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नदियों के बारे में चिंतन का एक दार्शनिक अंदाज कुछ यूँ भी है कि एक नदी को हम ज्यादा देर तक एकटक कहाँ देख पाते हैं? जिसे हम देख रहे होने का भ्रम पाले रहते हैं, दरअसल वह नदी तो कुछ ही क्षणों में हमारे सामने से ओझल हो जाती है। उसके प्रवाहमय पानी के लिये- फिर नई जमीन, नया आसमान, नये किनारे, नये पत्थर और नये लोग होते हैं। हम तो वहीं रहते हैं फिर ओझल होने वाली नई नदी को हम देख रहे होते हैं। प्रवाह ही नदी का परिचय है, लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 18 मई की सुबह एक शख्स नदी के प्रवाह की तरह एकाएक हमसे ओझल हो जाएगा जो अपने तमाम परिचयों के बीच नदी चिंतक के सर्वप्रिय परिचय के रूप में अपने प्रशंसकों के बीच पहचाना जाता हो।
भारत सरकार के पर्यावरण मंत्री और मध्यप्रदेश से सांसद श्री अनिल माधव दवे जी का एकाएक स्वर्गवास हो गया। उनके निधन से देश और विशेषकर मध्यप्रदेश स्तब्ध है। दरअसल अनिल दवे का व्यक्तित्व इंद्रधनुषीय आभामंडल लिये हुए था लेकिन इन सब में सबसे गहरा और आकर्षित रंग तो उनका नर्मदा अनुराग था।
मध्यप्रदेश के झाबुआ में आदिवासी परंपरा हलमा को पुनर्जीवित कर हजारों जल संरचनाएं बनाने की कोशिश में जुटे महेश शर्मा से विशेष मुलाकात के बाद तैयार प्रोफाइल
तेरह सौ गाँवों को पानीदार बनाने की कोशिश
45-48 डिग्री तापमान में उस उजाड़ इलाके में लू के सनसनाते थपेड़ों और तेज धूप में पखेरू भी पेड़ों की छाँह में सुस्ताने लगते हैं, ऐसे में एक आदमी अपने जुनून की जिद में गाँव–गाँव सूखे तालाबों को गहरा करवाने, नए तालाब बनाने और जंगलों को सुरक्षित करने की फ़िक्र में घूम रहा हो तो इस जज्बे को सलाम करने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है।
बात मध्य प्रदेश के झाबुआ आदिवासी इलाके में करीब तेरह सौ गाँवों को पानी और पर्यावरण संपन्न बनाने में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता महेश शर्मा की है। वे यूँ तो बीते चालीस सालों से समाज को समृद्ध बनाने के लिये स्वस्थ पर्यावरण की पैरवी करते हुए काम करते रहे हैं लेकिन बीते दस सालों से उन्होंने अपना पूरा फोकस आदिवासी गाँवों पर ही कर दिया है। इस बीच उन्होंने आदिवासियों की अल्पज्ञात परम्परा हलमा को पुनर्जीवित किया तथा पंद्रह हजार से ज़्यादा आदिवासियों के साथ मिलकर खुद श्रमदान करते हुए झाबुआ शहर के पास वीरान हो चुकी हाथीपावा पहाड़ी पर पचास हजार से ज़्यादा कंटूर ट्रेंच (खंतियाँ) खोद कर साल दर साल इसे बढ़ाते हुए पहाड़ी को अब हरियाली का बाना ओढ़ा दिया है।
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अनिल दवे : एक नदी चिंतक का अचानक यूँ चले जाना…
नदियों के बारे में चिंतन का एक दार्शनिक अंदाज कुछ यूँ भी है कि एक नदी को हम ज्यादा देर तक एकटक कहाँ देख पाते हैं? जिसे हम देख रहे होने का भ्रम पाले रहते हैं, दरअसल वह नदी तो कुछ ही क्षणों में हमारे सामने से ओझल हो जाती है। उसके प्रवाहमय पानी के लिये- फिर नई जमीन, नया आसमान, नये किनारे, नये पत्थर और नये लोग होते हैं। हम तो वहीं रहते हैं फिर ओझल होने वाली नई नदी को हम देख रहे होते हैं। प्रवाह ही नदी का परिचय है, लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 18 मई की सुबह एक शख्स नदी के प्रवाह की तरह एकाएक हमसे ओझल हो जाएगा जो अपने तमाम परिचयों के बीच नदी चिंतक के सर्वप्रिय परिचय के रूप में अपने प्रशंसकों के बीच पहचाना जाता हो।
भारत सरकार के पर्यावरण मंत्री और मध्यप्रदेश से सांसद श्री अनिल माधव दवे जी का एकाएक स्वर्गवास हो गया। उनके निधन से देश और विशेषकर मध्यप्रदेश स्तब्ध है। दरअसल अनिल दवे का व्यक्तित्व इंद्रधनुषीय आभामंडल लिये हुए था लेकिन इन सब में सबसे गहरा और आकर्षित रंग तो उनका नर्मदा अनुराग था।
जल, जंगल जमीन के कामों को समर्पित व्यक्तित्व : महेश शर्मा
मध्यप्रदेश के झाबुआ में आदिवासी परंपरा हलमा को पुनर्जीवित कर हजारों जल संरचनाएं बनाने की कोशिश में जुटे महेश शर्मा से विशेष मुलाकात के बाद तैयार प्रोफाइल
तेरह सौ गाँवों को पानीदार बनाने की कोशिश
45-48 डिग्री तापमान में उस उजाड़ इलाके में लू के सनसनाते थपेड़ों और तेज धूप में पखेरू भी पेड़ों की छाँह में सुस्ताने लगते हैं, ऐसे में एक आदमी अपने जुनून की जिद में गाँव–गाँव सूखे तालाबों को गहरा करवाने, नए तालाब बनाने और जंगलों को सुरक्षित करने की फ़िक्र में घूम रहा हो तो इस जज्बे को सलाम करने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है।
बात मध्य प्रदेश के झाबुआ आदिवासी इलाके में करीब तेरह सौ गाँवों को पानी और पर्यावरण संपन्न बनाने में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता महेश शर्मा की है। वे यूँ तो बीते चालीस सालों से समाज को समृद्ध बनाने के लिये स्वस्थ पर्यावरण की पैरवी करते हुए काम करते रहे हैं लेकिन बीते दस सालों से उन्होंने अपना पूरा फोकस आदिवासी गाँवों पर ही कर दिया है। इस बीच उन्होंने आदिवासियों की अल्पज्ञात परम्परा हलमा को पुनर्जीवित किया तथा पंद्रह हजार से ज़्यादा आदिवासियों के साथ मिलकर खुद श्रमदान करते हुए झाबुआ शहर के पास वीरान हो चुकी हाथीपावा पहाड़ी पर पचास हजार से ज़्यादा कंटूर ट्रेंच (खंतियाँ) खोद कर साल दर साल इसे बढ़ाते हुए पहाड़ी को अब हरियाली का बाना ओढ़ा दिया है।
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
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