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आज का विज्ञान और तकनीकी की बात करने वाला नदियों से अलग-थलग पड़ा यह समाज जल-चक्र को ही नकार रहा है। इस नई सोच का मानना है कि नदियां व्यर्थ में ही पानी समुद्र में बहा रही हैं। ये लोग भूल रहे हैं कि समुद्र में पानी बहाना भी जल-चक्र का एक बड़ा हिस्सा है। नदी जोड़ परियोजना पर्यावरण भी नष्ट करेगी और भूगोल भी। नदियों को मोड़-मोड़ कर उल्टा बहाने की कोशिश की गई तो आने वाली पीढ़ियां शायद ही हमें माफ कर पाएंगी।
दृष्टि, दृष्टिकोण, दर्शन, विचार और उसकी धारा में पानी खो रहा है। पानी के अकाल से पहले माथे का अकाल हो चुका है; अच्छे कामों और विचारों का अकाल हो चुका है। नदी समाजों से खुद को जोड़ने की बजाय सरकारें समाज को नदियों से दूर करना चाहती है। आजादी से अब तक की सरकारी योजनाओं में सबसे खतरनाक और अव्यावहारिक नदी-जोड़ योजना की कोशिश हो रही है। भूगोल को कुछ लोग ‘ठीक’ करना चाहते हैं। कानून से पर्यावरण बचाना और पेड़ लगाना चाहते हैं। बड़े-बड़े बांध बांधकर लोगों की प्यास बुझाना चाहते हैं। कहना ना होगा कि ये बड़े- बड़े विचार लोगों की प्यास तो बिल्कुल नहीं बुझा पा रहे हैं। उदाहरणों के लिये इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। अभी पिछले साल ही मध्य प्रदेश के कई शहरों में पानी के वितरण के लिए सीआरपीएफ लगानी पड़ी। नदी की बाढ़ से ज्यादा माथे की बाढ़ दुखदायी बन गई है।सरकार का जलविद्युत परियोजनाओं को ही सबसे सस्ता व सबसे कम नुकसानदेह बताने का उसका नजरिया बदला नहीं है। इस पर सरकार समझौते की मुद्रा में कतई दिखाई नहीं देती। यही बात सबसे खतरनाक है और संघर्ष को शांत करने में बाधक भी। फिलहाल स्थितियां जो भी हों। बिना संकल्प हर उपाय अधूरा है। संकल्पित हों कि गंगा
यह विडंबना है देश की पवित्र नदियों में शामिल यमुना दिल्ली में एक गंदे नाले में तब्दील हो गई है। यमुना की इस हालत के लिए कई कारक हैं। घरेलू और औद्योगिक अपशिष्ट को लेकर गिरने वाले बाइस नालों के अलावा यमुना को गंदा और प्रदूषित करने में धार्मिक आस्था भी कम दोषी नहीं हैं।
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साफ माथे का पानी
आज का विज्ञान और तकनीकी की बात करने वाला नदियों से अलग-थलग पड़ा यह समाज जल-चक्र को ही नकार रहा है। इस नई सोच का मानना है कि नदियां व्यर्थ में ही पानी समुद्र में बहा रही हैं। ये लोग भूल रहे हैं कि समुद्र में पानी बहाना भी जल-चक्र का एक बड़ा हिस्सा है। नदी जोड़ परियोजना पर्यावरण भी नष्ट करेगी और भूगोल भी। नदियों को मोड़-मोड़ कर उल्टा बहाने की कोशिश की गई तो आने वाली पीढ़ियां शायद ही हमें माफ कर पाएंगी।
दृष्टि, दृष्टिकोण, दर्शन, विचार और उसकी धारा में पानी खो रहा है। पानी के अकाल से पहले माथे का अकाल हो चुका है; अच्छे कामों और विचारों का अकाल हो चुका है। नदी समाजों से खुद को जोड़ने की बजाय सरकारें समाज को नदियों से दूर करना चाहती है। आजादी से अब तक की सरकारी योजनाओं में सबसे खतरनाक और अव्यावहारिक नदी-जोड़ योजना की कोशिश हो रही है। भूगोल को कुछ लोग ‘ठीक’ करना चाहते हैं। कानून से पर्यावरण बचाना और पेड़ लगाना चाहते हैं। बड़े-बड़े बांध बांधकर लोगों की प्यास बुझाना चाहते हैं। कहना ना होगा कि ये बड़े- बड़े विचार लोगों की प्यास तो बिल्कुल नहीं बुझा पा रहे हैं। उदाहरणों के लिये इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। अभी पिछले साल ही मध्य प्रदेश के कई शहरों में पानी के वितरण के लिए सीआरपीएफ लगानी पड़ी। नदी की बाढ़ से ज्यादा माथे की बाढ़ दुखदायी बन गई है।राजीव गांधी के अधूरे सपने को आयोग नहीं, संकल्प की तलाश
जहरीली होती यमुना नदी
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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नोटिस बोर्ड
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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