बिंदु पर समाप्त होगी। इसके अतिरिक्त, सीवर ट्रीटमेंट प्लांट्स द्वारा उपचारित जल निकास बिंदुओं पर उनके योगदान की माप ली जानी चाहिए। यह माप, गुणवत्ता माप का अभिन्न हिस्सा होगा। प्रवाह वृद्धि/बहाली के लिये समावेशी कैचमेंट उपचार (भूजल स्टोरेज क्षमता वृद्धि द्वारा भूजल योगदान बढ़ाने, भूमि कटाव रोकने, हरितमा वृद्धि करने इत्यादि), समूचे नदी तंत्र में समानुपातिक भूजल प्रबंध करने, समानुपातिक भूजल रीचार्ज और रेत के खनन को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, नदी नीति के आधार पर योजनाओं का स्वरूप तय करते समय जलवायु बदलाव के संभावित प्रभावों को ध्यान में रखना होगा तथा तदानुसार गतिविधियों को धारदार बनाने की आवश्यकता है।

टिकाऊ तथा समानुपातिक परिणामों के लिए जनोन्मुखी नोडल विभाग का गठन किया जाए। उसे प्रशिक्षित कर जिम्मेदारी सौंपी जाए तथा परिणामों के लिए उत्तरदायी बनाया जाए। उल्लेखनीय है कि जल प्रवाह वृद्धि के प्रयासों को सफल बनाने में उच्च स्तरीय संस्थान विफल रहे हैं और नदी तल को खोदकर या काई तथा जलकुंभी निकालकर गंगा के प्रवाह को नहीं बढ़ाया जा सका है इसलिए नमामि गंगा अभियान को संस्थानों के चयन में सावधानी बरतना होगा अन्यथा असफलता के पुराने इतिहास को दोहराने में वक्त नहीं लगेगा।

2. प्रदूषित जल का उपचार, रीसाइकिलिंग तथा उपयोग


केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गंगा का प्रदूषण, हरिद्वार से लेकर डायमंड हारबर तक मौजूद है। गंगा के उदगम के निकट स्थित रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग में भी साल-दर-साल प्रदूषण बढ़ रहा है। हरिद्वार, कन्नौज और कानपुर यदि प्रदूषण के हाट-स्पाट हैं तो वाराणसी की स्थिति बेहद चिंताजनक है इसलिए संपूर्ण गंगा नदी तंत्र के प्रदूषित पानी को साफ करने के लिए स्रोत पर सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाना चाहिए। इस हेतु प्रावधान भी किए जा रहे हैं। उम्मीद है, अब सभी प्रदूषक इकाईयों में स्रोत पर ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए जाएंगे। पुराना अनुभव बताता है कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का प्रयोग अपेक्षित परिणाम नहीं दे सका। कई जगह वे अस्तित्व में नहीं आए। कहीं-कहीं उन्होंने आधी-अधूरी सेवा दी। कई जगह उन्होंने दायित्वों की अनदेखी की। हुई। उपर्युक्त कारणों से सीवर ट्रीटमेंट प्लांट व्यवस्था को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है-

सुझाव है कि प्रदूषित पानी पैदा करने वाली संस्था को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। संस्थाएं प्रदूषित पानी को साफ कर स्वतः के उपयोग में लाएगी। उनके उपयोग के बाद बचा पानी उपयोगकर्ताओं को बेचा जाएगा। संस्था के की ट्रीटमेंट प्लांट का बिजली मीटर अलग होगा। वे जल संरक्षण तथा पानी का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग अपनाकर पानी की कमी पूरी करेंगी। सरकार द्वारा उन्हें पृथक से पानी उपलब्ध नहीं कराया जाएगा। अपवाद स्वरूप या अल्प काल के लिए उपचारित जल को नदी या जल स्रोत में छोड़ा जाएगा। इस प्रकार की व्यवस्थाए अनेक देशों में प्रचलन में हैं।

3. निगरानी व्यवस्था


नेशनल वाटरशेड एटलस के आधार पर गंगा नदी तंत्र के लिए पांच स्तरीय डायरेक्टरी बनाकर व्यापक निगरानी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। प्रारंभ में निगरानी तंत्र को 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट, 22 कैचमेंट के निकास बिंदुओं पर मानकों की निगरानी/मापन करना चाहिए। निगरानी व्यवस्था के सुझावों के आधार पर योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए लगातार प्रयास करना होगा।

4. गंगा नदी तंत्र का हेल्थ कार्ड


गंगा नदी तंत्र में मानकों की वस्तुस्थिति दर्शाने के लिए हेल्थ कार्ड व्यवस्था लागू की जाना चाहिए। गंगा नदी तंत्र में प्रस्तावित हेल्थ कार्ड 836 वाटरशेड, 126 सहायक कैचमेंट, 22 कैचमेंट के निकास बिंदुओं पर मापी जानकारी अर्थात वस्तुस्थिति को दर्शाएगा। वस्तुस्थिति की जानकारी समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध होना चाहिए। परिणामों के आधार पर नदी शुद्धिकरण तथा प्रवाह बहाली अभियान की दशा तथा दिशा निर्धारित की जाना चाहिए।

5. नदी फ्रंट विकास


फेल होते ट्रीटमेंट प्लांटपुराना अनुभव बताता है कि जल स्रोतों की सफाई के लिए उपलब्ध बजट का अधिकतम हिस्सा सौन्दर्यीकरण पर खर्च हुआ है इसलिए सुझाव है कि नदी के घाटों के विकास के लिए विधायक, सांसद, एन.आर.आई या दान की राशियों का उपयोग किया जाना चाहिए। इस काम के लिए कारपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी मद में उपलब्ध राशियों का भी उपयोग किया जा सकता है। इस काम को नमामि गंगा मिशन का अंग नहीं बनाया जाना चाहिए।

भील अपने खेत पानी के टैंकर से सींचते हैं

Submitted by Shivendra on Fri, 10/03/2014 - 11:08
Author
बाबा मायाराम
Krishi
. हम टीवी के रूपहले पर्दे पर भील आदिवासियों को रंग-बिरंगी पोषाकों में नाचते हुए देखते हैं और मोहित हो जाते हैं लेकिन जब हम उनसे सीधा साक्षात्कार करते हैं तो उनके कठिन जीवन की असलियत देख-सुनकर वह आकर्षण काफूर हो जाता है।

ऐसा ही अहसास मुझे तब हुआ जब मैं उनसे मिला और उनके दुख-दर्द की कहानियां सुनीं। हाल ही मुझे 31 अगस्त से 3 सितंबर तक पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर में रहने का मौका मिला।

इस दौरान एक भिलाला युवक रेमू के साथ मैं डेढ़ दर्जन गांवों में गया। ये सभी गांव अलीराजपुर जिले में स्थित हैं। इनमें से कुछ हैं-खारकुआ, छोटा उण्डवा, तिति नानपुर, घोंगसा, उन्दरी, हिरापुर,फाटा इत्यादि।

यहां के गांवों में बसाहट घनी नहीं है। एक घर से दूसरे घर की दूरी काफी है। पहाड़ियों की टेकरियों पर बने इनके घर कच्चे और खपरैल वाले हैं। इन घरों को मिलाकर एक फलिया (मोहल्ला) बनता है। घास-फूस व लकड़ियों के घर में दीवारें कच्ची, लकड़ी की और कुछ ईंटों की बनी हैं। मुर्गा- मुर्गी, बकरी और मवेशी भी साथ-साथ रहते हैं।

जमीन ऊंची-नीची ढलान वाली व पहाड़ी है तो कहीं समतल मैदान वाली। पेड़ बहुत कम हैं। जब पेड़ नहीं हैं तो पक्षी भी नहीं। वे पेड़ों पर घोंसला बनाकर रहते हैं या बैठते है। छींद और ताड़ी के पेड़ दिखाई दिए, छातानुमा बहुत सुंदर। इन्हीं पेड़ों से ताड़ी निकाली जाती है। गर्मी में ठंडा के रूप में ताड़ी पी जाती है।

खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी।

जब हम गांवों में पहुंचते तो चरवाहे हमें देखकर दौड़ लगा देते थे या पेड़ों के पीछे छिप जाते। जब हम उनसे किसी का पता-ठिकाना पूछते तो जवाब नहीं देते। फिर रेमू अपनी भीली जुबान में पूछता तो बता देते। गांवों में अधिकांश बुजुर्ग लंगोटी में मिले और कुछ जगह हुक्का वाले भी दिखाई दिए।

यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं।

महिलाएं और पुरूष मिलकर खेती का काम करते हैं। वे खेतों में उड़द और मूंगफली की निंदाई करते हुए दिखे। इसके अलावा, महिलाओं पर घर के काम की पूरी जिम्मेदारी होती है। भोजन पकाना, पानी लाना, ईंधन लाना, साफ-सफाई करना, गाय-बैल, बकरी चराना इत्यादि। बच्चों संभालने का काम तो रहता ही है।

आदिवासियों की जिंदगी उधार के पैसे से चलती है। वे साहूकार व महाजनों से कर्ज लेते हैं। लेकिन अक्सर गरीबी और तंगी के कारण समय पर अदा नहीं कर पाते। कर्ज के बदले गिरवी रखी वस्तु वे वापस नहीं ले पाते।

बारिश नहीं हुई तो फसल भी नहीं। मजबूर होकर लोग काम की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। भोपाल और दिल्ली भी जाते हैं जो खेती और निर्माण कार्य में मजदूरी करते हैं, उन्हें न उचित मजदूरी मिलती है, न वहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं।

पलायन करने वालों में जवान स्त्री-पुरूष सभी हैं। ज्यादातर परिवारों में घर के छोटे खाने-कमाने जाते हैं और बड़े-बूढ़े घर की जिम्मेदारी संभालते हैं।

खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी। यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं। पहले यहां बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था जो इनके जीने का बड़ा आधार था। जंगल से उनका मां-बेटे जैसा संबंध था। वे उससे उतना ही लेते थे जितनी उनको जरूरत होती थी। आदिवासी समाज संग्रह नहीं करते हैं। लेकिन जंगल अब साफ हो चुका है। यहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं। आदिवासियों की हालत के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तलवड़ा बताते हैं कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न कर दिया गया है। बाजार ने हमारी सामूहिकता को तोड़ दिया है। लालच ने एक-दूसरे को सहयोग करने की भावना को खत्म कर दिया।

वे बताते हैं कि फसल चक्र के बदलाव ने हमारे देसी अनाजों को खत्म कर दिया। अब आदिवासी पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया, जहां उसे शोषण का शिकार होने पड़ रहा है। वहीं जीने के लिए उसे बुनियादी सुविधाएं और रोजगार भी नहीं मिल पा रहा है।

भीलों की अस्मिता और संस्कृति खतरे में है। वे बताते हैं कि भीलों का रामायण और महाभारत में भी जिक्र मिलता है। भील बालक एकलव्य धर्नुविद्या में महाभारत के क्षत्रिय नायकों में एक अर्जुन से भी ज्यादा निपुण था। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा गुरूदक्षिणा के बतौर मांग लिया था। भीलों से लेने का सिलसिला आज भी चल रहा है। बडे़ बांध बनाने के लिए आदिवासियों को ही उजाड़ा जा रहा है।

आदिवासियों के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। उनके लिए कई योजनाएं और आयोग बनाए जा चुके हैं। उनकी हालत को लेकर कई रिपोर्टें तैयार की जा चुकी हैं। कानून भी बने। लेकिन आदिवासियों का जीवन दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। सवाल उनकी अस्मिता और संस्कृति का है। खेती-किसानी का है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति कैसे सुधरेगी। उनकी बेहतरी का सवाल भी मौजूं है।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
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Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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