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आधुनिक भारत में इंसान की गुलामी के अब दो ही नमूने मिलते हैं। रिक्शे पर बैठे आदमी को उसे चलाने वाला मेहनतकश आदमी ही ढोता है। इसके अलावा आदमी ही आदमी का मैला सिर पर ढोता है। इन दोनों मामलों में मैला ढोने की कुप्रथा कहीं ज्यादा शर्मनाक है। ज्यादा अफसोसजनक यह है कि देश के कानून, सरकार, आयोग, पुलिस या प्रशासन सभी के लिए इस कुप्रथा का खात्मा सदियों से चुनौती बना हुआ है।
केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को दी गई एक हालिया जानकारी के मुताबिक सदियों पुरानी मैला कुप्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए आगामी मानसून सत्र में एक विधेयक पेश करने की तैयारी हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इसी इस अमानवीय कुप्रथा के शिकंजे में देश भर में आज भी पांच लाख से ज्यादा लोग फंसे हैं। जबकि लाखों लोग ऐसी दूसरी कुप्रथाओं का भी त्रासद दुख भोग रहे हैं। कुप्रथाओं पर लगाम लगाने के प्रयासों में पाबंदी से ज्यादा उन पीड़ितों के पुनर्वास की जरूरत होती है। लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयासों की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगता है कि उस जनहित याचिका के 2003 में दायर होने के 9 साल बाद इस विधेयक के लाने की मंशा उच्चतम न्यायालय को बताई गई है।मसौदे का ‘पॉल्यूटर पेज’ का सिद्धांत भी इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि अपना मुनाफा ज्यादा से ज्यादा करने के लिए जितना चाहे पानी प्रदूषित करो, बस थोड़ा सा जुर्माना भरो और काम करते रहो। मसौदे में कहीं भी किसी भी ऐसे सख्त कानून या कदम की बात नहीं की गई है या ऐसे प्रयासों की बात नहीं की गई है कि अपशिष्ट और प्रदूषक पैदा ही न हों।
हाल ही में भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने नई ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’ का मसौदा जल विशेषज्ञों और आम नागरिकों के लिए प्रस्तुत किया है। यूं तो ये मसौदा सभी लोगों के लिए सुझाव आमंत्रित करता है लेकिन इसके पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है। कई रहस्यों पर पर्दा डालती हुई और शब्दों से खेलती हुई यह जल-नीति इस बात की तरफ साफतौर पर इशारा करती है कि सरकार अब जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही है। और यह काम बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौंपना चाहती है। जलनीति के इस मसौदे को अगर देखा जाय तो पहली नजर में मन खुश हो जाता है। जलनीति में पहली बार जल-संकट से निजात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण को महत्ता दी गई है। ऐसा लगता है कि साफ पेयजल और स्वच्छता के साथ-साथ पारिस्थितिकीय जरूरतों को भी प्राथमिकता दी गई है। पर जब इस मसौदे को हम गहराई से परखते हैं, तो साफ हो जाता है कि किस तरह से इसमें लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल करके शब्दों का एक खेल खेला गया है।कुछ समय पहले तक गांव में कच्चे घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह लगती है। घर के आगे आंगन और घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इस सबसे बारिश का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता थ
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मैला और मुकुट के बीच गहरा फासला
आधुनिक भारत में इंसान की गुलामी के अब दो ही नमूने मिलते हैं। रिक्शे पर बैठे आदमी को उसे चलाने वाला मेहनतकश आदमी ही ढोता है। इसके अलावा आदमी ही आदमी का मैला सिर पर ढोता है। इन दोनों मामलों में मैला ढोने की कुप्रथा कहीं ज्यादा शर्मनाक है। ज्यादा अफसोसजनक यह है कि देश के कानून, सरकार, आयोग, पुलिस या प्रशासन सभी के लिए इस कुप्रथा का खात्मा सदियों से चुनौती बना हुआ है।
केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को दी गई एक हालिया जानकारी के मुताबिक सदियों पुरानी मैला कुप्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए आगामी मानसून सत्र में एक विधेयक पेश करने की तैयारी हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इसी इस अमानवीय कुप्रथा के शिकंजे में देश भर में आज भी पांच लाख से ज्यादा लोग फंसे हैं। जबकि लाखों लोग ऐसी दूसरी कुप्रथाओं का भी त्रासद दुख भोग रहे हैं। कुप्रथाओं पर लगाम लगाने के प्रयासों में पाबंदी से ज्यादा उन पीड़ितों के पुनर्वास की जरूरत होती है। लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयासों की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगता है कि उस जनहित याचिका के 2003 में दायर होने के 9 साल बाद इस विधेयक के लाने की मंशा उच्चतम न्यायालय को बताई गई है।विष रस भरा कनक घट जैसे
संदर्भ : ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’
मसौदे का ‘पॉल्यूटर पेज’ का सिद्धांत भी इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि अपना मुनाफा ज्यादा से ज्यादा करने के लिए जितना चाहे पानी प्रदूषित करो, बस थोड़ा सा जुर्माना भरो और काम करते रहो। मसौदे में कहीं भी किसी भी ऐसे सख्त कानून या कदम की बात नहीं की गई है या ऐसे प्रयासों की बात नहीं की गई है कि अपशिष्ट और प्रदूषक पैदा ही न हों।
हाल ही में भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने नई ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’ का मसौदा जल विशेषज्ञों और आम नागरिकों के लिए प्रस्तुत किया है। यूं तो ये मसौदा सभी लोगों के लिए सुझाव आमंत्रित करता है लेकिन इसके पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है। कई रहस्यों पर पर्दा डालती हुई और शब्दों से खेलती हुई यह जल-नीति इस बात की तरफ साफतौर पर इशारा करती है कि सरकार अब जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही है। और यह काम बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौंपना चाहती है। जलनीति के इस मसौदे को अगर देखा जाय तो पहली नजर में मन खुश हो जाता है। जलनीति में पहली बार जल-संकट से निजात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण को महत्ता दी गई है। ऐसा लगता है कि साफ पेयजल और स्वच्छता के साथ-साथ पारिस्थितिकीय जरूरतों को भी प्राथमिकता दी गई है। पर जब इस मसौदे को हम गहराई से परखते हैं, तो साफ हो जाता है कि किस तरह से इसमें लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल करके शब्दों का एक खेल खेला गया है।क्यों बढ़ रहा है जल-संकट
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
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