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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Shivendra on Fri, 12/19/2014 - 16:09
Source:
पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 190 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे।

12 दिनों तक चलने वाले इस शिखर सम्मलेन का आयोजन यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के 12,500 राजनीतिज्ञ, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। लेकिन यह सम्मलेन रस्म अदायगी का एक और सम्मलेन बनकर रह गया जिसमें कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला।

इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिए मसौदा तैयार करना था, ताकि 2015 में पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें।
Submitted by Shivendra on Fri, 12/19/2014 - 10:04
Source:
Kishor sagar talab
कलम और तलवार दोनों के समान धनी महाराज छत्रसाल ने सन् 1907 में जब छतरपुर शहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाड़ियों और बारिश के दिनों में वहाँ से बहकर आने वाले पानी की हर बूँद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच से सड़क व उसके किनारे बस्तियाँ।

सन् 1908 में ही इस शहर को नगरपलिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले बेहद पिछड़े थे से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास जैसे सभी कारणों के लिए लोग यहाँ आकर बसने लगे।

आजादी मिलने के बाद तो यहाँ का बाशिन्दा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस शहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहाँ की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी।जिस तालाब की लहरें कभी आज के छत्रसाल चौराहे से महल के पीछे तक और बसोरयाना से आकाशवाणी तक उछाल मारती थीं, वहाँ अब गन्दगी, कंक्रीट के जंगल और बदबू रह गई है।

भले ही मामला राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने है, लेकिन यह तय है कि पूरे साल पानी के लिए कराहते छतरपुर शहर को अपने सबसे बड़े व नए ‘‘किशोर सागर’ की दुर्गति करने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।

बुन्देलखण्ड का मिजाज है कि हर पाँच साल में दो बार कम बारिश होगी ही, इसके बावजूद अस्सी के दशक तो छतरपुर शहर में पानी का संकट नहीं था। इस बीच यहाँ बाहर से आने वाले लोगों की बाढ़ आ गई। उनकी बसाहट और व्यापार के लिए जमीन की कमी आई तो शहर के दर्जन भर तालाबों के किनारों पर लोगों ने कब्जे शुरू कर दिए। उन दिनों तो लोगों को लगा था कि पानी की आपूर्ति नल या हैण्डपम्प से होती है।

जब लोगों को समझ आया कि नल या भूजल का अस्तित्व तो उन्हीं तालाबों पर निर्भर है जिन्हे वे हड़प गए हैं, बहुत देर हो चुकी थी। किशोर सागर कानपुर से सागर जाने वाले राजमार्ग पर है, उसके आसपास नया छतरपुर बसना शुरू हुआ था, सो किशोर सागर पर मकान, दुकान, बाजार, मॉल, बैक्वेट सभी कुछ बना दिए गए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से कब्जे करने वालों में अधिकांश रसूखदार लोग ही है।

अभी कुछ सालों में बारिश के दौरान वहाँ बनी कालोनी के घरों में पानी भरने की दिक्कतें आनी शुरू हुईं। कुछ लोगों ने प्रशासन को कोसना भी शुरू किया, उन्हें पता नहीं था कि तालाब उनके घर में नहीं, बल्कि वे तालाब में घुसे बैठे हैं। बीच-बीच में कुछ शिकायतें होती रहीं, कई बार जाँच भी हुईं लेकिन हर बार भूमाफिया, राजस्व अफसर साँठ-गाँठ कर ऐसे दस्तावेज सामने रखते कि छतरपुर के सरकारी स्कूल से कर अस्पताल तक तो तालाब पर अवैध कब्जे दिखते, लेकिन वहाँ जल निधि के बीच बने घर और दुकानें निरापद रहते।

किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया।

आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहाँ का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।

यह बात हमारे संविधान के मूल कर्तव्यों में दर्ज है, सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में समय-समय पर कहती रही है, पर्यावरण मन्त्रालय के दिशा निर्देश भी हैं और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश भी कि - किसी भी नाले, नदी या तालाब, नहर, वन क्षेत्र जो कि पर्यावरण को सन्तुलित करने का काम करते हैं, वहाँ किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं किया जा सकता।

किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया। आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़ कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहां का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।

यही ही नहीं ऐसी जल-निधियों के जल ग्रहण क्षेत्र या कैचमेण्ट एरिया के चारों ओर चालीस फुट दायरे में भी कोई निर्माण नहीं हो सकता। किशोर सागर में तो निर्माण कर उसे डेढ़ एकड़ में समेट दिया गया। मामला ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल शाखा में गया। चूँकि इसमें घपलों, गड़बड़ियों की अनन्त शृंखलाएँ हैं, सो सही स्थिति जानने में कई बाधाएँ आईं। यही नहीं ट्रिब्यूनल कलेक्ट के खिलाफ गैर जमानती वारण्ट भी जारी कर चुका है।

भू-अभिलेख कार्यालय, ग्वालियर ने सेटेलाईट व अत्याधुनिक तकनीक वाली टीएसएम से तालाब के असली रकबे की जाँच हुई। उसके बाद 07 अगस्त 2014 को एनजीटी की भोपाल बेंच के न्यायमूर्ति दलीप सिंह ने विस्तृत आर्डर जारी कर 1978 के बाद निर्मित तथा तालाब के मूल स्वरूप के जलग्रहण क्षेत्र से नौ मीटर भीतर के सभी निर्माण गिराने, तालाब के आसपास हरियाली विकसित करने के आदेश दिए।

जब जमीन की लूट में सब शामिल हों तो तालाब की नपाई, गिराए जाने वाले मकानों को तय करने में रोड़े तो अटकाए जाने ही हैं। 11 बार नाप जोख होने के बावजूद भी अभी तक धरातल पर तालाब नहीं उभर पाया है। चूँकि अब तालाब पर सैंकड़ों मकान बन गए हैं सो यह मानवीय, सियासती मुद्दा भी बन गया है।

किशोर सागर तो एक बानगी मात्र है- छतरपुर शहर के दो दर्जन, जिले के हजार, बुन्देलखण्ड के बीस हजार और देश भर के कई लाख तालाबों की त्रासदी लगभग इसी तरह की है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे।

एक आँकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। तब पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए।

देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पाँच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी-न-किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केन्द्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोंद्धार (आर आर आर) के लिए योजना बनाई।

ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केन्द्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत् इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं।

भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपए में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबन्दी ने देश को तालाबविहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आँकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपए खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।

जरा अपने आसपास देखें, ना जाने कितने किशोर सागर समय से पहले मरते दिख रहे होंगे, असल में ये तालाब नहीं मर रहे हैं, हम अपने आने वाले दिनों की प्यास को बढ़ा रहे है, जल संकट को बढ़ा रहे हैं, धरती के तापमान को बढ़ा रहे हैं।

Submitted by Shivendra on Sun, 12/14/2014 - 10:24
Source:
सर्वोदय प्रेस सर्विस, दिसंबर 2014
केंद्र की नई सरकार में पर्यावरण की अनदेखी तो मन्त्रिमण्डल गठन से ही प्रारम्भ हो गई थी जब कोई पूर्णकालीन पर्यावरण व वन मन्त्री नहीं बनाया गया। प्रकाश जावड़ेकर को वन व पर्यावरण मन्त्रालय के साथ सूचना व प्रसारण दिया गया था। इसके बाद निर्धारित समय में सर्वोच्च न्यायालय में मन्त्रालय ने उत्तराखण्ड की जलविद्युत परियोजनाओं से जैव विविधता पर पड़ रहे प्रभाव की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की। यह रिपोर्ट 10 अक्टूबर 2014 को न्यायालय में प्रस्तुत की जानी थी। इस लेटलतीफी से नाराज होकर न्यायालय ने सरकार से कहा कि वह कुम्भकर्ण जैसा व्यवहार कर रही है।

पिछली यूपीए सरकार में पर्यावरण सम्बन्धित काफी कठोर नियम कानून बनाए थे, जिससे कई उद्योगपति एवं औद्योगिक घराने नाराज थे। यह दलील दी जा रही थी कि कठोर नियम कानून से देश में पूँजी निवेश एवं आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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पर्यावरण सन्तुलन पर सहमति की कवायद

Submitted by Shivendra on Fri, 12/19/2014 - 16:09
Author
शशांक द्विवेदी
.पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 190 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे।

12 दिनों तक चलने वाले इस शिखर सम्मलेन का आयोजन यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के 12,500 राजनीतिज्ञ, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। लेकिन यह सम्मलेन रस्म अदायगी का एक और सम्मलेन बनकर रह गया जिसमें कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला।

इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिए मसौदा तैयार करना था, ताकि 2015 में पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें।

और किशोर सागर बन गया ‘बूढ़ा नाबदान’

Submitted by Shivendra on Fri, 12/19/2014 - 10:04
Author
पंकज चतुर्वेदी
Kishor sagar talab
.कलम और तलवार दोनों के समान धनी महाराज छत्रसाल ने सन् 1907 में जब छतरपुर शहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाड़ियों और बारिश के दिनों में वहाँ से बहकर आने वाले पानी की हर बूँद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच से सड़क व उसके किनारे बस्तियाँ।

सन् 1908 में ही इस शहर को नगरपलिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले बेहद पिछड़े थे से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास जैसे सभी कारणों के लिए लोग यहाँ आकर बसने लगे।

आजादी मिलने के बाद तो यहाँ का बाशिन्दा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस शहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहाँ की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी।जिस तालाब की लहरें कभी आज के छत्रसाल चौराहे से महल के पीछे तक और बसोरयाना से आकाशवाणी तक उछाल मारती थीं, वहाँ अब गन्दगी, कंक्रीट के जंगल और बदबू रह गई है।

भले ही मामला राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने है, लेकिन यह तय है कि पूरे साल पानी के लिए कराहते छतरपुर शहर को अपने सबसे बड़े व नए ‘‘किशोर सागर’ की दुर्गति करने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।

बुन्देलखण्ड का मिजाज है कि हर पाँच साल में दो बार कम बारिश होगी ही, इसके बावजूद अस्सी के दशक तो छतरपुर शहर में पानी का संकट नहीं था। इस बीच यहाँ बाहर से आने वाले लोगों की बाढ़ आ गई। उनकी बसाहट और व्यापार के लिए जमीन की कमी आई तो शहर के दर्जन भर तालाबों के किनारों पर लोगों ने कब्जे शुरू कर दिए। उन दिनों तो लोगों को लगा था कि पानी की आपूर्ति नल या हैण्डपम्प से होती है।

जब लोगों को समझ आया कि नल या भूजल का अस्तित्व तो उन्हीं तालाबों पर निर्भर है जिन्हे वे हड़प गए हैं, बहुत देर हो चुकी थी। किशोर सागर कानपुर से सागर जाने वाले राजमार्ग पर है, उसके आसपास नया छतरपुर बसना शुरू हुआ था, सो किशोर सागर पर मकान, दुकान, बाजार, मॉल, बैक्वेट सभी कुछ बना दिए गए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से कब्जे करने वालों में अधिकांश रसूखदार लोग ही है।

अभी कुछ सालों में बारिश के दौरान वहाँ बनी कालोनी के घरों में पानी भरने की दिक्कतें आनी शुरू हुईं। कुछ लोगों ने प्रशासन को कोसना भी शुरू किया, उन्हें पता नहीं था कि तालाब उनके घर में नहीं, बल्कि वे तालाब में घुसे बैठे हैं। बीच-बीच में कुछ शिकायतें होती रहीं, कई बार जाँच भी हुईं लेकिन हर बार भूमाफिया, राजस्व अफसर साँठ-गाँठ कर ऐसे दस्तावेज सामने रखते कि छतरपुर के सरकारी स्कूल से कर अस्पताल तक तो तालाब पर अवैध कब्जे दिखते, लेकिन वहाँ जल निधि के बीच बने घर और दुकानें निरापद रहते।

किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया।

आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहाँ का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।

यह बात हमारे संविधान के मूल कर्तव्यों में दर्ज है, सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में समय-समय पर कहती रही है, पर्यावरण मन्त्रालय के दिशा निर्देश भी हैं और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश भी कि - किसी भी नाले, नदी या तालाब, नहर, वन क्षेत्र जो कि पर्यावरण को सन्तुलित करने का काम करते हैं, वहाँ किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं किया जा सकता।

किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया। आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़ कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहां का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।

यही ही नहीं ऐसी जल-निधियों के जल ग्रहण क्षेत्र या कैचमेण्ट एरिया के चारों ओर चालीस फुट दायरे में भी कोई निर्माण नहीं हो सकता। किशोर सागर में तो निर्माण कर उसे डेढ़ एकड़ में समेट दिया गया। मामला ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल शाखा में गया। चूँकि इसमें घपलों, गड़बड़ियों की अनन्त शृंखलाएँ हैं, सो सही स्थिति जानने में कई बाधाएँ आईं। यही नहीं ट्रिब्यूनल कलेक्ट के खिलाफ गैर जमानती वारण्ट भी जारी कर चुका है।

भू-अभिलेख कार्यालय, ग्वालियर ने सेटेलाईट व अत्याधुनिक तकनीक वाली टीएसएम से तालाब के असली रकबे की जाँच हुई। उसके बाद 07 अगस्त 2014 को एनजीटी की भोपाल बेंच के न्यायमूर्ति दलीप सिंह ने विस्तृत आर्डर जारी कर 1978 के बाद निर्मित तथा तालाब के मूल स्वरूप के जलग्रहण क्षेत्र से नौ मीटर भीतर के सभी निर्माण गिराने, तालाब के आसपास हरियाली विकसित करने के आदेश दिए।

जब जमीन की लूट में सब शामिल हों तो तालाब की नपाई, गिराए जाने वाले मकानों को तय करने में रोड़े तो अटकाए जाने ही हैं। 11 बार नाप जोख होने के बावजूद भी अभी तक धरातल पर तालाब नहीं उभर पाया है। चूँकि अब तालाब पर सैंकड़ों मकान बन गए हैं सो यह मानवीय, सियासती मुद्दा भी बन गया है।

किशोर सागर तो एक बानगी मात्र है- छतरपुर शहर के दो दर्जन, जिले के हजार, बुन्देलखण्ड के बीस हजार और देश भर के कई लाख तालाबों की त्रासदी लगभग इसी तरह की है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे।

एक आँकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। तब पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए।

देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पाँच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी-न-किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केन्द्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोंद्धार (आर आर आर) के लिए योजना बनाई।

ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केन्द्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत् इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं।

भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपए में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबन्दी ने देश को तालाबविहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आँकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपए खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।

खत्म होने के कगार पर किशोर सागर तालाबजरा अपने आसपास देखें, ना जाने कितने किशोर सागर समय से पहले मरते दिख रहे होंगे, असल में ये तालाब नहीं मर रहे हैं, हम अपने आने वाले दिनों की प्यास को बढ़ा रहे है, जल संकट को बढ़ा रहे हैं, धरती के तापमान को बढ़ा रहे हैं।

पर्यावरण से प्रतिद्वन्द्विता

Submitted by Shivendra on Sun, 12/14/2014 - 10:24
Author
ओ.पी. जोशी
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, दिसंबर 2014
.केंद्र की नई सरकार में पर्यावरण की अनदेखी तो मन्त्रिमण्डल गठन से ही प्रारम्भ हो गई थी जब कोई पूर्णकालीन पर्यावरण व वन मन्त्री नहीं बनाया गया। प्रकाश जावड़ेकर को वन व पर्यावरण मन्त्रालय के साथ सूचना व प्रसारण दिया गया था। इसके बाद निर्धारित समय में सर्वोच्च न्यायालय में मन्त्रालय ने उत्तराखण्ड की जलविद्युत परियोजनाओं से जैव विविधता पर पड़ रहे प्रभाव की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की। यह रिपोर्ट 10 अक्टूबर 2014 को न्यायालय में प्रस्तुत की जानी थी। इस लेटलतीफी से नाराज होकर न्यायालय ने सरकार से कहा कि वह कुम्भकर्ण जैसा व्यवहार कर रही है।

पिछली यूपीए सरकार में पर्यावरण सम्बन्धित काफी कठोर नियम कानून बनाए थे, जिससे कई उद्योगपति एवं औद्योगिक घराने नाराज थे। यह दलील दी जा रही थी कि कठोर नियम कानून से देश में पूँजी निवेश एवं आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
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लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
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चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
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यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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