उत्तराखण्ड में पानी, घास, लकड़ी की जिम्मेदारी महिलाओं के हिस्से आ जाती है। पुरुष यदि कुछ भी नहीं कर रहा हो तो भी महिला ही पानी इत्यादि की व्यवस्था करती है। राज्य के पौड़ी जनपद के रामजीवाला गाँव की महिलाओं से जानने से पता चला कि उनका रात्रि का आधा और शाम का पूरा समय पानी ढोने में ही बीत जाता था। अपने लिये उनका कोई समय ही नहीं बचता था, इसलिये इस क्षेत्र की अधिकांश महिलाएँ लिकोरिया, रक्तचाप जैसी संक्रमण बीमारी से ग्रसित हैं।
हालांकि मौजूदा समय में गाँव में वर्षाजल संग्रहण की पुख्ता व्यवस्था हो चुकी है, परन्तु वे बातचीत में पानी की समस्या की पीड़ा बताने को कभी नहीं भूलतीं। उनकी वह असहनीय पीड़ा एक बारगी के लिये झकझोर कर रख देती है। नव-विवाहिता गाँव में ब्याह करने के पश्चात कई दिनों तक तनाव में रहती है कि उसे डेढ़ से दो किमी दूर से पानी ढोना पड़ता है।
कुछ समय बाद तो उसकी नियति ही बन जाती है कि उसे पानी की व्यवस्था ऐसे ही करनी होगी। गाँव में परस्पर स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाओं ने पानी के संकट की कहानी खुलकर बताई। हमने जानने की कोशिश की है कि बरसात के पानी को लेकर संग्रहण के बारे में वे क्या कहती हैं और उनके कष्ट जो पानी से जुड़े हैं उन पर वे क्या सोचते हैं? प्रस्तुत इस बातचीत के प्रमुख अंश-
लक्ष्मी देवी
लक्ष्मी देवी का मायका पौखाल में है। वे 10 वर्ष पहले रामजीवाला गाँव में ब्याह कर आई थीं। उसे क्या मालूम था कि पानी की व्यवस्था करने रामजीवाला गाँव से लगभग डेढ़ से दो किमी पैदल की पगडंडी नापनी पड़ेगी। वह भी सर पर 20 ली. पानी का बंटा ढोकर खड़ी चढ़ाई पार करते हुए वापस गाँव पहुँचती हैं। वह आगे बताती हैं कि वर्तमान में जब एक संस्था के सहयोग से उनके घर में एक टंकी का निर्माण हुआ तो इस टंकी के निर्माण पर एक हजार लीटर पानी लगा। यह पानी भी उसी स्रोत से ढोया गया जो गाँव से डेढ़ से दो किमी दूर है।
कमला देवी
कमला देवी का मायका भृगुखाल है। वे अपने मायके का अनुभव बताती हैं कि वहाँ थोड़ी सी वर्षा होने पर भी गाँव में जगह-जगह ‘छोया’ (प्राकृतिक जलस्रोत) फूट पड़ते थे। ऐसा उसे रामजीवाला में पिछले 60 वर्षों में दिखाई नहीं दिया। वे आगे बताती हैं कि पहले-पहल सिर्फ बंटा ही एक मात्र साधन था जिससे पानी की सुविधा जुटाई जाती थी। कई चक्कर गाँव से जलस्रोत के लगते थे। मगर जब से प्लास्टिक के बर्तन आये तब से थोड़ा राहत मिली। वे कहती हैं कि उनके गाँव में पाइपलाइन है पर पानी नहीं आता है।
यमकेश्वर से रामजीवाला 30 किमी पर पानी लिफ्ट किया गया। जिस दिन पाइप लाइन का काम पूरा हुआ उसी दिन उक्त पाइप लाइन में पानी दिखा। इस पाइप लाइन को बने हुए 10 वर्ष हो गए। अब तो पाइप लाइन क्षतिग्रस्त हो गई। मगर उन्हें ‘बिराई नामे तोक’ तक पानी के लिये जाना ही पड़ता है।
मैना देवी
मैना देवी कहती हैं कि उनकी उम्र 62 वर्ष हो गई है। वे ताउम्र इस गाँव में पानी की किल्लत झेलती रहीं। रामजीवाला गाँव में पाइप लाइन भी आई तो उन्हें पेयजल की समस्या से निजात नहीं मिली। यहाँ तो बरसात के पानी को एकत्रित करना ही सबसे बड़ी चुनौती है। कहती हैं कि जब उनके पास वर्षाजल एकत्रित करने का कोई साधन नहीं था तो उन्हें अमूमन ‘बिराड़ी नामे’ तोक से दिन में चार बार पानी ढोना ही पड़ता था।
रोशनी देवी
45 वर्षीय रोशनी देवी कहती हैं कि उनका 15 सदस्यीय परिवार है। पाँच लोग घर-पर ही रहते हैं बाकी सब बाहर अपने-अपने रोजगार के लिये रहते हैं। जब सभी सदस्य घर आते थे या घर में कोई मेहमान आ जाये तो उन्हें पानी की समस्या बहुत सताती थी। वे इस बात से सन्तुष्ट हैं कि जब से उनके घर में वर्षाजल संग्रहण का टैंक बना तब से उन्हें दिन में एक ही बार पानी के लिये दूर जाना पड़ता है वरना दिन में चार बार तो पानी ढोना ही पड़ता था।
साधना देवी
26 वर्षीय साधना देवी का मायका केष्टा गाँव से है। उनके मायके के घर में पानी से सम्बन्धित कोई समस्या नहीं है। इसलिये साधना को यह पहला अनुभव हुआ कि पानी की भी खतरनाक समस्या होती है। वे ससुराल में यदि किसी समस्या से जूझी तो पानी की। साधना को भी अन्य ग्रामीणों की तरह डेढ़ से दो किमी दूर पानी के लिये जाना पड़ा। वह भी सिर के ऊपर 20 ली. का बंटा और खड़ी चढ़ाई पार करते हुए गाँव पहुँचना होता है। इस तरह पानी का प्रबन्धन रोज साधना को करना पड़ता था। कहती हैं कि नहाने के लिये भी सोचना पड़ता था कि कब नहाएँ।
पद्मा देवी
पद्मादेवी का अनुभव भी निराला है। उनके घर-पर हाल ही में हिमकॉन संस्था द्वारा टैंक निर्माण करवाया जा रहा है। उन्हें इस वक्त ‘पाणीसार’ से गाँव तक और ‘गाँव से पाणीसार’ तक नौ-नौ चक्कर पानी ढोने के लगाने पड़ते हैं। इस दौरान जो पानी एकत्रित करती हैं वह सिर्फ टंकी निर्माण के काम में आता है। यानि की पद्मादेवी को इस दौरान पानी ढोने के कुल 15-15 चक्कर लगाने पड़े हैं।
कुसुम
33 वर्षीय कुसुम को पानी जुटाना जितनी उनके लिये शारीरिक थकान थी उससे अधिक ‘पानी नाम’ ही उन्हें मानसिक तनाव देता था। खैर अब तो वे सिर्फ पीने के पानी का ही इन्तजाम करती हैं। यानि गाँव से डेढ़ किमी दूर से।
रेशमा देवी
40 वर्षीय रेशमा देवी को पानी के संकट ने मायके से लेकर ससुराल तक उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसे कुछ सुझा नहीं कि पानी की समस्या का कोई समाधान हो सकता है। वह जब कहानियाँ सुनती थीं कि फलाँ गाँव में पाइप लाइन से पानी के साथ कीड़े निकल रहे हैं या फलाँ गाँव के जलस्रोत सूखने के कगार पर है और गाँव के लोगों को पानी के लिये दूर जाना पड़ सकता है। उसे लगता था कि शायद यह कहानियाँ हैं। जबकि यह हकीकत है। रेशमा देवी को अब आभास हुआ कि जलस्रोत ही नहीं बरसात के पानी का भी उपयोग किया जा सकता है।
बचुली देवी
61 वर्षीय बचुली देवी कहती हैं कि खुद के लिये और पशुओं के लिये पानी की व्यवस्था करना रामजीवाला गाँव में किसी युद्ध को जीतने से कम नहीं था। वे वर्षों से इस समस्या का सामना कर रही हैं। उसकी ढलती उम्र के दौरान हिमकॉन संस्था ने जो पानी की सुविधा की है उस खुशी में उनकी आँखें छलक आती हैं। वे बातों-ही-बातों में कहती हैं कि अब तो उन्हें पानी के लिये 10 चक्कर के बजाय दिन में एक ही चक्कर जाना पड़ता है।
वर्षाजल का संग्रहण और उसका उपयोग
हिमकॉन संस्था ने एक्वामाल वाटर सोल्यूशन लि. देहरादून के सहयोग से गाँव में 5000-5000 ली. के 36 फेरोसीमेंट टैंक बनवाए। महिलाओं का कहना है कि कपड़े धोना, बर्तन धोना, पशुओं को पानी पिलाना, हाथ-पाँव धुलना, छोटे-मोटे कपड़े धुलना, शौच आदि के लिये इस टैंक में जमा वर्षाजल का भरपूर उपयोग हो रहा है। सिर्फ पीने का पानी उसी स्रोत से एक बार जाकर के ले आती हैं। इस टैंक के ऊपर ‘स्लो सैंड फिल्टर’ इसलिये लगवाया गया कि लोग इसे पीने के लिये भी प्रयोग में लाये।
वे कहती हैं कि इतना ध्यान रखना पड़ता है कि जिस छत का पानी वे एकत्रित कर रहे हैं वह छत साफ-सुथरी है कि नहीं। 52 वर्षीय मंजू देवी का अनुभव अपने समूह की महिलाओं से जुदा है। वे कहती हैं कि जब उनके गाँव में हिमकॉन संस्था के सहयोग से महिलाओं के समूह का गठन हुआ तो कुछ ग्रामीणों ने उनकी मजाक उड़ा दी। वे समूह से जुड़ी रही। यही वजह है कि संस्था के सहयोग से हर घर में पाँच-पाँच हजार ली. के टैंक का निर्माण हो पाया।