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मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में एक संगठन अकेले दम पर फ्लोराइड के खिलाफ जंग छेड़े हुये है और उसे इसमें खासी सफलता भी मिल रही है।
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले का जिक्र आते ही दिमाग में एक छवि कौंधती है। तीर कमान थामे अल्पवस्त्रों में आधुनिक संस्कृति से दूर रहने वाले भील और भिलाला जनजाति के लोग। लेकिन झाबुआ जिला मुख्यालय पहुँचकर यह छवि काफी हद तक ध्वस्त हो चुकी होती है। आधुनिक संस्कृति अब इन दूरदराज गाँवों तक पहुँच चुकी है। लोगों की नैसर्गिक निश्छलता के सिवा कमोबेश सभी चीजें बदल चुकी हैं। नहीं बदली है तो स्वास्थ्य के मोर्चे पर बदहाली। सरकारी प्रयासों से संचार के साधन तो विकसित हो गये हैं लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर जागरूकता की कमी ने राह रोक रखी है। खासतौर पर पानी में फ्लोराइड की अधिकता व उससे होने वाले नुकसान जैसी अपेक्षाकृत वैज्ञानिक समस्याओं को लेकर जागरूकता पैदा करना तो अवश्य टेढ़ी खीर रही होगी।
वैसे तो वे एक वकील हैं, एक राजनीतिक दल के समर्पित कार्यकर्ता भी हैं, लेकिन उनके दिल और दिमाग में हर समय जो मचलता रहता है, वह है अपनी धरती को आधुनिकता से उपजे प्रदूषण से मुक्त करना। वे हिण्डन नदी बचाने के आन्दोलन में भी उतने ही सक्रिय रहते हैं जितना कि गौरेया संरक्षण में और उतना ही पाॅलीथीन प्रयोग पर पाबन्दी को लेकर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद जिले में उनकी पहल पर कई ऐसे काम हो गये जो यहाँ के लाखों बाशिंदों को स्वच्छ हवा-पानी मुहैया करवाने में अनुकरणीय पहल हैं। संजय कश्यप ने एमबीए कर एक कम्पनी में प्रबंधन की नौकरी की और वह भी कश्मीर घाटी में वहाँ वे बाँध व जल प्रबंधन को नजदीक से देखते तो रहे, लेकिन कभी पर्यावरण संरक्षण जैसी कोई भावना दिल में नहीं उपजी।
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फ्लोराइड से जंग में खामोश जीत
मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में एक संगठन अकेले दम पर फ्लोराइड के खिलाफ जंग छेड़े हुये है और उसे इसमें खासी सफलता भी मिल रही है।
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले का जिक्र आते ही दिमाग में एक छवि कौंधती है। तीर कमान थामे अल्पवस्त्रों में आधुनिक संस्कृति से दूर रहने वाले भील और भिलाला जनजाति के लोग। लेकिन झाबुआ जिला मुख्यालय पहुँचकर यह छवि काफी हद तक ध्वस्त हो चुकी होती है। आधुनिक संस्कृति अब इन दूरदराज गाँवों तक पहुँच चुकी है। लोगों की नैसर्गिक निश्छलता के सिवा कमोबेश सभी चीजें बदल चुकी हैं। नहीं बदली है तो स्वास्थ्य के मोर्चे पर बदहाली। सरकारी प्रयासों से संचार के साधन तो विकसित हो गये हैं लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर जागरूकता की कमी ने राह रोक रखी है। खासतौर पर पानी में फ्लोराइड की अधिकता व उससे होने वाले नुकसान जैसी अपेक्षाकृत वैज्ञानिक समस्याओं को लेकर जागरूकता पैदा करना तो अवश्य टेढ़ी खीर रही होगी।
जल, जंगल और जमीन का जुनून: संजय कश्यप
वैसे तो वे एक वकील हैं, एक राजनीतिक दल के समर्पित कार्यकर्ता भी हैं, लेकिन उनके दिल और दिमाग में हर समय जो मचलता रहता है, वह है अपनी धरती को आधुनिकता से उपजे प्रदूषण से मुक्त करना। वे हिण्डन नदी बचाने के आन्दोलन में भी उतने ही सक्रिय रहते हैं जितना कि गौरेया संरक्षण में और उतना ही पाॅलीथीन प्रयोग पर पाबन्दी को लेकर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद जिले में उनकी पहल पर कई ऐसे काम हो गये जो यहाँ के लाखों बाशिंदों को स्वच्छ हवा-पानी मुहैया करवाने में अनुकरणीय पहल हैं। संजय कश्यप ने एमबीए कर एक कम्पनी में प्रबंधन की नौकरी की और वह भी कश्मीर घाटी में वहाँ वे बाँध व जल प्रबंधन को नजदीक से देखते तो रहे, लेकिन कभी पर्यावरण संरक्षण जैसी कोई भावना दिल में नहीं उपजी।
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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