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मसनद पे बिठाये जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे
फैज
भोपाल गैस त्रासदी को इस 3 दिसंबर को 30 बरस हो जाएंगे। त्रासदी में अनुमानतः 15 हजार से 22 हजार लोग मारे गए थे और 5,70,000 भोपाल निवासी या तो घायल हुए या बीमार और अब तक घिसट-घिसटकर अपना जीवन जी रहे हैं। इन तीस वर्षों में कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट, समाजवादी, तृणमूल से लेकर अन्नाद्रमुक व द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार पर काबिज हुए और चले गए। यानि ताज उछाले भी गए और तख्त गिराए भी गए, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। लेकिन हम देखते ही रहे।
इन तीन दशकों में न्यायालयों से आए एकमात्र फैसले में कुछ लोगों को नामालूम सी प्रतीत होने वाली सजाएं भी हुई और वे जमानत पर छूट गए। इस पूरी त्रासदी का मुख्य सूत्रधार वारेन एंडरसन अपनी 90 बरस से अधिक की आयु प्राप्त कर अमेरिका में चैन की नींद सो गया और हम यहां दस्तूर की तरह हर बरस उसका पुतला जलाते और अगले बरस का इंतजार करते रहे।
प्रभावितों के संगठन अपनी लंबी थका देने वाली संघर्ष यात्रा के बावजूद डटे रहे हैं, लेकिन वे भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। कलंक भरे इन तीन दशकों ने भारत नामक राष्ट्र की परिकल्पना और उसके सरोकारों पर बढ़े प्रश्न खड़े किए हैं। भोपाल के थानों में आज यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के बजाए संभवतः पीड़ितों पर अधिक मुकदमें दर्ज हैं। इससे जाहिर होता है कि लोकतंत्र में अंततः सरकारें अपने ही लोगों के सामने होती हैं।
न्यायालयीन व कानूनी प्रक्रिया की आड़ में भोपाल गैस त्रासदी पीड़ित कमोवेश धीरे-धीरे दुनिया छोड़ रहे हैं और कुछ वर्षों में उनके संस्मरण भी संभवतः हिरोशिमा परमाणु बम प्रभावितों की तरह सारी दुनिया को झकझोरेंगे। परंतु यहां स्थितियां भिन्न हैं। हिरोशिमा युद्ध का शिकार हुआ था और यहां हम कथित विकास का शिकार हुए हैं। हां, एक समानता जरूर है कि इन दोनों ही त्रासदियों में अमेरिका की शत-प्रतिशत भागीदारी थी। एक में सरकार के और दूसरे में कंपनी के माध्यम से। यानि युद्ध हो या विकास दोनों में अमेरिका का व्यवहार एक सा ही होता है।
गौरतलब है सन् 1973 में ऑस्कर पुरस्कार को ठुकराते हुए प्रसिद्ध अभिनेता मार्लन ब्रांडो ने कहा भी था कि एक स्तर के बाद अमेरिका अपना प्रभुत्व स्थापित करने में दोस्ती व दुश्मनी की सीमा को भूलकर एक सी क्रूरता पर आमादा हो जाता है। अपने अनूठे लेख एनिमल फार्म भाग-2 में अरुंधति राय, तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश का भाषण कुछ इस तरह लिखती हैं, “अमेरिका में हम अलमारी में बम नहीं, प्रेत रखते हैं। हमारे प्रिय प्रेतों के भी प्यार से बुलाने वाले नाम हैं। उन्हें शांति, स्वाधीनता और मुक्त बाजार कहा जाता है। उनके असली नाम क्रूज मिसाइल, डेजी कटर और बंकर बस्टर है। हम क्लस्टर बम भी पसंद करते हैं। हम उसे क्लेयर कहकर बुलाते हैं। वह सचमुच बहुत खूबसूरत है और बच्चे उसके साथ खेलना पसंद करते हैं और फिर वह उनके चेहरे पर फट पड़ती है और उन्हें लंगड़ा लूला बना देती है या मार देती है।”
तो हम विकास के अमेरिकी क्लेयर से खेल रहे हैं? विश्व व्यापार संगठन को लेकर हुआ हालिया टीएफए समझौता भारत के गरीबों व किसानों के लिए क्लेयर से कम साबित नहीं होगा। परंतु इस सबके बीच सवाल यह उठ रहा है कि अंततः हमारी सरकारें कर क्या रही हैं? भोपाल गैस कांड में मृतकों की बढ़ती संख्या को लेकर दायर मुकदमें में अब तो म.प्र. सरकार हिस्सेदारी ही नहीं करना चाहती।
केंद्र सरकार के एजेंडे से तो यह त्रासदी बहुत पहले बाहर हो चुकी है और सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय व सत्र न्यायालय पिछले तीस वर्षों से अपने-अपने तर्कों और कानून के दायरों में इस मामले में न्याय करने हेतु प्रयासरत हैं।
गैस प्रभावित अब अमेरिका के न्यायालयों में भी न्याय की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें हर जगह से निराशा ही हाथ लग रही है। बीसवीं सदी के नौवें दशक में हुई त्रासदी को इक्कीसवीं सदी का पहला दशक भी किसी परिणिति पर नहीं पहुंचा पाया। हमारी सारी लड़ाई अब मृतकों की संख्या और मुआवजे के इर्द-गिर्द समेट दी गई है। ऐसा अनायास नहीं हुआ। सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ और पीड़ित समुदाय इस मकड़जाल में फंस गया और अब वह बाहर निकलने के लिए जितने अधिक हाथ पैर मारता है उतना ही उलझता जाता है। मजेदार बात यह है कि भारत की सरकारें उद्योग स्थापित करने की औपचारिकताएं पूरा करने के लिए समय सीमा तय करने में दिन रात एक कर रही हैं। वहीं अपनी इस आपाधापी में यह भूल रही हैं कि राज्य का या व्यवस्था का मुख्य कार्य व्यापार को प्रोत्साहित करना नहीं वरन् उसके शासन की परिधि में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति फिर वह चाहे अमीर हो या गरीब न्यायपूर्ण व्यवस्था उपलब्ध कराना है। यह बात ही समझ से परे है कि भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय व मुआवजा दिलवाना किस तरह सिर्फ गैर सरकारी संगठनों की ही जवाबदारी बनकर रह गया?
वहीं दूसरी ओर देश व दुनियाभर के संगठनों की आवाजें सरकार को इस दिशा मेें बाध्य क्यों नहीं कर पा रही हैं? सन् 1984 के बाद अमेरिका के कमोबेश सभी राष्ट्रपति और भारत के अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे के देशों का औपचारिक दौरा किया है। लेकिन इस मामले पर कभी भी कोई सार्थक या स्पष्ट चर्चा सामने नहीं आई। इस गणतंत्र दिवस पर बराक ओबामा विशेष अतिथि के रूप में आ रहे हैं। क्या भारत सरकार उनसे इस विषय पर बात करने का साहस दिखाएगी?
गैस प्रभावित अब अमेरिका के न्यायालयों में भी न्याय की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें हर जगह से निराशा ही हाथ लग रही है। बीसवीं सदी के नौवें दशक में हुई त्रासदी को इक्कीसवीं सदी का पहला दशक भी किसी परिणिति पर नहीं पहुंचा पाया। हमारी सारी लड़ाई अब मृतकों की संख्या और मुआवजे के इर्द-गिर्द समेट दी गई है। ऐसा अनायास नहीं हुआ। सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ और पीड़ित समुदाय इस मकड़जाल में फंस गया और अब वह बाहर निकलने के लिए जितने अधिक हाथ पैर मारता है उतना ही उलझता जाता है।
भोपाल से लेकर दिल्ली तक और दिल्ली से लेकर अमेरिका तक लोग इस 3 दिसंबर को पुनः इस त्रासदी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करेंगे। ऐसी खबर है कि कनाडा का वाद्यवृंद इस अवसर पर एक विशेष कार्यक्रम भोपाल में देगा।
इस दिन के लिए बनाए गए विशिष्ट गाने की एक पंक्ति का भावार्थ है, “उस दिन जो हवा चली वह आपके लिए विकास का जहर भरा उपहार लाई।” मूल बात यह है कि वह जहरीला विकास अब और अधिक विनाशकारी ढंग से हमारे सामने आ रहा है और हमारा शहरी मध्य वर्ग उस विकास के यशोगाथा गायन में मंजीरा बजा रहा है।
ऐसेे में आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि हम विरोध करने की बंधी-बंधाई रस्मों से बाहर निकलें और इस त्रासद दिन को विकास की नई अवधारणा के मूल्यांकन का दिन माने। हम सभी देख रहे हैं कि सरकारों की निगाहें कहीं हैं और निशाना कहीं और। हमेें अब उनकी आंखों में आंखे डालने के बजाए उस स्थान ध्यान लगाना होगा जहां पर कि वे निशाना लगाना चाहते हैं।
कैग की हालिया रिपोर्ट के अनुसार सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्रों) की वजह से राष्ट्र को प्रत्यक्ष करों की गैरअदायगी से सीधे-सीधे 84 हजार करोड़ रु. का नुकसान हुआ है और यदि पूरी कर हानि की गणना करें तो यह राशि करीब 1.75 लाख करोड़ रु. तक पहुंचती है। वहीं भोपाल गैस पीड़ित कितने मुआवजे की मांग कर रहे हैं? मगर सरकारों को इस तरह से सोचने की आदत ही नहीं है। जनआंदोलनों का कोशिश होना चाहिए कि सरकारों को इस तरह से सोचने की आदत पड़े।
देशभर में चल रहे संघर्षों को अब नए सिरे से विमर्श करना होगा और एकजुटता बनानी होगी। कुछ ऐसे उपाय सोचने होंगे जिससे कि शासन तंत्र को उनके पास आने को मजबूर होना पड़े और पीड़ित को याचक बनने की पीड़ा से मुक्ति मिल सके।
हमने ताज भी उछाल दिए, तख्त भी गिरा दिए लेकिन मनचाहा निजाम उस नए मसनद पर अभी तक नहीं बैठा पाए।
भारत सरकार के जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय द्वारा 20 नवंबर से 22 नवंबर, 2014 के बीच आयोजित जल मंथन बैठक समाप्त हो गई।
बैठक का पहला और दूसरा दिन भारत सरकार और राज्य सरकारों के बीच संचालित तथा प्रस्तावित महत्वपूर्ण योजनाओं पर चर्चा के लिये नियत था। इस चर्चा में उपर्युक्त योजनाओं से लगभग असहमत समूह को सम्मिलित नहीं किया गया था। तीसरे दिन के सत्र में सरकारी अधिकारी और स्वयंसेवी संस्थानों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। तीसरे दिन के सत्र में स्वयं सेवी संस्थानों ने अपने-अपने कामों के बारे में प्रस्तुतियां दीं।
इस दौरान जल संसाधन मंत्री उपस्थित रहीं। उन्होंने प्रस्तुतियों को ध्यान से देखा और सुना, अपनी प्रतिक्रिया दी और कामों को सराहा।
समापन सत्र में अनुशंसाएं प्रस्तुत हुईं। जल संसाधन मंत्री ने बताया कि अगले साल 13 से 17 जनवरी के बीच जल सप्ताह मनाया जाएगा। भारत के प्रत्येक जिले में पानी की दृष्टि से संकटग्रस्त एक गांव को ‘जलग्राम’ के रूप में चुनकर जल संकट से मुक्त किया जाएगा।
जल संकट से मुक्ति का सीधा-सीधा अर्थ है, चयनित ग्राम में पानी की माकूल व्यवस्था। तालाबों, नदी-नालों, कुओं और नलकूपों में प्रदूषणमुक्त स्वच्छ पानी। बारहमासी जल संरचनाएं। खेती और आजीविका के लिये भरपूर पानी।
प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये पानी। दूसरे शब्दों में चयनित गांव में स्थाई रूप से जल स्वराज। जल संसाधन मंत्री का यह फैसला पूरे देश में जल स्वराज की राह आसान करता है।
जाहिर है बरसात का पानी, धरती की प्यास बुझा तथा जल संकट को समाप्त करने वाली ताल-तलैयों को लबालब कर गांव छोड़ेगा। नदियों के प्रवाह को यथासंभव जिंदा रखेगा। यदि सरकार अभियान को आगे चलाती है तो देश के सारे गांव उसके दायरे में आएंगे और वह देश में जल संकट मुक्ति का अभियान बनेगा। यही पानी का विकेन्द्रीकृत मॉडल है। जल संसाधन मंत्री की पहल का, समाज द्वारा तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए।
बांध बनाने से प्यासे कैचमेंट अस्तित्व में आते हैं। यही सब नदी जोड़ परियोजनाओं के कारण भी होगा क्योंकि नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत 16 जलाशय हिमालय क्षेत्र में और 58 जलाशय भारतीय प्रायद्वीप में बनेंगे। उनके कमाण्ड में पानी होगा और ऊपर के इलाके पानी को तरसेंगे। भारत में प्यासे कैचमेंटों में जल संकट के निराकरण के लिये पानी की व्यवस्था कैसे होगी? बहुत कठिन प्रश्न है। यह प्रश्न इसलिये कठिन है क्योंकि कैचमेंट के जितने पानी को जलाशय में जमा किया जाता है, उतना पानी लेने से प्यासे कैचमेंट में निस्तार, आजीविका तथा फसलों की सिंचाई के लिये बहुत ही कम पानी बचता है।जल संसाधन मंत्री के बयान और देश में संचालित परियोजनाओं की अवधारणा में गंभीर विरोधाभाष है। जल मंथन के पहले और दूसरे दिन जिन सिंचाई परियोजनाओं पर चर्चा हुई है, उनकी अवधारणा जल स्वराज की अवधारणा से मेल नहीं खाती। सभी जानते हैं कि बांध बनाने से प्यासे कैचमेंट अस्तित्व में आते हैं। यही सब नदी जोड़ परियोजनाओं के कारण भी होगा क्योंकि नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत 16 जलाशय हिमालय क्षेत्र में और 58 जलाशय भारतीय प्रायद्वीप में बनेंगे। उनके कमाण्ड में पानी होगा और ऊपर के इलाके पानी को तरसेंगे।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जल मंथन की गंभीर चर्चा के बाद भारत में प्यासे कैचमेंटों में जल संकट के निराकरण के लिये पानी की व्यवस्था कैसे होगी? बहुत कठिन प्रश्न है। यह प्रश्न इसलिये कठिन है क्योंकि कैचमेंट के जितने पानी को जलाशय में जमा किया जाता है, उतना पानी लेने से प्यासे कैचमेंट में निस्तार, आजीविका तथा फसलों की सिंचाई के लिये बहुत ही कम पानी बचता है। जल संसाधन मंत्री के सोच के अनुसार प्यासे कैचमेंट में बसे ग्रामों में जल संकट दूर करने के लिये यदि पानी बचाया जाता है तो जलाशय में पानी जमा करने की महत्वाकांक्षा पर नकेल लगेगी।
जल संसाधन मंत्री के सुझाव के अनुसार काम करने का मतलब है, पानी का समानता आधारित न्यायोचित बंटवारा। यदि सरकार इस नीति पर काम करना चाहती है तो उसे विकेन्दीकृत जल संचय की अवधारणा पर काम करना होगा। पुराना तरीका छोड़ना होगा अर्थात पानी के तकनीकी चेहरे को मानवीय चेहरे में बदलना होगा।
विकेन्द्रीकृत मॉडल को भविष्य की आयोजना का आधार बनाना होगा। यह राह, न केवल हर बसाहट में जल संकट को समाप्त करेगी वरन नदियों के प्रवाह को अविरलता प्रदान करेगी।
ईमेल : vyas_jbp@rediffmail.com
सरकारें बदलने के साथ ही करोड़ों की योजनाएं बनती और बिगड़ती है। यदाकदा कुछ काम भी होता है, पर वह इस मरती हुई झील को जीवन देने के बनिस्पत सौंदर्यीकरण का होता है। फिर कहीं वित्तीय संकट आड़े आ जाता है तो कभी तकनीकी व्यवधान। हार कर लोगों ने इसकी दुर्गति पर सोचना ही बंद कर दिया है।
तालाब के बिगड़ते हाल पर 11 लोगों को पीएचडी अवार्ड हो चुकी है, पर ‘सागर’ का दर्द लाइलाज है। विडंबना है कि ‘सागर’ में अभी से सूखा है, जबकि अगली बारिश को आने में लगभग तीन महीने हैं। मध्य प्रदेश शासन ने इस सूखाग्रस्त इलाके में जल-व्यवस्था के लिए हाल ही में करोड़ों रुपए मंजूर किए हैं। इन दिनों सागर नगर निगम की किन्नर महापौर कमला बुआ झील की सफाई के लिए जन जागरण कर रही हैं। कुछ लोग आकर किनारों से गंदगी भी साफ कर रहे हैं, लेकिन इससे झील की सेहत सुधरने की संभावना बेहद कम है।
बुदेलखंड की सदियों पुरानी तालाबों की अद्भुत तकनीकी की बानगियों में से एक सागर की झील कभी 600 हेक्टेयर क्षेेत्रफल और 60 मीटर गहरी जल की अथाह क्षमता वाली हुआ करती थी । 1961 के सरकारी गजट में इसका क्षेत्रफल 400 एकड़ दर्ज है। आज यह सिमट कर महज 80 हेक्टेयर ही रह गई है। और पानी तो उससे भी आधे में है। बकाया में खेती होने लगी है और पानी की गहराई तो 20 फीट भी बमुश्किल होगी।
मौजूदा कैचमेंट एरिया 14.10 वर्ग किमी है । 1931 का गजेटियर गवाह है कि इस विशाल झील का अधिकतर हिस्सा सागर के शहरीकरण की चपेट में आ गया है। रिकार्ड मुताबिक मदारचिल्ला, परकोटा, खुशीपुरा, जैसे घने मुहल्ले और यूटीआई ग्राउंड आदि इसी तालाब को सुखा कर बसे हैं।
किवदंतिया हैं कि 11वीं सदी में लाखा नामक बंजारे ने अपने बहु-बेटे की बलि चढ़ा कर इस झील को बनवाया था। जबकि भूवैज्ञानिकों के नजरिए में यह एक प्राकृतिक जलाशय है, जो विंध्याचल का निचला पठार हर तरफ होने के कारण बनी है। यह पठार सागर शहर के पुरव्याऊ टोरी से टाऊन हाल तक फैला है। 19वीं सदी के अंत में पश्चिम की ओर बामनखेड़ी का बांध यहां का जल निर्गमन रोकने के इरादे से बनाया गया था।
आज इस तालाब के तीन ओर घनी बस्तियां हैं जिसकी गंदगी इस ऐतिहासिक धरोहर को लील रही है। विशेषज्ञों का दावा है कि आने वाले कुछ दशकों में यह तालाब सागर का गौरव ना होकर वहां की त्रासदी बन जाएगा।
ऊंची-नीची पठारी बसाहट वाले सागर शहर में पेयजल का भीषण संकट पूरे साल बना रहता है। भूमिगत जल दोहन यहां बुरी तरह असफल रहा है। इसका मुख्य कारण भी तालाब का सूखना रहा है। मध्य प्रदेश के संभागीय मुख्यालय सागर में मस्तिष्क ज्वर, हैजा और पीलिया का स्थाई निवास है। कई शोध कार्यों की रिपोर्ट बताती हैं कि इन संक्रामक रोगों का उत्पादन स्थल यही झील है।
यहां पैदा होने वाली मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे आदि हजारों परिवार के जीवकोपार्जन का जरिया रहा है। तालाब के मरने के साथ-साथ इन चीजों का उत्पादन भी घटा है। सागर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व मछली विषय की विशेषज्ञ डा सुनीता सिंह ने एक रिसर्च रिपोर्ट में बताया है कि बढ़ती गंदगी, बदबू और जलीय वनस्पतियों के कारण इस तालाब का पानी मछलियों के जीवन के लिए जहर बन गया है। गौरतलब है कि यहां कई बार मछलियों की सामूहिक मृत्यू हो चुकी है।
अभी कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं, जहां भीषण दलदल है; जिसमें सुअर लोटा करते हैं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि (जिसे तकनीकी भाषा में यूट्रोफिकेशन कहते हैं) अंतिम चरण में पहुंच गया है।
तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं। दिन में धूप चढ़ते ही तालाब की दुर्गंध इसके करीब रहने वालों का हाल बेहाल कर देती है। तालाब बड़े-बड़े पौधों से पट चुका है, फलस्वरूप पानी के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। मछलियों के मरने का कारण भी यही है। यहां 55 प्रजाति के पादप पल्लव है। इनमें से 33 क्लोराफाइसी, 11 साइनोफाइसी, नौ बस्लिरियाफायसी और दो यूग्नेलोफायसी प्रजाति के हैं। इस झील में साल भर माईक्रोसिस्टर, ऐरोपीनोसा गेलोसीरा, ग्रेनेलारा, पेंडिस्ट्रम और सीनोडेसमस आदि पौधे मिलते हैं।
यहां मिलने वाले माईक्रोफाइट्स यानि बड़े जातिय पौधे अधिक खतरनाक हैं । इनमें पोटेमोसेटन, पेक्टिनेट्स, क्रिसपस, हाईड्रीला-बर्टीसीलीटा, नेलुंबो न्यूसीफीरस आदि प्रमुख हैं। इन पौधों को मानव जीवन के लिए हानिकारक कीटाणुओं की सुविधाजनक शरणस्थली माना जाता है। गेस्ट्रोपोड्स नामक जीवाणु इन पौधों में बड़ी मात्रा में चिपके देखे जा सकते हैं। खतरनाक सीरोकोमिड लार्वा भी यहां पाया जाता है। कई फीट गहरा दलदल और मोटी काई की परत इसे नारकीय बना रही है।
इस तालाब के प्रदूषण का मुख्य कारण इसके चारों ओर बसे नौ घनी आबादी वाले मुहल्ले हैं। गोपालगंज, किशनगंज, शनीचरी, शुक्रवारी, परकोटा, पुरव्याऊ, चकराघाट, बरियाघाट, और रानी ताल की गंदी नालियां सीधे ही इसमें गिरती हैं। नष्ट होने के कगार पर खड़ा इस तालाब की सफाई के नाम पर बुने गए ताने-बाने भी खासे दिलचस्प रहे हैं।
उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार सन् 1900 में पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने सात हजार रूपए खर्च कर इसकी मरम्मत व सफाई करवाई थी। आजादी के बाद तो सागरवासियों ने कई साल तक इस ‘सागर’ की सुध ही नहीं ली। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को जब इसके पर्यावरण का ख्याल आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तालाब के बड़े हिस्से में कंक्रीट के जंगल उग आए थे। पानी बुरी तरह सड़ांध मारने लगा था। सागरवासी कुछ चेते। झील बचाओ समिति गठित हुई। फिर जुलूस, धरनों के जो दौर चले, तो वे आज तक जारी है।
कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि अंतिम चरण में पहुंच गया है। तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं।
19 जनवरी 1988 को उस समय के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ने दो करोड़ तीन लाख 44 हजार रुपए लागत की एक ऐसी परियोजना की घोषणा की जिसमें सागर झील की सफाई और सौंदर्यीकरण दोनों का प्रावधान था। फिर सियासती उठापटक में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बदल गए और योजना सागर के गंदे तालाब में कहीं गुम हो गई। उसी साल हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ‘जन जागरण अभियान’ के तहत सागर आए। उन्होंने जब तालाब के बारे में सुना तो उसे देखने गए व तत्काल सात लाख रूपए के अनुदान की घोषणा कर गए। कुछ दिनों बाद इसकी पहली किश्त इस शर्त के साथ आई कि मजदूरी का भुगतान हरियाणा के रेट से होगा। फिर ताऊ देश के उप प्रधानमंत्री बने, बड़ी उम्मीदों के साथ उनसे गुहार लगाई गई पर तब उन्हें कहां फुर्सत थी सागर की मरती हुई झील के लिए! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में तो ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ नामक बड़ी चमकदार योजना शुरू हुई। उसके बाद शिवराज सिंह ने भी ‘‘जलाभिषेक’’ का लोकलुभावना नारा दिया। ना जाने क्या कारण है कि सागर के ‘सागर’ की तकदीर ही चेत नहीं पा रही है। असल कारण तो यह है कि नारों के जरिए पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण की बात करने वाले नेता तालाबों के रखरखाव और उसके सौंदर्यीकरण में अंतर ही नहीं समझ पाते हैं। तालाब को जरूरत है गहरीकरण, सफाई की और वे उसके किनारे लाईटें लगाने या रंग पोतने में बजट फूंक देते हैं।मध्य प्रदेश के आवास और पर्यावरण संगठन (एपको) द्वारा 1985 में स्वीकृत 19.27 लाख रुपए की योजना का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह पैसा किश्तों में मिला। सत्र 1986-87 में 5.37 लाख रुपए, 87-88 में चार लाख, 88-89 में केवल 8.50 जारी किए गए। यह पैसा सड़ रहे तालाब की सफाई पर ना खर्च कर इसके कथित सौंदर्यीकरण पर लगाया गया। बस स्टैंड से संजय ड्राइव तक 1938 फीट लंबी रिटेनिंग वाल बनाने में ही अधिकांश पैसा फूंक दिया गया। देखते-ही-देखते यह दीवार ढह भी गई। बाकी का पैसा नाव खरीदने, पक्के घाट बनाने या मछली व कॉपर सल्फेट छिड़कने जैसे कागजी कामों पर खर्च दिखा दिया गया।
यह बात जान लेना चाहिए कि अपने अस्तित्व के लिए जूझते इस तालाब को सौंदर्यीकरण से अधिक सफाई की जरूरत है।
झील बचाओ समिति शासन का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के इरादे से समय-समय पर कुछ मनोरंजक आयोजन करते रहते हैं। कभी सूखे तालाब पर क्रिकेट मैच तो कभी पारंपरिक लोक नृत्य राई के आयोजन यहां होते रहते हैं।
कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने पांच करोड़ 83 लाख 88 हजार की एक योजना को मंजूरी दी थी। वैसे तो वह योजना भी फाईलों के गलियारों में भटक रही है, लेकिन उसकी कार्य योजना में इस बात को नजरअंदाज किया गया था कि पुरव्याऊ से गोपालगंज तक के नौ नालों को झील में मिलने से रोके बगैर कोई भी काम झील को जीवन नहीं दे सकता है। झील बचाओ समिति ड्रेजर मशीनों से सफाई पर सहमत नहीं है। उसका कहना है कि झील की सफाई के लिए मशीनें मंगाने मात्र में 22 लाख से अधिक खर्चा आना है। ऐसे में यह काम मजदूरों से करवाना अधिक कारगर और व्यावहारिक होगा।
गर्मी के दिनों में जब तालाब पूरी तरह सूख जाता है, तब जनता के सहयोग से गाद निकालने का काम बहुआयामी होगा। सनद रहे कि इस तालाब की गाद दशकों से जमा हो रहे अपशिष्ट पदार्थों का मलबा है, जो उम्दा किस्म की कंपोस्ट खाद है। यदि आसपास के किसानों से सरकारी सहयोग के साथ-साथ मुफ्त खाद देने की बात की जाए तो हजारों लोग सहर्ष सफाई के लिए राजी हो जाएंगे।
यदि इस तालाब की सफाई और गहरीकरण हो जाए तो यह लाखों कंठों की प्यास तो बुझाएगा ही,, हजारों घरों में चूल्हा जलने का जरिया भी बनेगा। इतना बड़ा ‘सागर’ होने के बावजूद शहरवासियों का साल भर बूंद-बूंद पानी के लिए भटकना दुखद विडंबना ही है। इस ताल की जल क्षमता शहर को बारहों महीने भरपूर पानी देने में सक्षम है। इतने विशाल तालाब में मछली के ठेके के एवज में नगर निगम को कुछ हजार रुपए ही मिलते हैं। यदि तालाब में गंदी नालियों की निकासी रोक दी जाए और चारों ओर सुरक्षा दीवार बन जाए तो यही ताल साल में 50 लाख की मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे दे सकता है। इसके अलावा नौकायन से भी लोगों को रोजगार मिल सकता है।
सागर सरोवर का जीवन शहर के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सीधा जुड़ा हुआ है। इस आकार का तालाब बनाने में आज 50 करोड़ भी कम होंगे। जबकि कुछ लाख रुपयों के साथ थोड़ी-सी निष्ठा व ईमानदारी से काम कर इसे अपने पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है। वैसे भी इन दिनों पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण, वाटर हार्वेस्टिंग जैसे जुमलों का फैशन चल रहा है। सागरवासियों की जागरुकता, राजनेताओं के निष्कपट तालमेल और नौकरशाहों की सूझबूझ की संयुक्त मुहिम अब सागर के सागर को जीवनदान दे सकती है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
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फैज
भोपाल गैस त्रासदी को इस 3 दिसंबर को 30 बरस हो जाएंगे। त्रासदी में अनुमानतः 15 हजार से 22 हजार लोग मारे गए थे और 5,70,000 भोपाल निवासी या तो घायल हुए या बीमार और अब तक घिसट-घिसटकर अपना जीवन जी रहे हैं। इन तीस वर्षों में कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट, समाजवादी, तृणमूल से लेकर अन्नाद्रमुक व द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार पर काबिज हुए और चले गए। यानि ताज उछाले भी गए और तख्त गिराए भी गए, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। लेकिन हम देखते ही रहे।
इन तीन दशकों में न्यायालयों से आए एकमात्र फैसले में कुछ लोगों को नामालूम सी प्रतीत होने वाली सजाएं भी हुई और वे जमानत पर छूट गए। इस पूरी त्रासदी का मुख्य सूत्रधार वारेन एंडरसन अपनी 90 बरस से अधिक की आयु प्राप्त कर अमेरिका में चैन की नींद सो गया और हम यहां दस्तूर की तरह हर बरस उसका पुतला जलाते और अगले बरस का इंतजार करते रहे।
प्रभावितों के संगठन अपनी लंबी थका देने वाली संघर्ष यात्रा के बावजूद डटे रहे हैं, लेकिन वे भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। कलंक भरे इन तीन दशकों ने भारत नामक राष्ट्र की परिकल्पना और उसके सरोकारों पर बढ़े प्रश्न खड़े किए हैं। भोपाल के थानों में आज यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के बजाए संभवतः पीड़ितों पर अधिक मुकदमें दर्ज हैं। इससे जाहिर होता है कि लोकतंत्र में अंततः सरकारें अपने ही लोगों के सामने होती हैं।
न्यायालयीन व कानूनी प्रक्रिया की आड़ में भोपाल गैस त्रासदी पीड़ित कमोवेश धीरे-धीरे दुनिया छोड़ रहे हैं और कुछ वर्षों में उनके संस्मरण भी संभवतः हिरोशिमा परमाणु बम प्रभावितों की तरह सारी दुनिया को झकझोरेंगे। परंतु यहां स्थितियां भिन्न हैं। हिरोशिमा युद्ध का शिकार हुआ था और यहां हम कथित विकास का शिकार हुए हैं। हां, एक समानता जरूर है कि इन दोनों ही त्रासदियों में अमेरिका की शत-प्रतिशत भागीदारी थी। एक में सरकार के और दूसरे में कंपनी के माध्यम से। यानि युद्ध हो या विकास दोनों में अमेरिका का व्यवहार एक सा ही होता है।
गौरतलब है सन् 1973 में ऑस्कर पुरस्कार को ठुकराते हुए प्रसिद्ध अभिनेता मार्लन ब्रांडो ने कहा भी था कि एक स्तर के बाद अमेरिका अपना प्रभुत्व स्थापित करने में दोस्ती व दुश्मनी की सीमा को भूलकर एक सी क्रूरता पर आमादा हो जाता है। अपने अनूठे लेख एनिमल फार्म भाग-2 में अरुंधति राय, तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश का भाषण कुछ इस तरह लिखती हैं, “अमेरिका में हम अलमारी में बम नहीं, प्रेत रखते हैं। हमारे प्रिय प्रेतों के भी प्यार से बुलाने वाले नाम हैं। उन्हें शांति, स्वाधीनता और मुक्त बाजार कहा जाता है। उनके असली नाम क्रूज मिसाइल, डेजी कटर और बंकर बस्टर है। हम क्लस्टर बम भी पसंद करते हैं। हम उसे क्लेयर कहकर बुलाते हैं। वह सचमुच बहुत खूबसूरत है और बच्चे उसके साथ खेलना पसंद करते हैं और फिर वह उनके चेहरे पर फट पड़ती है और उन्हें लंगड़ा लूला बना देती है या मार देती है।”
तो हम विकास के अमेरिकी क्लेयर से खेल रहे हैं? विश्व व्यापार संगठन को लेकर हुआ हालिया टीएफए समझौता भारत के गरीबों व किसानों के लिए क्लेयर से कम साबित नहीं होगा। परंतु इस सबके बीच सवाल यह उठ रहा है कि अंततः हमारी सरकारें कर क्या रही हैं? भोपाल गैस कांड में मृतकों की बढ़ती संख्या को लेकर दायर मुकदमें में अब तो म.प्र. सरकार हिस्सेदारी ही नहीं करना चाहती।
केंद्र सरकार के एजेंडे से तो यह त्रासदी बहुत पहले बाहर हो चुकी है और सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय व सत्र न्यायालय पिछले तीस वर्षों से अपने-अपने तर्कों और कानून के दायरों में इस मामले में न्याय करने हेतु प्रयासरत हैं।
गैस प्रभावित अब अमेरिका के न्यायालयों में भी न्याय की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें हर जगह से निराशा ही हाथ लग रही है। बीसवीं सदी के नौवें दशक में हुई त्रासदी को इक्कीसवीं सदी का पहला दशक भी किसी परिणिति पर नहीं पहुंचा पाया। हमारी सारी लड़ाई अब मृतकों की संख्या और मुआवजे के इर्द-गिर्द समेट दी गई है। ऐसा अनायास नहीं हुआ। सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ और पीड़ित समुदाय इस मकड़जाल में फंस गया और अब वह बाहर निकलने के लिए जितने अधिक हाथ पैर मारता है उतना ही उलझता जाता है। मजेदार बात यह है कि भारत की सरकारें उद्योग स्थापित करने की औपचारिकताएं पूरा करने के लिए समय सीमा तय करने में दिन रात एक कर रही हैं। वहीं अपनी इस आपाधापी में यह भूल रही हैं कि राज्य का या व्यवस्था का मुख्य कार्य व्यापार को प्रोत्साहित करना नहीं वरन् उसके शासन की परिधि में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति फिर वह चाहे अमीर हो या गरीब न्यायपूर्ण व्यवस्था उपलब्ध कराना है। यह बात ही समझ से परे है कि भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय व मुआवजा दिलवाना किस तरह सिर्फ गैर सरकारी संगठनों की ही जवाबदारी बनकर रह गया?
वहीं दूसरी ओर देश व दुनियाभर के संगठनों की आवाजें सरकार को इस दिशा मेें बाध्य क्यों नहीं कर पा रही हैं? सन् 1984 के बाद अमेरिका के कमोबेश सभी राष्ट्रपति और भारत के अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे के देशों का औपचारिक दौरा किया है। लेकिन इस मामले पर कभी भी कोई सार्थक या स्पष्ट चर्चा सामने नहीं आई। इस गणतंत्र दिवस पर बराक ओबामा विशेष अतिथि के रूप में आ रहे हैं। क्या भारत सरकार उनसे इस विषय पर बात करने का साहस दिखाएगी?
गैस प्रभावित अब अमेरिका के न्यायालयों में भी न्याय की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें हर जगह से निराशा ही हाथ लग रही है। बीसवीं सदी के नौवें दशक में हुई त्रासदी को इक्कीसवीं सदी का पहला दशक भी किसी परिणिति पर नहीं पहुंचा पाया। हमारी सारी लड़ाई अब मृतकों की संख्या और मुआवजे के इर्द-गिर्द समेट दी गई है। ऐसा अनायास नहीं हुआ। सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ और पीड़ित समुदाय इस मकड़जाल में फंस गया और अब वह बाहर निकलने के लिए जितने अधिक हाथ पैर मारता है उतना ही उलझता जाता है।
भोपाल से लेकर दिल्ली तक और दिल्ली से लेकर अमेरिका तक लोग इस 3 दिसंबर को पुनः इस त्रासदी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करेंगे। ऐसी खबर है कि कनाडा का वाद्यवृंद इस अवसर पर एक विशेष कार्यक्रम भोपाल में देगा।
इस दिन के लिए बनाए गए विशिष्ट गाने की एक पंक्ति का भावार्थ है, “उस दिन जो हवा चली वह आपके लिए विकास का जहर भरा उपहार लाई।” मूल बात यह है कि वह जहरीला विकास अब और अधिक विनाशकारी ढंग से हमारे सामने आ रहा है और हमारा शहरी मध्य वर्ग उस विकास के यशोगाथा गायन में मंजीरा बजा रहा है।
ऐसेे में आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि हम विरोध करने की बंधी-बंधाई रस्मों से बाहर निकलें और इस त्रासद दिन को विकास की नई अवधारणा के मूल्यांकन का दिन माने। हम सभी देख रहे हैं कि सरकारों की निगाहें कहीं हैं और निशाना कहीं और। हमेें अब उनकी आंखों में आंखे डालने के बजाए उस स्थान ध्यान लगाना होगा जहां पर कि वे निशाना लगाना चाहते हैं।
कैग की हालिया रिपोर्ट के अनुसार सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्रों) की वजह से राष्ट्र को प्रत्यक्ष करों की गैरअदायगी से सीधे-सीधे 84 हजार करोड़ रु. का नुकसान हुआ है और यदि पूरी कर हानि की गणना करें तो यह राशि करीब 1.75 लाख करोड़ रु. तक पहुंचती है। वहीं भोपाल गैस पीड़ित कितने मुआवजे की मांग कर रहे हैं? मगर सरकारों को इस तरह से सोचने की आदत ही नहीं है। जनआंदोलनों का कोशिश होना चाहिए कि सरकारों को इस तरह से सोचने की आदत पड़े।
देशभर में चल रहे संघर्षों को अब नए सिरे से विमर्श करना होगा और एकजुटता बनानी होगी। कुछ ऐसे उपाय सोचने होंगे जिससे कि शासन तंत्र को उनके पास आने को मजबूर होना पड़े और पीड़ित को याचक बनने की पीड़ा से मुक्ति मिल सके।
हमने ताज भी उछाल दिए, तख्त भी गिरा दिए लेकिन मनचाहा निजाम उस नए मसनद पर अभी तक नहीं बैठा पाए।
जल मंथन का अमृत : जल संकट मुक्त गांव का वायदा
भारत सरकार के जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय द्वारा 20 नवंबर से 22 नवंबर, 2014 के बीच आयोजित जल मंथन बैठक समाप्त हो गई।
बैठक का पहला और दूसरा दिन भारत सरकार और राज्य सरकारों के बीच संचालित तथा प्रस्तावित महत्वपूर्ण योजनाओं पर चर्चा के लिये नियत था। इस चर्चा में उपर्युक्त योजनाओं से लगभग असहमत समूह को सम्मिलित नहीं किया गया था। तीसरे दिन के सत्र में सरकारी अधिकारी और स्वयंसेवी संस्थानों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। तीसरे दिन के सत्र में स्वयं सेवी संस्थानों ने अपने-अपने कामों के बारे में प्रस्तुतियां दीं।
इस दौरान जल संसाधन मंत्री उपस्थित रहीं। उन्होंने प्रस्तुतियों को ध्यान से देखा और सुना, अपनी प्रतिक्रिया दी और कामों को सराहा।
समापन सत्र में अनुशंसाएं प्रस्तुत हुईं। जल संसाधन मंत्री ने बताया कि अगले साल 13 से 17 जनवरी के बीच जल सप्ताह मनाया जाएगा। भारत के प्रत्येक जिले में पानी की दृष्टि से संकटग्रस्त एक गांव को ‘जलग्राम’ के रूप में चुनकर जल संकट से मुक्त किया जाएगा।
जल संकट से मुक्ति का सीधा-सीधा अर्थ है, चयनित ग्राम में पानी की माकूल व्यवस्था। तालाबों, नदी-नालों, कुओं और नलकूपों में प्रदूषणमुक्त स्वच्छ पानी। बारहमासी जल संरचनाएं। खेती और आजीविका के लिये भरपूर पानी।
प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये पानी। दूसरे शब्दों में चयनित गांव में स्थाई रूप से जल स्वराज। जल संसाधन मंत्री का यह फैसला पूरे देश में जल स्वराज की राह आसान करता है।
जाहिर है बरसात का पानी, धरती की प्यास बुझा तथा जल संकट को समाप्त करने वाली ताल-तलैयों को लबालब कर गांव छोड़ेगा। नदियों के प्रवाह को यथासंभव जिंदा रखेगा। यदि सरकार अभियान को आगे चलाती है तो देश के सारे गांव उसके दायरे में आएंगे और वह देश में जल संकट मुक्ति का अभियान बनेगा। यही पानी का विकेन्द्रीकृत मॉडल है। जल संसाधन मंत्री की पहल का, समाज द्वारा तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए।
बांध बनाने से प्यासे कैचमेंट अस्तित्व में आते हैं। यही सब नदी जोड़ परियोजनाओं के कारण भी होगा क्योंकि नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत 16 जलाशय हिमालय क्षेत्र में और 58 जलाशय भारतीय प्रायद्वीप में बनेंगे। उनके कमाण्ड में पानी होगा और ऊपर के इलाके पानी को तरसेंगे। भारत में प्यासे कैचमेंटों में जल संकट के निराकरण के लिये पानी की व्यवस्था कैसे होगी? बहुत कठिन प्रश्न है। यह प्रश्न इसलिये कठिन है क्योंकि कैचमेंट के जितने पानी को जलाशय में जमा किया जाता है, उतना पानी लेने से प्यासे कैचमेंट में निस्तार, आजीविका तथा फसलों की सिंचाई के लिये बहुत ही कम पानी बचता है।जल संसाधन मंत्री के बयान और देश में संचालित परियोजनाओं की अवधारणा में गंभीर विरोधाभाष है। जल मंथन के पहले और दूसरे दिन जिन सिंचाई परियोजनाओं पर चर्चा हुई है, उनकी अवधारणा जल स्वराज की अवधारणा से मेल नहीं खाती। सभी जानते हैं कि बांध बनाने से प्यासे कैचमेंट अस्तित्व में आते हैं। यही सब नदी जोड़ परियोजनाओं के कारण भी होगा क्योंकि नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत 16 जलाशय हिमालय क्षेत्र में और 58 जलाशय भारतीय प्रायद्वीप में बनेंगे। उनके कमाण्ड में पानी होगा और ऊपर के इलाके पानी को तरसेंगे।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जल मंथन की गंभीर चर्चा के बाद भारत में प्यासे कैचमेंटों में जल संकट के निराकरण के लिये पानी की व्यवस्था कैसे होगी? बहुत कठिन प्रश्न है। यह प्रश्न इसलिये कठिन है क्योंकि कैचमेंट के जितने पानी को जलाशय में जमा किया जाता है, उतना पानी लेने से प्यासे कैचमेंट में निस्तार, आजीविका तथा फसलों की सिंचाई के लिये बहुत ही कम पानी बचता है। जल संसाधन मंत्री के सोच के अनुसार प्यासे कैचमेंट में बसे ग्रामों में जल संकट दूर करने के लिये यदि पानी बचाया जाता है तो जलाशय में पानी जमा करने की महत्वाकांक्षा पर नकेल लगेगी।
जल संसाधन मंत्री के सुझाव के अनुसार काम करने का मतलब है, पानी का समानता आधारित न्यायोचित बंटवारा। यदि सरकार इस नीति पर काम करना चाहती है तो उसे विकेन्दीकृत जल संचय की अवधारणा पर काम करना होगा। पुराना तरीका छोड़ना होगा अर्थात पानी के तकनीकी चेहरे को मानवीय चेहरे में बदलना होगा।
विकेन्द्रीकृत मॉडल को भविष्य की आयोजना का आधार बनाना होगा। यह राह, न केवल हर बसाहट में जल संकट को समाप्त करेगी वरन नदियों के प्रवाह को अविरलता प्रदान करेगी।
ईमेल : vyas_jbp@rediffmail.com
गागर में सिमटता सागर का सागर
सरकारें बदलने के साथ ही करोड़ों की योजनाएं बनती और बिगड़ती है। यदाकदा कुछ काम भी होता है, पर वह इस मरती हुई झील को जीवन देने के बनिस्पत सौंदर्यीकरण का होता है। फिर कहीं वित्तीय संकट आड़े आ जाता है तो कभी तकनीकी व्यवधान। हार कर लोगों ने इसकी दुर्गति पर सोचना ही बंद कर दिया है।
तालाब के बिगड़ते हाल पर 11 लोगों को पीएचडी अवार्ड हो चुकी है, पर ‘सागर’ का दर्द लाइलाज है। विडंबना है कि ‘सागर’ में अभी से सूखा है, जबकि अगली बारिश को आने में लगभग तीन महीने हैं। मध्य प्रदेश शासन ने इस सूखाग्रस्त इलाके में जल-व्यवस्था के लिए हाल ही में करोड़ों रुपए मंजूर किए हैं। इन दिनों सागर नगर निगम की किन्नर महापौर कमला बुआ झील की सफाई के लिए जन जागरण कर रही हैं। कुछ लोग आकर किनारों से गंदगी भी साफ कर रहे हैं, लेकिन इससे झील की सेहत सुधरने की संभावना बेहद कम है।
बुदेलखंड की सदियों पुरानी तालाबों की अद्भुत तकनीकी की बानगियों में से एक सागर की झील कभी 600 हेक्टेयर क्षेेत्रफल और 60 मीटर गहरी जल की अथाह क्षमता वाली हुआ करती थी । 1961 के सरकारी गजट में इसका क्षेत्रफल 400 एकड़ दर्ज है। आज यह सिमट कर महज 80 हेक्टेयर ही रह गई है। और पानी तो उससे भी आधे में है। बकाया में खेती होने लगी है और पानी की गहराई तो 20 फीट भी बमुश्किल होगी।
मौजूदा कैचमेंट एरिया 14.10 वर्ग किमी है । 1931 का गजेटियर गवाह है कि इस विशाल झील का अधिकतर हिस्सा सागर के शहरीकरण की चपेट में आ गया है। रिकार्ड मुताबिक मदारचिल्ला, परकोटा, खुशीपुरा, जैसे घने मुहल्ले और यूटीआई ग्राउंड आदि इसी तालाब को सुखा कर बसे हैं।
किवदंतिया हैं कि 11वीं सदी में लाखा नामक बंजारे ने अपने बहु-बेटे की बलि चढ़ा कर इस झील को बनवाया था। जबकि भूवैज्ञानिकों के नजरिए में यह एक प्राकृतिक जलाशय है, जो विंध्याचल का निचला पठार हर तरफ होने के कारण बनी है। यह पठार सागर शहर के पुरव्याऊ टोरी से टाऊन हाल तक फैला है। 19वीं सदी के अंत में पश्चिम की ओर बामनखेड़ी का बांध यहां का जल निर्गमन रोकने के इरादे से बनाया गया था।
आज इस तालाब के तीन ओर घनी बस्तियां हैं जिसकी गंदगी इस ऐतिहासिक धरोहर को लील रही है। विशेषज्ञों का दावा है कि आने वाले कुछ दशकों में यह तालाब सागर का गौरव ना होकर वहां की त्रासदी बन जाएगा।
ऊंची-नीची पठारी बसाहट वाले सागर शहर में पेयजल का भीषण संकट पूरे साल बना रहता है। भूमिगत जल दोहन यहां बुरी तरह असफल रहा है। इसका मुख्य कारण भी तालाब का सूखना रहा है। मध्य प्रदेश के संभागीय मुख्यालय सागर में मस्तिष्क ज्वर, हैजा और पीलिया का स्थाई निवास है। कई शोध कार्यों की रिपोर्ट बताती हैं कि इन संक्रामक रोगों का उत्पादन स्थल यही झील है।
यहां पैदा होने वाली मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे आदि हजारों परिवार के जीवकोपार्जन का जरिया रहा है। तालाब के मरने के साथ-साथ इन चीजों का उत्पादन भी घटा है। सागर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व मछली विषय की विशेषज्ञ डा सुनीता सिंह ने एक रिसर्च रिपोर्ट में बताया है कि बढ़ती गंदगी, बदबू और जलीय वनस्पतियों के कारण इस तालाब का पानी मछलियों के जीवन के लिए जहर बन गया है। गौरतलब है कि यहां कई बार मछलियों की सामूहिक मृत्यू हो चुकी है।
अभी कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं, जहां भीषण दलदल है; जिसमें सुअर लोटा करते हैं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि (जिसे तकनीकी भाषा में यूट्रोफिकेशन कहते हैं) अंतिम चरण में पहुंच गया है।
तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं। दिन में धूप चढ़ते ही तालाब की दुर्गंध इसके करीब रहने वालों का हाल बेहाल कर देती है। तालाब बड़े-बड़े पौधों से पट चुका है, फलस्वरूप पानी के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। मछलियों के मरने का कारण भी यही है। यहां 55 प्रजाति के पादप पल्लव है। इनमें से 33 क्लोराफाइसी, 11 साइनोफाइसी, नौ बस्लिरियाफायसी और दो यूग्नेलोफायसी प्रजाति के हैं। इस झील में साल भर माईक्रोसिस्टर, ऐरोपीनोसा गेलोसीरा, ग्रेनेलारा, पेंडिस्ट्रम और सीनोडेसमस आदि पौधे मिलते हैं।
यहां मिलने वाले माईक्रोफाइट्स यानि बड़े जातिय पौधे अधिक खतरनाक हैं । इनमें पोटेमोसेटन, पेक्टिनेट्स, क्रिसपस, हाईड्रीला-बर्टीसीलीटा, नेलुंबो न्यूसीफीरस आदि प्रमुख हैं। इन पौधों को मानव जीवन के लिए हानिकारक कीटाणुओं की सुविधाजनक शरणस्थली माना जाता है। गेस्ट्रोपोड्स नामक जीवाणु इन पौधों में बड़ी मात्रा में चिपके देखे जा सकते हैं। खतरनाक सीरोकोमिड लार्वा भी यहां पाया जाता है। कई फीट गहरा दलदल और मोटी काई की परत इसे नारकीय बना रही है।
इस तालाब के प्रदूषण का मुख्य कारण इसके चारों ओर बसे नौ घनी आबादी वाले मुहल्ले हैं। गोपालगंज, किशनगंज, शनीचरी, शुक्रवारी, परकोटा, पुरव्याऊ, चकराघाट, बरियाघाट, और रानी ताल की गंदी नालियां सीधे ही इसमें गिरती हैं। नष्ट होने के कगार पर खड़ा इस तालाब की सफाई के नाम पर बुने गए ताने-बाने भी खासे दिलचस्प रहे हैं।
उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार सन् 1900 में पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने सात हजार रूपए खर्च कर इसकी मरम्मत व सफाई करवाई थी। आजादी के बाद तो सागरवासियों ने कई साल तक इस ‘सागर’ की सुध ही नहीं ली। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को जब इसके पर्यावरण का ख्याल आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तालाब के बड़े हिस्से में कंक्रीट के जंगल उग आए थे। पानी बुरी तरह सड़ांध मारने लगा था। सागरवासी कुछ चेते। झील बचाओ समिति गठित हुई। फिर जुलूस, धरनों के जो दौर चले, तो वे आज तक जारी है।
कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि अंतिम चरण में पहुंच गया है। तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं।
19 जनवरी 1988 को उस समय के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ने दो करोड़ तीन लाख 44 हजार रुपए लागत की एक ऐसी परियोजना की घोषणा की जिसमें सागर झील की सफाई और सौंदर्यीकरण दोनों का प्रावधान था। फिर सियासती उठापटक में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बदल गए और योजना सागर के गंदे तालाब में कहीं गुम हो गई। उसी साल हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ‘जन जागरण अभियान’ के तहत सागर आए। उन्होंने जब तालाब के बारे में सुना तो उसे देखने गए व तत्काल सात लाख रूपए के अनुदान की घोषणा कर गए। कुछ दिनों बाद इसकी पहली किश्त इस शर्त के साथ आई कि मजदूरी का भुगतान हरियाणा के रेट से होगा। फिर ताऊ देश के उप प्रधानमंत्री बने, बड़ी उम्मीदों के साथ उनसे गुहार लगाई गई पर तब उन्हें कहां फुर्सत थी सागर की मरती हुई झील के लिए! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में तो ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ नामक बड़ी चमकदार योजना शुरू हुई। उसके बाद शिवराज सिंह ने भी ‘‘जलाभिषेक’’ का लोकलुभावना नारा दिया। ना जाने क्या कारण है कि सागर के ‘सागर’ की तकदीर ही चेत नहीं पा रही है। असल कारण तो यह है कि नारों के जरिए पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण की बात करने वाले नेता तालाबों के रखरखाव और उसके सौंदर्यीकरण में अंतर ही नहीं समझ पाते हैं। तालाब को जरूरत है गहरीकरण, सफाई की और वे उसके किनारे लाईटें लगाने या रंग पोतने में बजट फूंक देते हैं।मध्य प्रदेश के आवास और पर्यावरण संगठन (एपको) द्वारा 1985 में स्वीकृत 19.27 लाख रुपए की योजना का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह पैसा किश्तों में मिला। सत्र 1986-87 में 5.37 लाख रुपए, 87-88 में चार लाख, 88-89 में केवल 8.50 जारी किए गए। यह पैसा सड़ रहे तालाब की सफाई पर ना खर्च कर इसके कथित सौंदर्यीकरण पर लगाया गया। बस स्टैंड से संजय ड्राइव तक 1938 फीट लंबी रिटेनिंग वाल बनाने में ही अधिकांश पैसा फूंक दिया गया। देखते-ही-देखते यह दीवार ढह भी गई। बाकी का पैसा नाव खरीदने, पक्के घाट बनाने या मछली व कॉपर सल्फेट छिड़कने जैसे कागजी कामों पर खर्च दिखा दिया गया।
यह बात जान लेना चाहिए कि अपने अस्तित्व के लिए जूझते इस तालाब को सौंदर्यीकरण से अधिक सफाई की जरूरत है।
झील बचाओ समिति शासन का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के इरादे से समय-समय पर कुछ मनोरंजक आयोजन करते रहते हैं। कभी सूखे तालाब पर क्रिकेट मैच तो कभी पारंपरिक लोक नृत्य राई के आयोजन यहां होते रहते हैं।
कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने पांच करोड़ 83 लाख 88 हजार की एक योजना को मंजूरी दी थी। वैसे तो वह योजना भी फाईलों के गलियारों में भटक रही है, लेकिन उसकी कार्य योजना में इस बात को नजरअंदाज किया गया था कि पुरव्याऊ से गोपालगंज तक के नौ नालों को झील में मिलने से रोके बगैर कोई भी काम झील को जीवन नहीं दे सकता है। झील बचाओ समिति ड्रेजर मशीनों से सफाई पर सहमत नहीं है। उसका कहना है कि झील की सफाई के लिए मशीनें मंगाने मात्र में 22 लाख से अधिक खर्चा आना है। ऐसे में यह काम मजदूरों से करवाना अधिक कारगर और व्यावहारिक होगा।
गर्मी के दिनों में जब तालाब पूरी तरह सूख जाता है, तब जनता के सहयोग से गाद निकालने का काम बहुआयामी होगा। सनद रहे कि इस तालाब की गाद दशकों से जमा हो रहे अपशिष्ट पदार्थों का मलबा है, जो उम्दा किस्म की कंपोस्ट खाद है। यदि आसपास के किसानों से सरकारी सहयोग के साथ-साथ मुफ्त खाद देने की बात की जाए तो हजारों लोग सहर्ष सफाई के लिए राजी हो जाएंगे।
यदि इस तालाब की सफाई और गहरीकरण हो जाए तो यह लाखों कंठों की प्यास तो बुझाएगा ही,, हजारों घरों में चूल्हा जलने का जरिया भी बनेगा। इतना बड़ा ‘सागर’ होने के बावजूद शहरवासियों का साल भर बूंद-बूंद पानी के लिए भटकना दुखद विडंबना ही है। इस ताल की जल क्षमता शहर को बारहों महीने भरपूर पानी देने में सक्षम है। इतने विशाल तालाब में मछली के ठेके के एवज में नगर निगम को कुछ हजार रुपए ही मिलते हैं। यदि तालाब में गंदी नालियों की निकासी रोक दी जाए और चारों ओर सुरक्षा दीवार बन जाए तो यही ताल साल में 50 लाख की मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे दे सकता है। इसके अलावा नौकायन से भी लोगों को रोजगार मिल सकता है।
सागर सरोवर का जीवन शहर के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सीधा जुड़ा हुआ है। इस आकार का तालाब बनाने में आज 50 करोड़ भी कम होंगे। जबकि कुछ लाख रुपयों के साथ थोड़ी-सी निष्ठा व ईमानदारी से काम कर इसे अपने पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है। वैसे भी इन दिनों पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण, वाटर हार्वेस्टिंग जैसे जुमलों का फैशन चल रहा है। सागरवासियों की जागरुकता, राजनेताओं के निष्कपट तालमेल और नौकरशाहों की सूझबूझ की संयुक्त मुहिम अब सागर के सागर को जीवनदान दे सकती है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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