तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

अमलानंद घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया (1952-53)। इन खोजों ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा/घग्गर के सूखे नदीतल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज की धार बदलना था।
क्या लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है? पिछले सौ साल से अधिक के भूगर्भ विज्ञान और पुरातत्व के शोध और गंभीर अध्ययन को नकारते हुए भारत सरकार के संस्कृति विभाग के मंत्री ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ कहा था कि ‘इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था...।’ वास्तव में यह वक्तव्य मंत्री की गैर-जानकारी का उदाहरण नहीं हो सकता। यह तब के सरकार की राजनीतिक बेबसी से ग्रस्त था। वामपंथी दल गठबंधन में अहम थे और स्वभावतः वे हर मसले को अपने राजनीतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी न किसी प्रकार संबंधित इतिहासकार भी इसी नजरिए से त्रस्त हैं।पहले वर्षा का बहुत–सा पानी तालाबों-पोखरों में समा जाता था। इन पर अतिक्रमण या इन्हें पाट दिए जाने के कारण यह पानी बाढ़ का सबब बनता है और रिहायशी इलाके या खेती को चौपट करता है। आज भी बाढ़ और सूखे दोनों का समाधान यही है कि इन तालाबों पोखरों को साफ और गहरा किया जाए और इनमें पानी आने के मार्ग अवरोध-मुक्त किए जाएं।
हाल के वर्षों में विश्व का एक बड़ा क्षेत्र बाढ़ के बेहद विनाशक दौर से गुजरा है। पिछले वर्ष अनेक देशों खासकर ब्राजील, आस्ट्रेलिया और श्रीलंका में बाढ़ ने कहर बरपाया था। ब्राजील के मुख्य शहर भी इस अति-विनाशकारी बाढ़ की चपेट में आए और वहां सात सौ से अधिक लोग मारे गए। आस्ट्रेलिया में बाढ़ जब अपने चरम पर थी तो बाढ-प्रभावित क्षेत्र जर्मनी और फ्रांस इन दो देशों के संयुक्त क्षेत्रफल की बराबरी कर रहा था। श्रीलंका में बाढ़ के कारण इतनी व्यापक क्षति हुई कि स्थानीय राहत-प्रयास पर्याप्त नहीं हो सके; भारत और चीन तक से सहायता पहुंचानी पड़ी। पाकिस्तान में तो बाढ़ ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए; वहां लगभग सत्तर लाख परिवार पिछले वर्ष की बाढ़ से प्रभावित हुए।अमलानंद घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया (1952-53)। इन खोजों ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा/घग्गर के सूखे नदीतल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज की धार बदलना था।
क्या लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है? पिछले सौ साल से अधिक के भूगर्भ विज्ञान और पुरातत्व के शोध और गंभीर अध्ययन को नकारते हुए भारत सरकार के संस्कृति विभाग के मंत्री ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ कहा था कि ‘इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था...।’ वास्तव में यह वक्तव्य मंत्री की गैर-जानकारी का उदाहरण नहीं हो सकता। यह तब के सरकार की राजनीतिक बेबसी से ग्रस्त था। वामपंथी दल गठबंधन में अहम थे और स्वभावतः वे हर मसले को अपने राजनीतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी न किसी प्रकार संबंधित इतिहासकार भी इसी नजरिए से त्रस्त हैं।पहले वर्षा का बहुत–सा पानी तालाबों-पोखरों में समा जाता था। इन पर अतिक्रमण या इन्हें पाट दिए जाने के कारण यह पानी बाढ़ का सबब बनता है और रिहायशी इलाके या खेती को चौपट करता है। आज भी बाढ़ और सूखे दोनों का समाधान यही है कि इन तालाबों पोखरों को साफ और गहरा किया जाए और इनमें पानी आने के मार्ग अवरोध-मुक्त किए जाएं।
हाल के वर्षों में विश्व का एक बड़ा क्षेत्र बाढ़ के बेहद विनाशक दौर से गुजरा है। पिछले वर्ष अनेक देशों खासकर ब्राजील, आस्ट्रेलिया और श्रीलंका में बाढ़ ने कहर बरपाया था। ब्राजील के मुख्य शहर भी इस अति-विनाशकारी बाढ़ की चपेट में आए और वहां सात सौ से अधिक लोग मारे गए। आस्ट्रेलिया में बाढ़ जब अपने चरम पर थी तो बाढ-प्रभावित क्षेत्र जर्मनी और फ्रांस इन दो देशों के संयुक्त क्षेत्रफल की बराबरी कर रहा था। श्रीलंका में बाढ़ के कारण इतनी व्यापक क्षति हुई कि स्थानीय राहत-प्रयास पर्याप्त नहीं हो सके; भारत और चीन तक से सहायता पहुंचानी पड़ी। पाकिस्तान में तो बाढ़ ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए; वहां लगभग सत्तर लाख परिवार पिछले वर्ष की बाढ़ से प्रभावित हुए।
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