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डाउन टू अर्थ, अक्टूबर 2017
भारतीय द्वीपों में बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा अरब स्थित लक्षद्वीप समूह है। हाल तक अलग-अलग और अनजान से रहे ये द्वीप समूह अब बड़ी तेजी से राष्ट्रीय हलचलों का हिस्सा बनते गए हैं। अब माना जाने लगा है कि ये द्वीप समूह समुद्र में छिपी सम्पदा के नन्हें-नन्हें भण्डार हैं।
बंगाल की खाड़ी में उत्तर से दक्षिण तक कुल 321 द्वीप स्थित हैं- अंडमान समूह के 302 द्वीप और निकोबार समूह के 19 द्वीप। अंडमान समूह के द्वीपों का कुल क्षेत्रफल 6,346 किमी है, जबकि निकोबार समूह के द्वीप 1,953 वर्ग किमी में फैले हैं। दूसरी तरफ लक्षद्वीप समूह में 36 द्वीप हैं।
अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह
केन्द्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह अपनी रणनीतिक अवस्थिति के चलते बहुत महत्त्वपूर्ण बन गए हैं। पर इससे इसकी मुश्किलें, खासकर पानी से जुड़ी तकलीफें, खत्म नहीं हुई हैं। वैसे तो यहाँ औसत 3,000 मिमी वर्षा होती है, पर यहाँ की मुश्किल भौगोलिक बनावट के चलते अधिकांश पानी समुद्र में चला जाता है। साथ ही, यहाँ की जमीन भी मिट्टी और रेत के मिश्रण वाली है। सो, इसमें पानी को थामे रखने की क्षमता बहुत कम है।
भूजल निकालने की कुओं जैसी व्यवस्थाओं के लिये जरूरी है कि जमीन में रेत और कंकड़ हो, जिससे पानी आसानी से रिसकर जमा हो। इतना ही नहीं, यहाँ की जल निकासी व्यवस्था भी अभी तक व्यवस्थित नहीं हो पाई है और पानी के बहाव की दिशा एकदम अनिश्चित है। इसके चलते कोई बड़ा बाँध नहीं बनाया जा सकता। इस सबके बीच विभिन्न तबकों, खासकर पर्यटकों की तरफ से ताजे पानी की माँग बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में भूतल वाली व्यवस्थाओं के साथ ही पानी की नई व्यवस्थाएँ तैयार करना जरूरी हो गया है।
द्वीप समूह की बनावट को साधारण ढलान वाली पहाड़ी इलाकों, संकरी घाटियों और तटीय इलाकों, जिनमें दलदले क्षेत्र शामिल हैं, में बाँटा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र में घने जंगल हैं। उत्तर से दक्षिण की तरफ प्रमुख शृंखला तट से लगी हुई चलती है, जिसकी ऊँचाई उत्तर अंडमान के सैडल पीक पर 732 मीटर और मध्य तथा दक्षिण अंडमान द्वीप समूह के पूर्वी हिस्से में रटलैंड द्वीप पर स्थित माउंड फोर्ड (काला पहाड़) की ऊँचाई 433 मीटर है।
दक्षिण अंडमान द्वीप तक गई यह पर्वत शृंखला समुद्र तल से 60 से 100 मीटर तक ऊँची है। दक्षिण अंडमान के ब्रूक्सबाद-बेडोनाबाद क्षेत्र में इसकी ऊँचाई और कम हो गई है और यह समुद्र तल से 45 से 100 मीटर तथा घाटियों में 35 से 90 मीटर ऊँची रह गई है। छिछला खाड़ी प्रदेश और विशाल तटीय प्रदेश इस क्षेत्र की विशेषता है, जिसमें जगह-जगह गरान के जंगल उगे हैं। पश्चिमी हिस्सा भी ऐसी ही मुश्किल बनावट वाला है और इसमें पूर्वी हिस्से से कम विभिन्नताएँ हैं। पश्चिमी क्षेत्र की संकरी घाटियों के बीच से निकली पर्वत शृंखला भी यहाँ की मुश्किलें बढ़ाती है जिसकी ऊँचाई 70 से 140 मीटर है। इसके बाद तीखी ढलान वाले इलाके आते हैं, जो कहीं-कहीं एकदम खराब भूखण्ड पर खत्म होते हैं।
642 मीटर ऊँचाई वाला माउंट थुलियर और इससे जुड़ी पहाड़ियाँ ग्रेट निकोबार द्वीप समूह तक गई हैं। ये समुद्री अवसाद से बनी पहाड़ियाँ हैं। आधी से लेकर 2 किमी तक चौड़ाई वाले तटीय मैदान पूर्वी इलाके में हैं जबकि पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में इसकी चौड़ाई एक से 3.5 किमी तक है और ये थोड़ा उठे भी हैं। यहाँ जल संचय बहुत आम और व्यापक स्तर पर होता रहा है, जैसा कि 1950 के दशक के प्रारम्भ में एक यात्री ने लिखा है, “अनेक सोते, छोटे तालाब, कच्चे गड्ढे और कुएँ हर गाँव में हैं और कुछ जगहों पर लोगों और जानवरों की जरूरतों के लिये सीमेंट के छोटे हौज भी बने हैं।”
भौगोलिक बनावट, प्राकृतिक रचना के प्रकार और बरसात के हिसाब से अलग-अलग द्वीपों के आदिवासियों ने बरसाती पानी और भूजल के संचय और उपयोग की अलग-अलग विधियाँ विकसित की थीं। जैसे, ग्रेट निकोबार द्वीप के शास्त्री नगर के आस-पास का इलाका इस द्वीप के उत्तरी हिस्से की तुलना में काफी खराब बनावट वाला है। यहाँ नंगी कठोर चट्टानें खुली पड़ी हैं, पर शोंपेन आदिवासियों ने जल संचय के लिये इनका बहुत कौशलपूर्ण उपयोग किया है। ढलान पर नीचे बुलेटवुड के लट्ठों को लगाकर बाँध डाले जाते थे और पानी जमा किया जाता था। आज जहाज, जेट्टी और मकान बनाने में यही लकड़ी लगती है और इसका अकाल हो गया है। शोंपेन आदिवासियों को यह लकड़ी शायद ही कभी मिल पाती है। इसी के चलते अब ऐसे बाँधों का बनना भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
शोंपेन और जारवा आदिवासी बाँस को चीरकर उनका उपयोग जल संचयन में किया करते हैं। बाँस को काटकर जमीन की ढलान के हिसाब से नीचे ठीक से जमा दिया जाता है और यही बाँस बिखरते बरसाती पानी को समेटकर छिछले गड्ढों में ला देता है। इन गड्ढों को ‘जैकवेल’ कहा जाता है। अक्सर फटे बाँस से पेड़ों के आस-पास की जमीन को घेर दिया जाता है जिससे उनके पत्तों से होकर गिरने वाला पानी संग्रहित किया जा सके। ये गड्ढे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक से उफनकर दूसरे में पानी जाने का रास्ता भी इन्हीं फटे बाँसों से घेरकर बनाया जाता है। यह पानी आखिरकार सबसे बड़े ‘जैकवेल’ में जमा होता है, जिसकी गहराई 7 मीटर और गोलाई करीब छह मीटर हुआ करती है।
पानी जमा करने के अन्य तरीकों में बरसात के समय नारियल के पेड़ के नीचे कोई बरतन या घड़ा रखना भी शामिल है। बरतन के मुँह पर एक डाल लगा दी जाती है जिससे आस-पास जा रहा ताजा पानी भी इसमें आ जाये। चूँकि लोग यहाँ नारियल का पानी खूब पीते हैं, इसलिये पेयजल की उनकी जरूरतें काफी कम हैं। ओंगी आदिवासी अपनी छतों से गिरने वाले पानी को बर्तनों में भरते हैं। अक्सर इसके लिये वे अपनी लकड़ी और बाँस वाली टोकरियों को छत के किनारे लटका देते हैं।
ग्रेट निकोबार द्वीप के शोंपेन आदिवासी केला, अनानास और अनेक जंगली फल तथा सब्जियाँ उगाते हैं। इनको सिंचित करने के लिये वे ऊँचाई से खेतों तक जलमार्ग बनाते हैं। बरसात का पानी इनसे होकर खेतों में जमा होता है। आदिवासी लोग जल संचय के समय जमीन की बनावट और ढलान जैसी चीजों का ध्यान रखते हैं। अंडमान में वे 2 मीटर गुणा 3 मीटर से 4 मीटर गुणा 5 मीटर के आयताकार तालाब खोदना पसन्द करते हैं। ऐसा लगता है कि आदिवासियों को मालूम है कि ये चट्टानें इस आकार में आसानी से कटती हैं।
दूसरी ओर कार निकोबार के आदिवासी अपेक्षाकृत समतल, नरम मिट्टी वाली जमीन और 2 से 3 मीटर भूजल स्तर पर गोलाकार कुएँ खोदते हैं। यहाँ 2 से 20 मीटर व्यास वाले कुएँ हैं। यहाँ से गुजरने वाले जहाजों पर से फेंके गए बरतनों का प्रयोग करके कुएँ खोदते हैं। इन कुओं के किनारों-किनारे भी वही खास लकड़ी लगाई जाती है जिसका उपयोग बाँध बनाने में होता है। ‘बुलेटवुड’ कही जाने वाली यह लकड़ी पानी में नहीं सड़ती। लट्ठों के बीच 10-20 सेमी जगह छोड़ दी जाती है जिससे रिसाव होकर पानी अन्दर आ सके। बीमार लोगों को कुओं के पास नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि पानी में उनका छूत फैल जाने का खतरा होता है।
कहाँ जमीन खोदने से पानी निकलेगा, यह निश्चित करने वाला आदिवासी कबीलों के तरीके बहुत दिलचस्प हैं। जारवा कबीले के प्रधान ही यह काम करते हैं। जमीन पर पैर थपथपाकर और पदचाप की अनुगूँज सुनकर वे तय करते हैं कि कहाँ पानी है। कार निकोबार द्वीप के निकोबारी आदिवासी नारियल के पेड़ के रंग-रूप और फल देखकर पानी का अन्दाजा लगाते हैं। अगर कच्चे नारियल का पानी मीठा निकला, इसका मतलब उसके नीचे स्थित भूजल खारा है। इसके ठीक उलट नारियल का पानी नमकीन होने का मतलब भूजल का मीठा होना है। इन कुओं से निकलने वाले पानी की मात्रा कई चीजों पर निर्भर करती है, जिनमें पानी किस रफ्तार में पुनरावेशित होता है, किस मौसम में पानी निकाला जाता है, जमीन की बनावट और उसकी भौगोलिक अवस्थिति आदि शामिल हैं।
ग्रेट निकोबार की कैंपबेल खाड़ी के निकट स्थित कुओं में मानसून के समय तो आराम से दो से तीन मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में यह 0.5 से 0.8 मीटर से ज्यादा नहीं होता।
दक्षिण अंडमान द्वीप में पम्प से पानी निकालने सम्बन्धी जाँचों से यह पता चला है कि रेतीले इलाकों (कोरबाइहन कोव में) यह 120 मिनट में पुनरावेशित होता है, पर चट्टानी, खासकर लावा से बने, इलाकों में इसमें 500 मिनट का समय लगता है। इसलिये ज्यादातर कुओं से पानी निकालने के दो समय चक्र रखने से काम बनेगा। मानसून के दौरान रोज 1.5 मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में 0.6 मीटर ही। प्रति व्यक्ति रोजाना औसत 40 लीटर पानी का प्रयोग मानें तब भी आदिवासियों द्वारा विकसित पारम्परिक प्रणालियाँ उनकी जरूरतों के लिये पर्याप्त हैं।
पर दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश आज उपेक्षित और बदहाल हैं। रख-रखाव कमजोर पड़ने से उनका ढाँचा भी खत्म हुआ जा रहा है। गाद भरने से उनकी क्षमता में ह्रास हुआ है। तटीय इलाकों में समुद्री कचरा इन व्यवस्थाओं के अन्दर आ गिरा है। 20 मीटर व्यास तक के कुएँ अब त्याग दिये गए हैं, क्योंकि उनका पानी गन्दा और खारा हो चुका है। तट की रेत और कंकड़ वाली जमीन अत्यधिक रिसाव वाली होती है और समुद्री खारा पानी आसानी से जलभरों तक पहुँच जाता है। इस बीच सरकार ने भी कई बस्तियों में नलकूप गाड़ने शुरू किये हैं और इनका असर भी पुरानी व्यवस्थाओं पर पड़ा है।
1980 के दशक के आखिरी दिनों में सरकार ने पारम्परिक व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिये कुछ कदम उठाए थे। कुछ कुएँ अंडमान के लोक निर्माण विभाग ने अपने हाथ में लिये थे। उनको साफ किया गया, उनको सीमेंट लगाकर दुरुस्त किया गया। पर दुर्भाग्य से इसमें भी कुछ गलतियाँ हुईं और यह पूरा ही अभियान बन्द कर दिया गया।
अंडमान के चर्चित सेलुलर जेल, जिसमें आजादी की लड़ाई के सबसे ‘खतरनाक’ कैदियों को कालापानी की सजा के तहत रखा जाता था, को पानी देने के लिये अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया डिल्थावन तालाब भी आज बदहाल है।
आज यही अनेक पारम्परिक व्यवस्थाएँ काम नहीं कर रही हैं। लेकिन अभी भी अगर उन पर ध्यान दिया जाये तो वे लोगों की पानी सम्बन्धी जरूरतें पूरी कर सकती हैं। इस द्वीप समूह पर पानी की माँग जिस तेजी से बढ़ रही है उसे सिर्फ पारम्परिक प्रणालियों से ही पूरा किया जा सकता है, क्योंकि यही यहाँ की जलवायु, जमीन और संस्कृति के माफिक बैठती है। पानी को आगे की जरूरतों के लिये यहाँ कम-से-कम 25 बाँध और 1400 कुओं की जरूरत पड़ेगी। एक बाँध करीब 12 लाख रुपए में तैयार होता है और एक कुएँ पर 9,000 रुपए खर्च होते हैं।
यहाँ बहुत आधुनिक व्यवस्था कारगर नहीं हो सकती और यहाँ के मूल निवासी ही पानी के मामले में सबसे अच्छे गाइड हो सकते हैं। ‘जैकवेल’ की शृंखलाओं के सहारे भूजल निकालना और बाँसों तथा बाँधों के सहारे भूतल के पानी को संग्रहित करना अभी भी उपयोगी, टिकाऊ और सबसे कम खर्चीला है।
लक्षद्वीप समूह
लक्षद्वीप समूह को भारत का “प्रवाल स्वर्ग” कहा जाता है। केरल तट से 225 से 450 किमी दूरी तक अरब सागर में मोतियों की शृंखला की तरह बिखरे 36 द्वीपों वाला यह प्रदेश देश का सबसे छोटा केन्द्र शासित प्रदेश है। इनका कुल क्षेत्रफल सिर्फ 32 वर्ग किमी है। इन 36 में से सिर्फ 10 द्वीपों पर ही लोग रहते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण द्वीपों में कवारत्ती (जो यहाँ की राजधानी है), अगत्ती, आमिनी, कदमत चेतलत, बित्रा, मिनीकाय और बंगरम हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार इस द्वीप समूह की कुल आबादी 51,707 है।
लक्षद्वीप में खूब बारिश होती है और औसत वार्षिक वर्षा 1600 मिमी है। जून से सितम्बर तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून यहाँ खूब वर्षा कराती है। नवम्बर से मार्च के बीच उत्तर-पूर्वी मानसून भी यहाँ कभी-कभी वर्षा लाती है। इतनी बरसात के बावजूद यहाँ पेयजल की भयंकर कमी है। इसका मुख्य कारण जंगलों और वनस्पतियों का अभाव तथ जमीन की बनावट है। बित्रा जैसे द्वीपों में समुद्र रिसाव के चलते भूजल भी खारा है।
समुद्री प्रवालों के ठूह से यहाँ कई कच्ची पर्वतमालाएँ बन गई हैं। यहाँ की जमीन की बनावट समतल है और इसमें जैविक ढंग से बदलाव (पहाड़ बनने वगैरह) के लक्षण नहीं दिखते। सोतों और जल निकासी मार्गों की अनुपस्थिति भी इसी चलते होंगे। समुद्री अवशेषों वाले कचरे से बनी जमीन अत्यधिक रिसाव वाली भी है। सम्भवतः इसके चलते भी पानी का प्रवाह नहीं मिलता। इन द्वीपों में ताजा पानी की सतह रेत के 0.5-1.5 मीटर नीचे मिलती है। लोग यहीं से पेयजल प्राप्त करते हैं। समुद्री लहरों और खारे पानी के आने से यह व्यवस्था प्रभावित होती है। वर्षा की कमी या भूजल को ज्यादा मात्रा में निकालने से भी मीठे पानी की कमी होती है और खारा पानी जलभरों में समा जाता है।
पेयजल के लिये द्वीप समूह के लोग कुओं और बावड़ियों पर निर्भर हैं। लगभग हर घर में कुआँ है। कवारत्ती में करीब 800 कुएँ हैं तो आमिनी में 650 से ज्यादा। चूँकि यहाँ ताजा जल का अभाव रहता है, सो लोगों ने जल संग्रह और संरक्षण का महत्त्व जान लिया है और उसी के अनुरूप अपना जीवन भी ढाल लिया है। नहाने-धोने के लिये वे तालाबों और बावड़ियों का प्रयोग करते हैं। आमतौर पर कुओं के ऊपरी भाग को ईंट-सीमेंट से पक्का किया जाता है और नीचे का हिस्सा खुला छोड़ दिया जाता है।
दक्षिण भारत के मन्दिरों की तरह लक्षद्वीप की हर मस्जिद से एक तालाब जुड़ा हुआ है। अपनी किताब ‘लक्षद्वीप’ में मुकुन्दन लिखते हैं, “सभी द्वीपों पर सैकड़ों की संख्या कुएँ, कुछ तालाब और कुछेक संरक्षित कुएँ हैं। तालाबों में ही नहाने-धोने का काम होता है। ये अक्सर मस्जिदों से जुड़े होते हैं। पर अब ये काफी गन्दे हो गए हैं। यहाँ औरतों और मर्दों के नहाने की व्यवस्था अलग-अलग है। इन तालाबों और असंख्य गड्ढों में मच्छरों का डेरा बन गया है।”
इन तालाबों का पानी पीने लायक नहीं है और इनमें कई रोगों के जीवाणु भी पाये जाते हैं। स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिये सरकार ने बरसाती पानी को संग्रहित करने वाली कई व्यवस्थाएँ विकसित करने की कोशिश की है। सरकारी दस्तावेज, “ग्राउंडवाटर रिसोर्सेज एंड मैनेजमेंट इन लक्षद्वीप” में कहा गया है “भूजल के उपयोग से पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों के मद्देनजर द्वीप समूह के अधिकारियों ने कवारी स्थित 176 सरकारी क्वार्टरों के लिये बरसाती पानी संग्रहित करने की व्यवस्था की। इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 8,026 वर्ग मीटर है और पानी की टंकियों की कुल क्षमता 645 घनमीटर है। बरसात का सिर्फ 20 फीसदी पानी संग्रहित हो जाये तो ये टंकियाँ साल में चार-चार बार भरी जा सकती हैं।”
प्राक्कलन समिति की 76वीं रिपोर्ट (1988-89) के अनुसार, “आमिनी और कदमत में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति बनाने के लिये बरसाती पानी को (छत से) जमा करने वाली व्यवस्थाएँ बनाई जा रही हैं। यह योजना अन्य द्वीपों में लागू होगी।” इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “1987-88 में केन्द्र सरकार की ग्रामीण जलापूर्ति योजना को भी लक्षद्वीप में लागू किया गया। इस योजना में हर घर में पानी की टंकियाँ लगाना, कुओं को ठीक करना और चापाकल लगाना शामिल है। 1987-88 और 1988-89 में दो द्वीपों पर 950 टंकियाँ लगाने और नौ सार्वजनिक कुओं को ठीक करने पर 47.59 लाख रुपए खर्च का प्रावधान है। यह योजना आमिनी, कदमत और कवारत्ती में अभी-अभी शुरू हुई है।”
इन व्यवस्थाओं के बावजूद लक्षद्वीप में आज पानी की भारी कमी है। भूजल और बरसाती पानी को संचित करने वाली पारम्परिक प्रणालियों को पुनर्जीवित और दुरुस्त करना ही एकमात्र विकल्प है। द्वीप समूह की अधिकांश बावड़ियाँ, जो पुरानी तकनीक का अनुपम उदाहरण हैं, आज उपेक्षित पड़ी हैं। छतों से बरसाती पानी को संचित करने का काम प्राथमिकता के आधार पर करना होगा।
सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक ‘बूँदों की संस्कृति’ से साभार