तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

अलग राज्य बनने पर झारखंड को दूध की बड़ी किल्लत झेलनी पड़ रही थी। आवश्यकता का महज 30 प्रतिशत दूध ही राज्य में उत्पादित होता था। नस्ल सुधार और अन्य स्कीम के जरिए दूध का उत्पादन बढ़ाया गया। अब सात लाख टन की जगह राज्य में 16 लाख टन दूध उत्पादित होता है। फिर भी 50 फीसदी की कमी बरकरार है। कुछ साल पुराने आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 76.59 लाख गाय व 13.43 लाख भैंस हैं। बावजूद, राज्य में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत 235 ग्राम की तुलना में महज 140 ग्राम है।
रांची के इटकी प्रखंड से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर हरही जैसे गांव श्वेत क्रांति की राह पकड़ चुके हैं। ग्रामीणों ने नियति से लोहा लेने के लिए गोसेवा को उज्ज्वल भविष्य का जरिया क्या बनाया, इनकी प्रगति की रफ्तार देखकर नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड तक की नजर बरबस उधर को उठी की उठी रह गई। गुजरात के आणंद की भांति हरही और कुछ अन्य गांव के लोग मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' के होरी और धनिया नहीं रहे। स्वावलंबन और समृद्धि इनके कदम चूम रही है। हरही में तकरीबन 200 घर हैं। सामान्य जाति विशेष के लोगों सहित आदिवासी भी यहां बसते हैं। आजीविका का साधन खेती व पशुपालन है और ज्यादा जमीन अनुपजाऊ पर कभी बीपीएल कोटा और कार्ड की आशा रखने वाले ग्रामीण अब समृद्धि के रास्ते पर चल निकले हैं। खपरैल और घास-फूस वाले घरों की जगह पक्के मकानों ने ले ली है। लगभग 150 परिवारों के पास दोपहिया गाड़ी है।गांधी विचार पर शोध में ऊर्जा की कमी वास्तव में विचलित करने वाला तथ्य है। अपने आस-पास फैली अनेक बुराइयों के बावजूद अंततः यह विश्वास हमें ढाढस बंधाता है कि बहुसंख्य समाज आज भी बेहतर मानवीय संकल्पनाओं से ओतप्रोत है। प्रस्तुत आलेख अनुपम मिश्र द्वारा दिए गए दीक्षंत भाषण का दूसरा एवं अंतिम भाग है।
नालंदा और तक्षशिला इन दो नामों के साथ छात्र शब्द की भी एक व्याख्या देंखे- जो गुरु के दोषों को एक छत्र की तरह ढंक दे- वह है छात्र। तो इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी कुछ प्रेरणा दे सकता है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती हैं। संस्थाएं, खासकर शिक्षण संस्थाएं केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनतीं। वे गुरु और छात्रों के सबसे अच्छे संयोग से बनती हैं, उसी से बढ़ती हैं और उसी से टिकती भी हैं। यह बारीक संयोग जब तक वहां बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहे।सवाल उठता है कि बड़ी व विकट होती आपदाओं का सामना करने की तैयारी कैसे करें। यदि हम इन सवालों को एक मुख्य प्राथमिकता बनाएं व सरकार तथा प्रशासन भी इस प्राथमिकता के अनुकूल ही तैयार रहे, तो जलवायु बदलाव के प्रतिकूल दुष्परिणामों को चाहे पूरी तरह न रोका जा सके, पर इन दुष्परिणामों को काफी कम अवश्य किया जा सकता है।
जलवायु बदलाव की समझ रखने वाले अधिकांश विशेषज्ञ व संस्थान यह चुनौती दे रहे हैं कि इस संकट को नियंत्रित करने के लिए बहुत व्यापक प्रयास अभी नहीं हुए तो कुछ वर्षो में हालात हाथ से निकल जाएंगे। इसलिए अब समय आ गया है कि इन्हें बचाने की कोशिशें अभी से शुरू कर दी जाएं। कुछ कदम हैं, जो तुरंत ही उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले तो वनों को बचाना बहुत जरूरी है। अनुमान है कि हमारी दुनिया से हर एक मिनट में तकरीबन 50 फुटबॉल मैदानों के बराबर ट्रॉपिकल या उष्ण कटिबंधीय वन नष्ट हो जाते हैं यानी प्रतिवर्ष 55 लाख हेक्टेयर। कई जगह इन्हें जलाकर नष्ट कर दिया जाता है और सिर्फ इसी वजह से धरती पर 20 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। कहीं इन वनों को काट दिया जाता है। कभी लकड़ी के लिए, कभी उद्योगों के लिए, तो कभी खेती के लिए।
वनों की रक्षा का कार्य सदा से महत्वपूर्ण रहा है। मिट्टी व जल संरक्षण, बाढ़ व सूखे के संकट को कम करने व आदिवासियों-गांववासियों की आजीविका की दृष्टि से वनों !
अलग राज्य बनने पर झारखंड को दूध की बड़ी किल्लत झेलनी पड़ रही थी। आवश्यकता का महज 30 प्रतिशत दूध ही राज्य में उत्पादित होता था। नस्ल सुधार और अन्य स्कीम के जरिए दूध का उत्पादन बढ़ाया गया। अब सात लाख टन की जगह राज्य में 16 लाख टन दूध उत्पादित होता है। फिर भी 50 फीसदी की कमी बरकरार है। कुछ साल पुराने आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 76.59 लाख गाय व 13.43 लाख भैंस हैं। बावजूद, राज्य में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत 235 ग्राम की तुलना में महज 140 ग्राम है।
रांची के इटकी प्रखंड से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर हरही जैसे गांव श्वेत क्रांति की राह पकड़ चुके हैं। ग्रामीणों ने नियति से लोहा लेने के लिए गोसेवा को उज्ज्वल भविष्य का जरिया क्या बनाया, इनकी प्रगति की रफ्तार देखकर नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड तक की नजर बरबस उधर को उठी की उठी रह गई। गुजरात के आणंद की भांति हरही और कुछ अन्य गांव के लोग मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' के होरी और धनिया नहीं रहे। स्वावलंबन और समृद्धि इनके कदम चूम रही है। हरही में तकरीबन 200 घर हैं। सामान्य जाति विशेष के लोगों सहित आदिवासी भी यहां बसते हैं। आजीविका का साधन खेती व पशुपालन है और ज्यादा जमीन अनुपजाऊ पर कभी बीपीएल कोटा और कार्ड की आशा रखने वाले ग्रामीण अब समृद्धि के रास्ते पर चल निकले हैं। खपरैल और घास-फूस वाले घरों की जगह पक्के मकानों ने ले ली है। लगभग 150 परिवारों के पास दोपहिया गाड़ी है।गांधी विचार पर शोध में ऊर्जा की कमी वास्तव में विचलित करने वाला तथ्य है। अपने आस-पास फैली अनेक बुराइयों के बावजूद अंततः यह विश्वास हमें ढाढस बंधाता है कि बहुसंख्य समाज आज भी बेहतर मानवीय संकल्पनाओं से ओतप्रोत है। प्रस्तुत आलेख अनुपम मिश्र द्वारा दिए गए दीक्षंत भाषण का दूसरा एवं अंतिम भाग है।
नालंदा और तक्षशिला इन दो नामों के साथ छात्र शब्द की भी एक व्याख्या देंखे- जो गुरु के दोषों को एक छत्र की तरह ढंक दे- वह है छात्र। तो इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी कुछ प्रेरणा दे सकता है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती हैं। संस्थाएं, खासकर शिक्षण संस्थाएं केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनतीं। वे गुरु और छात्रों के सबसे अच्छे संयोग से बनती हैं, उसी से बढ़ती हैं और उसी से टिकती भी हैं। यह बारीक संयोग जब तक वहां बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहे।सवाल उठता है कि बड़ी व विकट होती आपदाओं का सामना करने की तैयारी कैसे करें। यदि हम इन सवालों को एक मुख्य प्राथमिकता बनाएं व सरकार तथा प्रशासन भी इस प्राथमिकता के अनुकूल ही तैयार रहे, तो जलवायु बदलाव के प्रतिकूल दुष्परिणामों को चाहे पूरी तरह न रोका जा सके, पर इन दुष्परिणामों को काफी कम अवश्य किया जा सकता है।
जलवायु बदलाव की समझ रखने वाले अधिकांश विशेषज्ञ व संस्थान यह चुनौती दे रहे हैं कि इस संकट को नियंत्रित करने के लिए बहुत व्यापक प्रयास अभी नहीं हुए तो कुछ वर्षो में हालात हाथ से निकल जाएंगे। इसलिए अब समय आ गया है कि इन्हें बचाने की कोशिशें अभी से शुरू कर दी जाएं। कुछ कदम हैं, जो तुरंत ही उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले तो वनों को बचाना बहुत जरूरी है। अनुमान है कि हमारी दुनिया से हर एक मिनट में तकरीबन 50 फुटबॉल मैदानों के बराबर ट्रॉपिकल या उष्ण कटिबंधीय वन नष्ट हो जाते हैं यानी प्रतिवर्ष 55 लाख हेक्टेयर। कई जगह इन्हें जलाकर नष्ट कर दिया जाता है और सिर्फ इसी वजह से धरती पर 20 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। कहीं इन वनों को काट दिया जाता है। कभी लकड़ी के लिए, कभी उद्योगों के लिए, तो कभी खेती के लिए।
वनों की रक्षा का कार्य सदा से महत्वपूर्ण रहा है। मिट्टी व जल संरक्षण, बाढ़ व सूखे के संकट को कम करने व आदिवासियों-गांववासियों की आजीविका की दृष्टि से वनों !
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