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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

Submitted by Shivendra on Sun, 09/21/2014 - 16:24
Source:
Buller Lake
कश्मीर का अधिकांश झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दशक पहले तक यहां आवागमन के लिए जलमार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुशलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कश्मीरियों को भी याद नहीं हैं। कश्मीर का अधिकांश भाग चिनाब, झेलम और सिंधु नदी की घाटियों में बसा हुआ है। जम्मू का पश्चिमी भाग रावी नदी की घाटी में आता है। इस खूबसूरत राज्य के चप्पे-चप्पे पर कई नदी-नाले, सरोवर-झरने हैं। विडंबना है कि प्रकृति के इतने करीब व जल-निधियों से संपन्न इस राज्य के लोगों ने कभी उनकी कदर नहीं की। मनमाने तरीके से झीलों को पाट कर बस्तियां व बाजार बनाए, झीलों के रास्तों को रोक कर सड़क बना ली।

यह साफ होता जा रहा है कि यदि जल-निधियों का प्राकृतिक स्वरूप बना रहता तो बारिश का पानी दरिया में होता ना कि बस्तियों में कश्मीर में आतंकवाद के हल्ले के बीच वहां की झीलों व जंगलों पर असरदार लोगों के नजायज कब्जे का मसला हर समय कहीं दब जाता है, जबकि यह कई हजार करोड़ रुपए की सरकारी जमीन पर कब्जा का ही नहीं, इस राज्य के पर्यावरण को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देने का मामला है। कभी राज्य में छोटे-बड़े कुल मिला कर कोई 600 वेटलैंड थे जो अब बमुश्किल 12-15 बचे हैं।

कश्मीर का अधिकांश झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दशक पहले तक यहां आवागमन के लिए जलमार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुशलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कश्मीरियों को भी याद नहीं हैं।

तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी डल झील जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। पांच मील लंबी और ढाई मील चौड़ी डल झील श्रीनगर की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सबसे खूबसूरत झीलों में से एक है। करीब दो दशक पहले डल झील का दायरा 27 वर्ग किलोमीटर होता था, जो अब धीरे-धीरे सिकुड़ कर करीब 12 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसका एक कारण, झील के किनारों और बीच में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण भी है।

दुख की बात यह है कि कुछ साल पहले हाईकोर्ट के निर्देशों के बावजूद अतिक्रमण को हटाने के लिए सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसमें दोराय नहीं कि प्रकृति से खिलवाड़ और उस पर एकाधिपत्य जमाने के मनुष्य के प्रयासों के कारण पर्यावरण को संरक्षित रखना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। कोर्ट ने लेक्स एंड वाटर बॉडीज डेवेलपमेंट अथॉरिटी (लावडा) को डल की 275 कनाल भूमि जिस पर गैरकानूनी कब्जा है, को हटाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर शपथपत्र देने को भी कहा। लवाडा ने कोर्ट को जानकारी दी कि गैर कानूनी कब्जे वाली 315 कनाल भूमि में से चालीस कनाल खाली करवा ली गई ।

डल झील की दयनीय स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय ने तीन साल पहले डल झील के संरक्षण हेतु पर्याप्त प्रयास न किए जाने पर अधिकारियों को आड़े हाथों लिया था। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रदूषण के कारण पहाड़ों से घिरी डल झील अब कचरे का एक दलदल बनती जा रही है।

श्रीनगर से कोई पचास किलोमीटर दूर स्थित मीठे पानी की एशिया की सबसे बड़ी झील वुलर का सिकुड़ना साल-दर-साल जारी है। आज यहां 28 प्रतिशत हिस्से पर खेती हो रही है तो 17 फीसदी पर पेड़-पौघे हैं। बांदीपुर और सोपोर शहरों के बीच स्थित इस झील की हालत सुधारने के लिए वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया ने 300 करोड़ की लागत से एक परियोजना भी तैयार की थी, लेकिन उस पर काम कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया।

सन् 1991 में इसका फैलाव 273 वर्ग किलोमीटर था जो आज 58.71 वर्ग किलोमीटर रह गया है। वैसे इसकी लंबाई 16 किलोमीटर व चौड़ाई 10 किलोमीटर है। यह 14 मीटर तक गहरी है। इसके बीचों-बीच कुछ भग्नावशेष दिखते हैं जिन्हें ‘‘जैना लंका’’ कहा जाता है। लोगों का कहना है कि नाविकों को तूफान से बचाने के लिए सन 1443 में कश्मीर के राजा जेन-उल-आबदन ने वहां आसरे बनावाए थे। यहां नल सरोवर पक्षी अभ्यारण्य में कई सुंदर व दुर्लभ पक्षी हुआ करते थे। झील में मिलने वाली मछलियों की कई प्रजातियां - रोसी बार्ब, मच्छर मछली, केट फिश, किल्ली फिश आदि अब लुप्त हो गई हैं। आज भी कोई दस हजार मछुआरे अपना जीवनयापन यहां की मछलियों पर करते हैं।

वुलर झील श्रीनगर घाटी की जल प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थी। यहां की पहाड़ियों से गुजरने वाली तेज प्रवाह की नदियों में जब कभी पानी बढ़ता तो यह झील बस्ती में बाढ़ आने से रोकती थी। सदियों तक बाढ़ का बहाव रोकने के कारण इसमें गाद भी भरी, जिसे कभी साफ नहीं किया गया। या यों कहें कि इस पर कब्जे की गिद्ध दृष्टि जमाए लोगों के लिए तो यह ‘‘सोने में सुहागा’’ था। इस झील में झेलम के जरिए श्रीनगर सहित कई नगरों का नाबदान जोड़ दिया गया है, जिससे यहां के पानी की गुणवत्ता बेहद गिर गई है।

जैसे-जैसे इसके तट पर खेती बढ़ी, साथ में रासायनिक खाद व दवाओं का पानी में घुलना और उथलापन बढ़ा और यही कारण है कि यहां रहने वाले कई पक्षी व मछलियां गुम होते जा रहे हैं। इसकी बेबसी के पीछे सरकारी लापरवाही बहुत बड़ी वजह रही है। हुआ यूं कि सन 50 से 70 के बीच सरकारी महकमों ने झील के बड़े हिस्से पर विली(बेंत की तरह एक लचकदार डाली वाला वृक्ष) की खेती शुरू करवा दी। फिर कुछ रूतबेदार लोगों ने इसके जल ग्रहण क्षेत्र पर धान बोना शुरू कर दिया।

कहने को सन 1986 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस झील को राष्ट्रीय महत्व का वेटलैंड घोषित किया था, लेकिन उसके बाद इसके संरक्षण के कोई माकूल कदम नहीं उठाए गए। महकमें झील के सौंदर्यीकरण के नाम पर बजट लुटाते रहे व झील सिकुड़ती रही।

डल और उसकी सहायक नगीन लेक कोई पचास हजार साल पुरानी कही जाती हैं। डल की ही एक और सखा बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते कुछ सालों में सात वर्ग किमी से घट कर एक किमी रह गया है। कश्मीर की मानसबल झील प्रवासी पक्षियों का मशहूर डेरा रही है। हालांकि यह अभी भी प्रदेश की सबसे गहरी झील(कोई 13 मीटर गहरी) है, लेकिन इसका 90 फीसदी इलाका मिट्टी से पाट कर इंसान का रिहाईश बना गया है। इसके तट पर जरोखबल, गंदरबल और विजबल आदि तीन बड़े गांव हैं ।

अब यहां परींदे नहीं आते हैं। वैसे यह श्रीनगर से शादीपुर, गंदरबल होते हुए महज 30 किलजोमीटर दूर ही है। लेकिन यहां तक पर्यटक भी नहीं पहुंचते हैं। डल की सहायक बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते दस सालों में ही सात वर्गकिमी से घट कर एक वर्गकिमी रह गया हे। अनुमान है कि सन् 2020 तक इसका नामोनिशान मिट जाएगा।

सनद रहे कि कश्मीर की अधिकांश झीलें कुछ दशकों पहले तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और लोगों का दूर-दूर तक आवागमन नावों से होता था। झीलें क्या टूटीं, लोगों के दिल ही टूट गए। खुशलसार, नरानबाग, जैनालेक, अंचर, नरकारा, मीरगुंड जैसी कोई 16 झीलें आधुनिकता के गर्द में दफन हो रही हैं।

कश्मीर में तालाबों के हालत सुधारने के लिए लेक्स एंड वाटर बाडीज डेवलपमेंट अथारिटी (लावडा) के पास उपलब्ध फंड महकमे के कारिंदों को वेतन देने में ही खर्च हो जाता है। वैसे भी महकमें के अफसरान एक तरफ सियासदाओं और दूसरी तरफ दहशतगर्दों के दवाब में कोई कठोर कदम उठाने से मुंह चुराते रहते हैं।







Submitted by Shivendra on Sun, 09/21/2014 - 12:13
Source:
Badh
नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

विकास और विनाश दो विपरीत ध्रुवों के नाम हैं। दोनों के बीच द्वंद्व कैसे हो सकता है? पहले आए विनाश के बाद बोए रचना के बीज को तो हम विकास कह सकते हैं; लेकिन जो विकास अपने पीछे-पीछे विनाश लाए, उसे विकास नहीं कह सकते। दरअसल वह विकास होता ही नहीं। बावजूद इस बुनियादी फर्क के हमारे योजनाकार आज भी अपने विनाशकारी कृत्यों को विकास का नाम देकर अपनी पीठ ठोकते रहते हैं।

विनाशकारी कृत्यों का विरोध करने वालों को विकास विरोधी का दर्जा देकर उनकी बात अनसुनी करते हैं। सुनकर अनसुनी करने का नतीजा है पहले उत्तराखंड, हिमाचल और अब धरती के जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में जलजला आया और हमने बेहिसाब नुकसान झेला। इन्हें राष्ट्रीय आपदा घोषित करना और हमारे प्रधानमंत्री जी द्वारा अपने जन्मदिन बनाने की बजाय जम्मू-कश्मीर को मदद भेजने का आह्वान संवेदनात्मक, सराहनीय और तत्काल सहयोगी कदम हो सकता है। किंतु इन जलजलों की चेतावनी साफ हैं- “कुछ प्राकृतिक टापुओं में मानवीय गतिविधियों की सीमा बनाए बगैर यह दुनिया बच नहीं सकती।” हिमालयी क्षेत्र एक ऐसा ही प्राकृतिक टापू है।

अतः कम-से-कम ऐसे प्राकृतिक टापुओं में तो प्राकृतिक संसाधनों की लूट का धंधा रोकी जा सके। नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

सांस्कृतिक संयम जरूरी
भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। लोग इसके लिए एकजुट हों। यदि हम कश्मीर को ‘धरती का स्वर्ग’ और उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ कहते हैं तो ऐसे क्षेत्रों हेतु तय सांस्कृतिक संयम व अनुशासन की पालना भी करें।

हर गांव में मौजूद अनपढ़ अम्मा, दादी और काका आपको बता सकते है कि सांस्कृतिक संयम व अनुशासन के ये निर्देश क्या हैं? वे बता सकते हैं सूरज, चांद, सितारे, बादल, नदी, पानी, धरती, समंदर, जंगल से लेकर कुदरत की छोटी से छोटी रचना से अपनी संवेदना को जोड़ लेना कैसे संभव है? कैलाश उजाड़ने की कोशिश करने वाला रावण तो हाथ दबते ही चेत गया था, हम भी चेतें।

हकीकत यह है कि किसी सांस्कृतिक ग्रंथ ने स्वर्ग में इंसानी गतिविधियों की अनुमति कभी नहीं दी। चौड़े पत्ते वाले पीपल, बरगद, केला, आम, देवदार.. आदि वृक्षों को आज भी देव सरीखा माना जाता है। राजस्थान आज भी अपनी ‘देवबाणी’ सुरक्षित रखे हुए हैं। समूची हिंदी पट्टी में पंचवटी आज भी पूजा स्थली के रूप में ही जानी जाती हैं। शास्त्र बताते हैं कि हर गोत्र का अपना एक गोती वृक्ष होता है। गोती भाई उसकी रक्षा जान देकर करते रहे हैं। क्यों? इस ‘क्यों’ का वैज्ञानिक उत्तर सांस्कृतिक ज्ञान पर भरोसा और बढ़ाता है।

हर पारंपरिक बातें पिछड़ा नहीं होतीं
गलती यह हुई कि जो कुछ भी पुराना था, हमने उस सभी को पिछड़ा व पोंगापंथी मान लिया। नई सभ्यता का निर्माण करते वक्त हमने संस्कृति के पुराने संदेशों की अनदेखी की। इसी कारण हमने सघन हिमालय पर्वतमाला पर सघन व विशाल वनराशि के रूप में फैली शिवजटा को खोलने में संकोच नहीं किया। वनराशि पानी को बांधकर रखती है। यह बात हमने याद रखना जरूरी नहीं समझा। जंगल काटे।

भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। पत्थरों के चुगान और रेत के खदान से मुनाफा भी निःसंकोच कमाया। जन्नत में इंसानी गतिविधियां भी बेरोकटोक ही चलाई। सभ्य संस्कृति का निर्देश आज फिर यही है कि नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अंदर रोककर रखने वाली ऐसी जल संरचनाओं को कब्जा मुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परंपरागत मार्ग में खड़े अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बड़े पेड़ व जमीन को पकड़ कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों के सघनता बढ़ाने की योजना बनानी होगी। इसमें जन-जुड़ाव की भूमिका सबसे अहम् होेगी। इससे पहाड़ों में मिट्टी के क्षरण की सीमा लांघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय भी ये ही हैं।

नुकसान से बचने के लिए पहल करें
बाढ़ नुकसान कम करे, इसकेे लिए परपंरागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी? वहां जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों को उठाने की है। पेयजल हेतु हैंडपंपों को ऊंचा करना सुनिश्चित करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना।

मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देशी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिए संभावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएं व संसाधन दिए जाएं।

परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जल संरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। कहना न होगा कि संस्कृति और सभ्यता का गठजोड़ तो जरूरी है ही, लोगों को जोड़े और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता।

Submitted by Shivendra on Sat, 09/20/2014 - 09:39
Source:
Kalibai
झाबुआ के मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं, जिनको फ्लोरोसिस रोग लगा हो, यह तो यहां की घर-घर की कहानी है। अगर मियाटी को रेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी

लगभग डेढ़ दशक पहले झाबुआ जिले के मियाटी गांव के तोलसिंह का ब्याह जुलवानियां की थावरीबाई से हुआ। बाद में उसने थावरीबाई की छोटी बहन कालीबाई से “नातरा” कर लिया। मियाटी की आबोहवा में जाने क्या घुला हुआ था कि काली दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गईं। 38 की उम्र आते-आते वह निशक्त हो गईं। हड्डियां ऐसी हो गईं जैसे वह कभी भी झर से झड़कर बिखर जाएंगी। उसके पैर टेढ़े-मेढ़े हो गए और उसके लिए दो कदम चलना भी पहाड़ जैसा हो गया था। लाठी ही उसका एक सहारा रह गई।

शादी के कुछ साल बाद काली का एक बेटा, भूरसिंह पैदा हुआ। काली को भरोसा हुआ कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा लेकिन वह तो जवान होने से पहले ही बूढ़ा हो गया।भूर के हाथ-पैर बचपन से बेकार होने लगे। कालीबाई ने अपनी तबियत दुरुस्त करने के लिए डॉक्टर, वैद्य, नीम, हकीम सबके चक्कर लगाए, लेकिन सब बेकार। अंत में थक-हारकर ‘दैवीय प्रकोप’ मान लिया था। मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं जिसको यह रोग लगा हो। यह तो रेेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव है।

मियाटी गांव के ही ‘माध्यमिक विद्यालय’ की प्रधान अध्यापिका सीमा धसोंधी बताती हैं कि “कोई चार साल पहले तक कालीबाई का बेटा भूरसिंह कक्षा में सभी बच्चों से अलग-थलग रहने लगा था। इस पाठशाला में भूरसिंह जैसे कई बच्चे थे। बच्चों की याददाश्त काफी कमजोर होने लगी थी। हम लोग भी जब गांव का पानी पीते थे तो हमारे हाथ-पांव में दर्द होने लगता था। बच्चों के साथ ही उनकी माताओं की भी हालत अच्छी नहीं थी। एक दिन ‘इनरेम’ संस्था के लोग “विद्यालय” में आए थे। वे बच्चों की दांतों की जांच करना चाहते थे और पता लगाना चाहते थे कि बच्चों के इस तरह अपाहिज या विकलांग होने की वजह क्या है?’’

संस्था ने मियाटी गांव के हालात का बखूबी अध्ययन किया। गांव के बच्चों और लोगों के साथ काम करते-करते वह यह समझ गए कि यहां के भूजल में फ्लोराइड है, जो शरीर की हड्डियों को सीधा नुकसान पहुंचा रहा है।

अध्ययन के दौरान पता चला कि मियाटी के आस-पास के बोरवा और पंचपिपलिया सहित थांदला ब्लॉक के करीब दर्जन भर गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है। झाबुआ जिले के अलग-अलग ब्लॉक के लगभग 160 से ज्यादा गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है।

विशेषज्ञों का कहना है कि पानी में मौजूद फ्लोराइड कई बीमारियों का कारण बनता है। फ्लोराइड की वजह से सिर, हाथ-पांव और बदन में दर्द रहना बहुत सामान्य है। फ्लोराइड की अधिकता वाले जल के पीने से पेट की गड़बड़ी और एनीमिया जैसी समस्याएं भी उभर आती हैं। साथ ही हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े और घुटने की हड्डियां ‘स्पंजी’ और भुरभुरी हो जाती हैं। इतना ही नहीं छोटी उम्र में ही बुढ़ापे के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं।

भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं।

‘इनरेम फाउंडेशन’, (आणंद, गुजरात) के साथ काम करने वाले डॉ. सुंदरराजन कृष्णन कहते हैं “जब हम पहली बार कालीबाई के बेटे भूरसिंह से मिले तो वह लाठी के सहारे ही या बकैंया यानी चौपाए की तरह ही चल पाता था।” उनका कहना है कि “फ्लोराइड जब पानी के जरिए शरीर में जाता है तो उसकी दोस्ती कैल्शियम से हो जाती है और वहां वे एक और एक मिलकर ग्यारह बनकर शरीर को कमजोर करने में लग जाते हैं। शरीर में लगातार कैल्शियम की कमी होने लगती है। अगर शरीर में पोषण के माध्यम से अतिरिक्त कैल्शियम नहीं जा रहा है तो शरीर कमजोर होने लगता है। यही वजह है कि भूरसिंह को शायद ही गांव के किसी व्यक्ति ने खेलते हुए देखा हो।”

‘इनरेम फाउन्डेशन के अन्य विशेषज्ञ डॉ राजनारायन इन्दू बताते हैं कि हमने बच्चों के माता-पिता से इस बीमारी के बारे में बात की और यह बीमारी किस कारण हो रही है, इसके बारे में समझाया। और यह भी बताया कि जिन बच्चों को बीमारी हो चुकी है, उनको भी ठीक करना संभव है। इस पीढ़ी को ही नहीं हर पीढ़ी को, फ्लोरोसिस से बचाया जा सकता है। हम मियाटी गांव के माओं में एक नयी उमंग जगाने में सफल रहे। उनकी आँखों में फिर से सपने सजने लगे। वे अपने बच्चों को चलता, फिरता और दौड़ता देखना चाहती थीं।

भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं। इन गांवों में जो पहला काम हुआ, वह था जलस्रोतों का परीक्षण। यह जानना जरूरी था कि पानी के कौन से स्रोत सुरक्षित हैं और कौन से फ्लोराइड-युक्त। कुओं, तालाबों और हैंडपंपों से पानी के नमूने इकट्ठा कर तीन अलग-अलग प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया गया। नमूनों की जांच में जो सबसे महत्व की बात पता चली वह यह कि फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति किन-किन स्रोतों से पीने के पानी का उपयोग करते हैं तथा इससे प्राप्त होने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा कितनी है। परीक्षण से पता चला कि केवल हैडंपपों में ही अधिक मात्रा में फ्लोराइड है। कुओं, झिरी, तालाब, नदी के पानी में फ्लोराइड काफी कम है, पर खुले जलस्रोत होने के कारण उनमें बैक्टीरिया का खतरा है।

गांव के लोगों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया गया कि वे सुरक्षित जलस्रोतों से ही पीने का पानी लें और फिल्टर से छानकर पीएं। पानी से फ्लोराइड निकालने के लिए एक्टीवेटिड एल्युमिना फिल्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। मियाटी के लोगों ने फ्लोराइड जांच उपकरण से पानी को परखना सीख लिया है। उन्हें पता है कि परीक्षण के बाद अगर पानी पीला दिखाई दे तो मतलब है कि पानी पीने योग्य नहीं है। वहीं अगर पानी का रंग गुलाबी हो तो इस्तेमाल किया जा सकता है।

यहां दूसरा काम हुआ, भोजन का सर्वेक्षण। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि वे भोजन के जरिए कितनी मात्रा में फ्लोराइड अनजाने ही ग्रहण कर लेते हैं? फ्लोराइड से होने वाली बीमारी मुख्य बीमारी फ्लोरोसिस से लड़ने के लिए हमारे शरीर में प्रोटीन, मैग्निशियम, कैल्शियम, और विटामिन-सी की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होगी।

सुखद बात यह है कि शरीर में कैल्शियम की कमी को दूर करने का उपाय स्थानीय स्तर पर ही ढूंढ़ लिया गया है। क्षेत्र में उपलब्ध चकोड़ा या चकवड़ के पत्तों में कैल्शियम बहुत अधिक होता है इसलिए भोजन के तौर पर इसका इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है। इस इलाके में चकवड़ बहुतायत में अपने-आप उगती है। जिनकी बीमारी गंभीर हो चुकी थी, उनको समय-समय पर दवाईयां भी दी गईं। हालांकि फ्लोरोसिस से निजात पाने के लिए कोई खास दवा का इजाद नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि फ्लोरोसिस की वजह से टेढ़ी-मेढ़ी हुई हड्डियों को सीधा भी किया जा सकता है और उनमें जान भी डाली जा सकती है। मरीज को फ्लोरोसिस मुक्त पानी और खाने में ज्यादा-से-ज्यादा कैल्शियम और विटामिन सी और थोड़ा बहुत मैग्नीशियम जैसे सूक्ष्म पोषक देकर इस भयानक बीमारी से मुक्ति पाई जा सकती है।

कालीबाई और भूरसिंह को दवा और पौष्टिक आहार दिया गया, जिसके चलते धीरे- धीरे उनके पैरों की हड्डियां मजबूत होने लगीं हैं। हालांकि कालीबाई अभी भी लाठी के सहारे चलती हैं, परंतु उसे अब दो की जगह एक ही लाठी की जरूरत पड़ती है। शरीर में दर्द भी नहीं रहता। भूरसिंह का बचपना लौट आया है और अब वह सामान्य बच्चों के साथ खेलकूद सकता है। कालीबाई का लाड़ला भूर फुटबॉल को पैर की ठोकर से जब आकाश की ओर उछालता है तब लगता है मानों मां की आंखों में लंबी स्याह रात के बाद भोर की किरणें चमक उठी हैं।

मियाटी गांव सिखाता है कि देश के कोई ढाई करोड़ लोगों को फ्लोरोसिस के दर्द से मुक्ति दिलाना दूर की कौड़ी नहीं है। इन अलहदा जनों के जीवन में हम थोड़ी कोशिशों से ही खुशियों के हजार रंग भर सकते हैं, बशर्ते जनपक्षधर होने का जज्बा हो।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

झीलें बचाई होती तो जन्नत के यह हाल ना होते

Submitted by Shivendra on Sun, 09/21/2014 - 16:24
Author
पंकज चतुर्वेदी
Buller Lake
कश्मीर का अधिकांश झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दशक पहले तक यहां आवागमन के लिए जलमार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुशलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कश्मीरियों को भी याद नहीं हैं। कश्मीर का अधिकांश भाग चिनाब, झेलम और सिंधु नदी की घाटियों में बसा हुआ है। जम्मू का पश्चिमी भाग रावी नदी की घाटी में आता है। इस खूबसूरत राज्य के चप्पे-चप्पे पर कई नदी-नाले, सरोवर-झरने हैं। विडंबना है कि प्रकृति के इतने करीब व जल-निधियों से संपन्न इस राज्य के लोगों ने कभी उनकी कदर नहीं की। मनमाने तरीके से झीलों को पाट कर बस्तियां व बाजार बनाए, झीलों के रास्तों को रोक कर सड़क बना ली।

यह साफ होता जा रहा है कि यदि जल-निधियों का प्राकृतिक स्वरूप बना रहता तो बारिश का पानी दरिया में होता ना कि बस्तियों में कश्मीर में आतंकवाद के हल्ले के बीच वहां की झीलों व जंगलों पर असरदार लोगों के नजायज कब्जे का मसला हर समय कहीं दब जाता है, जबकि यह कई हजार करोड़ रुपए की सरकारी जमीन पर कब्जा का ही नहीं, इस राज्य के पर्यावरण को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देने का मामला है। कभी राज्य में छोटे-बड़े कुल मिला कर कोई 600 वेटलैंड थे जो अब बमुश्किल 12-15 बचे हैं।

कश्मीर का अधिकांश झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दशक पहले तक यहां आवागमन के लिए जलमार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुशलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कश्मीरियों को भी याद नहीं हैं।

तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी डल झील जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। पांच मील लंबी और ढाई मील चौड़ी डल झील श्रीनगर की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सबसे खूबसूरत झीलों में से एक है। करीब दो दशक पहले डल झील का दायरा 27 वर्ग किलोमीटर होता था, जो अब धीरे-धीरे सिकुड़ कर करीब 12 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसका एक कारण, झील के किनारों और बीच में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण भी है।

बुलर झीलदुख की बात यह है कि कुछ साल पहले हाईकोर्ट के निर्देशों के बावजूद अतिक्रमण को हटाने के लिए सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसमें दोराय नहीं कि प्रकृति से खिलवाड़ और उस पर एकाधिपत्य जमाने के मनुष्य के प्रयासों के कारण पर्यावरण को संरक्षित रखना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। कोर्ट ने लेक्स एंड वाटर बॉडीज डेवेलपमेंट अथॉरिटी (लावडा) को डल की 275 कनाल भूमि जिस पर गैरकानूनी कब्जा है, को हटाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर शपथपत्र देने को भी कहा। लवाडा ने कोर्ट को जानकारी दी कि गैर कानूनी कब्जे वाली 315 कनाल भूमि में से चालीस कनाल खाली करवा ली गई ।

डल झील की दयनीय स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय ने तीन साल पहले डल झील के संरक्षण हेतु पर्याप्त प्रयास न किए जाने पर अधिकारियों को आड़े हाथों लिया था। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रदूषण के कारण पहाड़ों से घिरी डल झील अब कचरे का एक दलदल बनती जा रही है।

श्रीनगर से कोई पचास किलोमीटर दूर स्थित मीठे पानी की एशिया की सबसे बड़ी झील वुलर का सिकुड़ना साल-दर-साल जारी है। आज यहां 28 प्रतिशत हिस्से पर खेती हो रही है तो 17 फीसदी पर पेड़-पौघे हैं। बांदीपुर और सोपोर शहरों के बीच स्थित इस झील की हालत सुधारने के लिए वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया ने 300 करोड़ की लागत से एक परियोजना भी तैयार की थी, लेकिन उस पर काम कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया।

सन् 1991 में इसका फैलाव 273 वर्ग किलोमीटर था जो आज 58.71 वर्ग किलोमीटर रह गया है। वैसे इसकी लंबाई 16 किलोमीटर व चौड़ाई 10 किलोमीटर है। यह 14 मीटर तक गहरी है। इसके बीचों-बीच कुछ भग्नावशेष दिखते हैं जिन्हें ‘‘जैना लंका’’ कहा जाता है। लोगों का कहना है कि नाविकों को तूफान से बचाने के लिए सन 1443 में कश्मीर के राजा जेन-उल-आबदन ने वहां आसरे बनावाए थे। यहां नल सरोवर पक्षी अभ्यारण्य में कई सुंदर व दुर्लभ पक्षी हुआ करते थे। झील में मिलने वाली मछलियों की कई प्रजातियां - रोसी बार्ब, मच्छर मछली, केट फिश, किल्ली फिश आदि अब लुप्त हो गई हैं। आज भी कोई दस हजार मछुआरे अपना जीवनयापन यहां की मछलियों पर करते हैं।

नागीन झीलवुलर झील श्रीनगर घाटी की जल प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थी। यहां की पहाड़ियों से गुजरने वाली तेज प्रवाह की नदियों में जब कभी पानी बढ़ता तो यह झील बस्ती में बाढ़ आने से रोकती थी। सदियों तक बाढ़ का बहाव रोकने के कारण इसमें गाद भी भरी, जिसे कभी साफ नहीं किया गया। या यों कहें कि इस पर कब्जे की गिद्ध दृष्टि जमाए लोगों के लिए तो यह ‘‘सोने में सुहागा’’ था। इस झील में झेलम के जरिए श्रीनगर सहित कई नगरों का नाबदान जोड़ दिया गया है, जिससे यहां के पानी की गुणवत्ता बेहद गिर गई है।

जैसे-जैसे इसके तट पर खेती बढ़ी, साथ में रासायनिक खाद व दवाओं का पानी में घुलना और उथलापन बढ़ा और यही कारण है कि यहां रहने वाले कई पक्षी व मछलियां गुम होते जा रहे हैं। इसकी बेबसी के पीछे सरकारी लापरवाही बहुत बड़ी वजह रही है। हुआ यूं कि सन 50 से 70 के बीच सरकारी महकमों ने झील के बड़े हिस्से पर विली(बेंत की तरह एक लचकदार डाली वाला वृक्ष) की खेती शुरू करवा दी। फिर कुछ रूतबेदार लोगों ने इसके जल ग्रहण क्षेत्र पर धान बोना शुरू कर दिया।

कहने को सन 1986 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस झील को राष्ट्रीय महत्व का वेटलैंड घोषित किया था, लेकिन उसके बाद इसके संरक्षण के कोई माकूल कदम नहीं उठाए गए। महकमें झील के सौंदर्यीकरण के नाम पर बजट लुटाते रहे व झील सिकुड़ती रही।

डल और उसकी सहायक नगीन लेक कोई पचास हजार साल पुरानी कही जाती हैं। डल की ही एक और सखा बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते कुछ सालों में सात वर्ग किमी से घट कर एक किमी रह गया है। कश्मीर की मानसबल झील प्रवासी पक्षियों का मशहूर डेरा रही है। हालांकि यह अभी भी प्रदेश की सबसे गहरी झील(कोई 13 मीटर गहरी) है, लेकिन इसका 90 फीसदी इलाका मिट्टी से पाट कर इंसान का रिहाईश बना गया है। इसके तट पर जरोखबल, गंदरबल और विजबल आदि तीन बड़े गांव हैं ।

मंसर झीलअब यहां परींदे नहीं आते हैं। वैसे यह श्रीनगर से शादीपुर, गंदरबल होते हुए महज 30 किलजोमीटर दूर ही है। लेकिन यहां तक पर्यटक भी नहीं पहुंचते हैं। डल की सहायक बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते दस सालों में ही सात वर्गकिमी से घट कर एक वर्गकिमी रह गया हे। अनुमान है कि सन् 2020 तक इसका नामोनिशान मिट जाएगा।

सनद रहे कि कश्मीर की अधिकांश झीलें कुछ दशकों पहले तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और लोगों का दूर-दूर तक आवागमन नावों से होता था। झीलें क्या टूटीं, लोगों के दिल ही टूट गए। खुशलसार, नरानबाग, जैनालेक, अंचर, नरकारा, मीरगुंड जैसी कोई 16 झीलें आधुनिकता के गर्द में दफन हो रही हैं।

मानसबल झीलकश्मीर में तालाबों के हालत सुधारने के लिए लेक्स एंड वाटर बाडीज डेवलपमेंट अथारिटी (लावडा) के पास उपलब्ध फंड महकमे के कारिंदों को वेतन देने में ही खर्च हो जाता है। वैसे भी महकमें के अफसरान एक तरफ सियासदाओं और दूसरी तरफ दहशतगर्दों के दवाब में कोई कठोर कदम उठाने से मुंह चुराते रहते हैं।

गंगबल झील

डल झील

गडसर झील

प्रकृति के साथ मिलकर करें विकास

Submitted by Shivendra on Sun, 09/21/2014 - 12:13
Author
अरुण तिवारी
Badh
नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

. विकास और विनाश दो विपरीत ध्रुवों के नाम हैं। दोनों के बीच द्वंद्व कैसे हो सकता है? पहले आए विनाश के बाद बोए रचना के बीज को तो हम विकास कह सकते हैं; लेकिन जो विकास अपने पीछे-पीछे विनाश लाए, उसे विकास नहीं कह सकते। दरअसल वह विकास होता ही नहीं। बावजूद इस बुनियादी फर्क के हमारे योजनाकार आज भी अपने विनाशकारी कृत्यों को विकास का नाम देकर अपनी पीठ ठोकते रहते हैं।

विनाशकारी कृत्यों का विरोध करने वालों को विकास विरोधी का दर्जा देकर उनकी बात अनसुनी करते हैं। सुनकर अनसुनी करने का नतीजा है पहले उत्तराखंड, हिमाचल और अब धरती के जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में जलजला आया और हमने बेहिसाब नुकसान झेला। इन्हें राष्ट्रीय आपदा घोषित करना और हमारे प्रधानमंत्री जी द्वारा अपने जन्मदिन बनाने की बजाय जम्मू-कश्मीर को मदद भेजने का आह्वान संवेदनात्मक, सराहनीय और तत्काल सहयोगी कदम हो सकता है। किंतु इन जलजलों की चेतावनी साफ हैं- “कुछ प्राकृतिक टापुओं में मानवीय गतिविधियों की सीमा बनाए बगैर यह दुनिया बच नहीं सकती।” हिमालयी क्षेत्र एक ऐसा ही प्राकृतिक टापू है।

अतः कम-से-कम ऐसे प्राकृतिक टापुओं में तो प्राकृतिक संसाधनों की लूट का धंधा रोकी जा सके। नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

सांस्कृतिक संयम जरूरी


भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। लोग इसके लिए एकजुट हों। यदि हम कश्मीर को ‘धरती का स्वर्ग’ और उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ कहते हैं तो ऐसे क्षेत्रों हेतु तय सांस्कृतिक संयम व अनुशासन की पालना भी करें।

हर गांव में मौजूद अनपढ़ अम्मा, दादी और काका आपको बता सकते है कि सांस्कृतिक संयम व अनुशासन के ये निर्देश क्या हैं? वे बता सकते हैं सूरज, चांद, सितारे, बादल, नदी, पानी, धरती, समंदर, जंगल से लेकर कुदरत की छोटी से छोटी रचना से अपनी संवेदना को जोड़ लेना कैसे संभव है? कैलाश उजाड़ने की कोशिश करने वाला रावण तो हाथ दबते ही चेत गया था, हम भी चेतें।

हकीकत यह है कि किसी सांस्कृतिक ग्रंथ ने स्वर्ग में इंसानी गतिविधियों की अनुमति कभी नहीं दी। चौड़े पत्ते वाले पीपल, बरगद, केला, आम, देवदार.. आदि वृक्षों को आज भी देव सरीखा माना जाता है। राजस्थान आज भी अपनी ‘देवबाणी’ सुरक्षित रखे हुए हैं। समूची हिंदी पट्टी में पंचवटी आज भी पूजा स्थली के रूप में ही जानी जाती हैं। शास्त्र बताते हैं कि हर गोत्र का अपना एक गोती वृक्ष होता है। गोती भाई उसकी रक्षा जान देकर करते रहे हैं। क्यों? इस ‘क्यों’ का वैज्ञानिक उत्तर सांस्कृतिक ज्ञान पर भरोसा और बढ़ाता है।

हर पारंपरिक बातें पिछड़ा नहीं होतीं


गलती यह हुई कि जो कुछ भी पुराना था, हमने उस सभी को पिछड़ा व पोंगापंथी मान लिया। नई सभ्यता का निर्माण करते वक्त हमने संस्कृति के पुराने संदेशों की अनदेखी की। इसी कारण हमने सघन हिमालय पर्वतमाला पर सघन व विशाल वनराशि के रूप में फैली शिवजटा को खोलने में संकोच नहीं किया। वनराशि पानी को बांधकर रखती है। यह बात हमने याद रखना जरूरी नहीं समझा। जंगल काटे।

भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। पत्थरों के चुगान और रेत के खदान से मुनाफा भी निःसंकोच कमाया। जन्नत में इंसानी गतिविधियां भी बेरोकटोक ही चलाई। सभ्य संस्कृति का निर्देश आज फिर यही है कि नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अंदर रोककर रखने वाली ऐसी जल संरचनाओं को कब्जा मुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परंपरागत मार्ग में खड़े अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बड़े पेड़ व जमीन को पकड़ कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों के सघनता बढ़ाने की योजना बनानी होगी। इसमें जन-जुड़ाव की भूमिका सबसे अहम् होेगी। इससे पहाड़ों में मिट्टी के क्षरण की सीमा लांघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय भी ये ही हैं।

नुकसान से बचने के लिए पहल करें


बाढ़ नुकसान कम करे, इसकेे लिए परपंरागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी? वहां जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों को उठाने की है। पेयजल हेतु हैंडपंपों को ऊंचा करना सुनिश्चित करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना।

मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देशी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिए संभावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएं व संसाधन दिए जाएं।

परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जल संरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। कहना न होगा कि संस्कृति और सभ्यता का गठजोड़ तो जरूरी है ही, लोगों को जोड़े और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता।

कालीबाई की आंखों में भोर की उजास

Submitted by Shivendra on Sat, 09/20/2014 - 09:39
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मीनाक्षी अरोड़ा और केसर
Kalibai
झाबुआ के मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं, जिनको फ्लोरोसिस रोग लगा हो, यह तो यहां की घर-घर की कहानी है। अगर मियाटी को रेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी

.लगभग डेढ़ दशक पहले झाबुआ जिले के मियाटी गांव के तोलसिंह का ब्याह जुलवानियां की थावरीबाई से हुआ। बाद में उसने थावरीबाई की छोटी बहन कालीबाई से “नातरा” कर लिया। मियाटी की आबोहवा में जाने क्या घुला हुआ था कि काली दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गईं। 38 की उम्र आते-आते वह निशक्त हो गईं। हड्डियां ऐसी हो गईं जैसे वह कभी भी झर से झड़कर बिखर जाएंगी। उसके पैर टेढ़े-मेढ़े हो गए और उसके लिए दो कदम चलना भी पहाड़ जैसा हो गया था। लाठी ही उसका एक सहारा रह गई।

शादी के कुछ साल बाद काली का एक बेटा, भूरसिंह पैदा हुआ। काली को भरोसा हुआ कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा लेकिन वह तो जवान होने से पहले ही बूढ़ा हो गया।भूर के हाथ-पैर बचपन से बेकार होने लगे। कालीबाई ने अपनी तबियत दुरुस्त करने के लिए डॉक्टर, वैद्य, नीम, हकीम सबके चक्कर लगाए, लेकिन सब बेकार। अंत में थक-हारकर ‘दैवीय प्रकोप’ मान लिया था। मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं जिसको यह रोग लगा हो। यह तो रेेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव है।

मियाटी गांव के ही ‘माध्यमिक विद्यालय’ की प्रधान अध्यापिका सीमा धसोंधी बताती हैं कि “कोई चार साल पहले तक कालीबाई का बेटा भूरसिंह कक्षा में सभी बच्चों से अलग-थलग रहने लगा था। इस पाठशाला में भूरसिंह जैसे कई बच्चे थे। बच्चों की याददाश्त काफी कमजोर होने लगी थी। हम लोग भी जब गांव का पानी पीते थे तो हमारे हाथ-पांव में दर्द होने लगता था। बच्चों के साथ ही उनकी माताओं की भी हालत अच्छी नहीं थी। एक दिन ‘इनरेम’ संस्था के लोग “विद्यालय” में आए थे। वे बच्चों की दांतों की जांच करना चाहते थे और पता लगाना चाहते थे कि बच्चों के इस तरह अपाहिज या विकलांग होने की वजह क्या है?’’

संस्था ने मियाटी गांव के हालात का बखूबी अध्ययन किया। गांव के बच्चों और लोगों के साथ काम करते-करते वह यह समझ गए कि यहां के भूजल में फ्लोराइड है, जो शरीर की हड्डियों को सीधा नुकसान पहुंचा रहा है।

Remsingh jashoda khumjiअध्ययन के दौरान पता चला कि मियाटी के आस-पास के बोरवा और पंचपिपलिया सहित थांदला ब्लॉक के करीब दर्जन भर गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है। झाबुआ जिले के अलग-अलग ब्लॉक के लगभग 160 से ज्यादा गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है।

विशेषज्ञों का कहना है कि पानी में मौजूद फ्लोराइड कई बीमारियों का कारण बनता है। फ्लोराइड की वजह से सिर, हाथ-पांव और बदन में दर्द रहना बहुत सामान्य है। फ्लोराइड की अधिकता वाले जल के पीने से पेट की गड़बड़ी और एनीमिया जैसी समस्याएं भी उभर आती हैं। साथ ही हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े और घुटने की हड्डियां ‘स्पंजी’ और भुरभुरी हो जाती हैं। इतना ही नहीं छोटी उम्र में ही बुढ़ापे के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं।

भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं।

‘इनरेम फाउंडेशन’, (आणंद, गुजरात) के साथ काम करने वाले डॉ. सुंदरराजन कृष्णन कहते हैं “जब हम पहली बार कालीबाई के बेटे भूरसिंह से मिले तो वह लाठी के सहारे ही या बकैंया यानी चौपाए की तरह ही चल पाता था।” उनका कहना है कि “फ्लोराइड जब पानी के जरिए शरीर में जाता है तो उसकी दोस्ती कैल्शियम से हो जाती है और वहां वे एक और एक मिलकर ग्यारह बनकर शरीर को कमजोर करने में लग जाते हैं। शरीर में लगातार कैल्शियम की कमी होने लगती है। अगर शरीर में पोषण के माध्यम से अतिरिक्त कैल्शियम नहीं जा रहा है तो शरीर कमजोर होने लगता है। यही वजह है कि भूरसिंह को शायद ही गांव के किसी व्यक्ति ने खेलते हुए देखा हो।”

‘इनरेम फाउन्डेशन के अन्य विशेषज्ञ डॉ राजनारायन इन्दू बताते हैं कि हमने बच्चों के माता-पिता से इस बीमारी के बारे में बात की और यह बीमारी किस कारण हो रही है, इसके बारे में समझाया। और यह भी बताया कि जिन बच्चों को बीमारी हो चुकी है, उनको भी ठीक करना संभव है। इस पीढ़ी को ही नहीं हर पीढ़ी को, फ्लोरोसिस से बचाया जा सकता है। हम मियाटी गांव के माओं में एक नयी उमंग जगाने में सफल रहे। उनकी आँखों में फिर से सपने सजने लगे। वे अपने बच्चों को चलता, फिरता और दौड़ता देखना चाहती थीं।

भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं। इन गांवों में जो पहला काम हुआ, वह था जलस्रोतों का परीक्षण। यह जानना जरूरी था कि पानी के कौन से स्रोत सुरक्षित हैं और कौन से फ्लोराइड-युक्त। कुओं, तालाबों और हैंडपंपों से पानी के नमूने इकट्ठा कर तीन अलग-अलग प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया गया। नमूनों की जांच में जो सबसे महत्व की बात पता चली वह यह कि फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति किन-किन स्रोतों से पीने के पानी का उपयोग करते हैं तथा इससे प्राप्त होने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा कितनी है। परीक्षण से पता चला कि केवल हैडंपपों में ही अधिक मात्रा में फ्लोराइड है। कुओं, झिरी, तालाब, नदी के पानी में फ्लोराइड काफी कम है, पर खुले जलस्रोत होने के कारण उनमें बैक्टीरिया का खतरा है।

गांव के लोगों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया गया कि वे सुरक्षित जलस्रोतों से ही पीने का पानी लें और फिल्टर से छानकर पीएं। पानी से फ्लोराइड निकालने के लिए एक्टीवेटिड एल्युमिना फिल्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। मियाटी के लोगों ने फ्लोराइड जांच उपकरण से पानी को परखना सीख लिया है। उन्हें पता है कि परीक्षण के बाद अगर पानी पीला दिखाई दे तो मतलब है कि पानी पीने योग्य नहीं है। वहीं अगर पानी का रंग गुलाबी हो तो इस्तेमाल किया जा सकता है।

यहां दूसरा काम हुआ, भोजन का सर्वेक्षण। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि वे भोजन के जरिए कितनी मात्रा में फ्लोराइड अनजाने ही ग्रहण कर लेते हैं? फ्लोराइड से होने वाली बीमारी मुख्य बीमारी फ्लोरोसिस से लड़ने के लिए हमारे शरीर में प्रोटीन, मैग्निशियम, कैल्शियम, और विटामिन-सी की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होगी।

सुखद बात यह है कि शरीर में कैल्शियम की कमी को दूर करने का उपाय स्थानीय स्तर पर ही ढूंढ़ लिया गया है। क्षेत्र में उपलब्ध चकोड़ा या चकवड़ के पत्तों में कैल्शियम बहुत अधिक होता है इसलिए भोजन के तौर पर इसका इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है। इस इलाके में चकवड़ बहुतायत में अपने-आप उगती है। जिनकी बीमारी गंभीर हो चुकी थी, उनको समय-समय पर दवाईयां भी दी गईं। हालांकि फ्लोरोसिस से निजात पाने के लिए कोई खास दवा का इजाद नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि फ्लोरोसिस की वजह से टेढ़ी-मेढ़ी हुई हड्डियों को सीधा भी किया जा सकता है और उनमें जान भी डाली जा सकती है। मरीज को फ्लोरोसिस मुक्त पानी और खाने में ज्यादा-से-ज्यादा कैल्शियम और विटामिन सी और थोड़ा बहुत मैग्नीशियम जैसे सूक्ष्म पोषक देकर इस भयानक बीमारी से मुक्ति पाई जा सकती है।

झाबुआ में फ्लोराइडकालीबाई और भूरसिंह को दवा और पौष्टिक आहार दिया गया, जिसके चलते धीरे- धीरे उनके पैरों की हड्डियां मजबूत होने लगीं हैं। हालांकि कालीबाई अभी भी लाठी के सहारे चलती हैं, परंतु उसे अब दो की जगह एक ही लाठी की जरूरत पड़ती है। शरीर में दर्द भी नहीं रहता। भूरसिंह का बचपना लौट आया है और अब वह सामान्य बच्चों के साथ खेलकूद सकता है। कालीबाई का लाड़ला भूर फुटबॉल को पैर की ठोकर से जब आकाश की ओर उछालता है तब लगता है मानों मां की आंखों में लंबी स्याह रात के बाद भोर की किरणें चमक उठी हैं।

मियाटी गांव सिखाता है कि देश के कोई ढाई करोड़ लोगों को फ्लोरोसिस के दर्द से मुक्ति दिलाना दूर की कौड़ी नहीं है। इन अलहदा जनों के जीवन में हम थोड़ी कोशिशों से ही खुशियों के हजार रंग भर सकते हैं, बशर्ते जनपक्षधर होने का जज्बा हो।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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