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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Shivendra on Tue, 11/18/2014 - 15:31
Source:
seed
उत्तराखंड की हेंवलघाटी का एक गांव है पटुड़ी। यहां के सार्वजनिक भवन में गांव की महिलाएं एक दरी पर बैठी हुई हैं। वे अपने साथ एक-एक मुट्ठी राजमा के देशी बीज लेकर आई हैं। इनकी छटा ही आकर्षित थी। रंग-बिरंगे देशी बीज देखने में सुंदर ही नहीं, बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं, पोषक तत्वों से भरपूर हैं।

बीज बचाओ आंदोलन की बैठक गत् 6 नवंबर को पटुड़ी में आयोजित की गई थी। मुझे इस बैठक में बीज बचाओ आंदोलन के सूत्रधार विजय जड़धारी के साथ जाने का मौका मिला। बीज बचाओ आंदोलन के पास राजमा की ही 220 प्रजातियां हैं। इसके अलावा, मंडुआ, झंगोरा, धान, गेहूं, ज्वार, नौरंगी, गहथ, जौ, मसूर की कई प्रजातियां हैं।
Submitted by vinitrana on Sat, 11/15/2014 - 21:01
Source:
योजना, अगस्त 2014
Yamuna Safai
भूमिका
राइन (यूरोप), सिने (फ्रांस), मिनेसोता (अमेरिका), स्कैंडेनिवेयन देशों की नदियां, इत्यादि दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल हैं (गुर्जर एवं जाट, 2008)। गंगा और ब्रह्मपुत्र इत्यादि के प्रदूषण के रूप में नदियों के प्रदूषण ने भारत पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है (सीपीसीबी 2006-07)। नदी प्रदूषण मुख्यतः मौजूद अवसंरचना एवं नीतिगत उपकरणों की विफलता से पैदा होता है। संयुक्त राष्ट्र विश्व जल मूल्यांकन कार्यक्रम (यूएनडब्ल्यूडब्ल्यूएपी, 2003) के अनुसार बांधों और अन्य समरूप अवसंरचनाओं ने दुनिया भर की 227 सबसे बड़ी नदियों के जलप्रवाह को 60 प्रतिशत तक बाधित किया है। नीचे की ओर जाती नदियों का प्रवाह इससे कम होने लगता है, इससे गाद और पोषक तत्वों का परिवहन प्रभावित होता है, परिणामतः जल की गुणवत्ता कम होती है तथा पारिस्थितिकी तंत्र प्रतिकूलतः प्रभावित होता है। इसी तरह, भारत की राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन तीन अरब लीटर दूषित जल पैदा होता है जिसमें से आधे का तो उपचार किया जाता है लेकिन आधा ऐसे ही यमुना नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है जो गंगा नदी की सहायक है।

भारत में नदियों की सफाई 1985 में गंगा एक्शन प्लान के साथ शुरू हुई जिसका लक्ष्य गंगा के जल की गुणवत्ता को पुनर्स्थापित करना था। सीपीसीबी का निष्कर्षों के आधार पर भारत सरकार के यमुना एक्शन प्लान चरण एक आरंभ हुआ (सीपीसीबी, 2007)। यह कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए जापान बैंक के (जेबीआईसी) के सहयोग से शुरू किया गया। सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नदी संरक्षण महानिदेशालय यमुना एक्शन प्लान के लिए निष्पादन एजेंसी है। उत्तर प्रदेश जल निगम, हरियाणा लोकस्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग (पीएचईडी), दिल्ली जल बोर्ड और दिल्ली नगर निगम इसकी परियोजना कार्यान्वयन एजेंसियां हैं। यमुना एक्शन प्लान में तीन राज्य नामतः उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा आते हैं। (योजना आयोग, 2007)

यमुना एक्शन प्लान चरण-एक को अप्रैल 2002 में पूरा होना था, लेकिन निर्धारित परियोजना 2003 तक चलती रही। शुरुआत में 15 शहरों (जिनमें से छः हरियाणा, आठ उत्तर प्रदेश और एक दिल्ली में हैं) में प्रदूषण घटाने का फार्मूला तैयार किया गया था जिसके लिए जेबीआईसी ने 17.77 करोड़ येन का आसान कर्ज प्रदान किया था। हरियाणा (6 अरब येन), उत्तर प्रदेश (8 अरब येन) और दिल्ली (3.7 अरब येन) पाकर लाभार्थी प्रदेश बने। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल 1996 में हरियाणा के 6 और शहरों को यमुना एक्शन प्लान के चरण एक में शामिल करने का आदेश दिया जिनके लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की योजना निधि से धन उपलब्ध कराया गया। कुल मिलाकर 21 शहर यमुना एक्शन प्लान के दायरे में आए (योजना आयोग, 2007)। कुल 7530 लाख लीटर जल प्रतिदिन की प्रस्तावित उपचार क्षमता इस योजना के तहत विकसित की गई और 2003 में इसे संपन्न घोषित किया गया। (http://envfor.nic.in/nrcd/NRCD/YAP.htm)

यमुना एक्शन प्लान चरण एक की स्वीकृत लागत 5.09 अरब येन थी। रुपए के मुकाबले येन की मजबूती के कारण जेबीआईसी सहायता पैकेज में 8 अरब येन उपलब्ध हो गया था। यह धन जेबीआईसी ने इन्हीं 15 शहरों के लिए जारी किया और बाद में यमुना एक्शन प्लान को फरवरी 2003 तक बढ़ा दिया गया। मई, 2001 में इस प्रस्ताव के विस्तारित चरण के लिए 2.22 अरब रुपए और स्वीकृत किए गए। इस राशि में से 228 लाख रुपए हरियणा को, 1.22 अरब रुपए दिल्ली को और 2965 लाख रुपए उत्तर प्रदेश को जारी किए गए। इसके अतिरिक्त 405 लाख रुपए भारतीय-जापानी परामर्शदात्री कंसोर्टियम को देय शुल्क के रूप में उपलब्ध कराए गए अतिरिक्त पैकेज को समाहित करते हुए यमुना एक्शन प्लान चरण एक की कुल लागत 7.32 अरब रुपए आई। इसका खर्च केंद्र और राज्य सरकार के बराबर वहन किया। हालांकि 2001 में केंद्र की ओर से उसका खर्च दोगुना कर दिया गया जबकि राज्यों ने भी अपने खर्च में 30 प्रतिशत बढ़ोतरी की। (योजना आयोग, 2007)

यमुना एक्शन प्लान के चरण एक में विविध गतिविधियों के बावजूद नदी की गुणवत्ता वांछित मानकों तक नहीं लाई जा सकी (सीपीसीबी, 2007)। ऐसा पाया गया कि दिल्ली के मलवहन घटक को कम करके आंका गया और महानगर की सरकार द्वारा यमुना एक्शन प्लान के समानांतर तैयार किए गए मल उपचार संयंत्रों की क्षमता का अब भी पूरा उपयोग नहीं किया गया है। (सीपीसीबी, 2006-07) इसलिए, वांछित नदी मानकों को हासिल करने के लिए भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2004 में यमुना एक्शन प्लान का चरण दो शुरू किया। इसे सितंबर 2008 में पूरा किया जाना था। यमुना एक्शन प्लान का चरण एक में पूरा किए गए कार्यों के आधार पर जेबीआईसी ने 31 मार्च 2003 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के साथ नए ऋण करार पर हस्ताक्षर किए और 13.33 अरब येन की राशि स्वीकृत की जो चरण दो के कुल खर्च का 85 प्रतिशत है। चरण दो के लिए स्वीकृत कुल बजट 6.24 अरब रुपए था जिसे दिल्ली (3.87 अरब), उत्तर प्रदेश (1.24 अरब), हरियाणा (63 करोड़), क्षमता निर्माण अभ्यास (50 करोड़) तथा पीएमसी-टीईसी कंसोर्टियम (आंकड़े अनुपलब्ध) के बीच बांटा गया। काम पूरा नहीं हो पाने के कारण इस चरण को मार्च 2011 तक बढ़ाया गया। मल उपचार संयंत्रों की कुल स्वीकृत 1890 लाख लीटर प्रतिदिन थी। http://envfor.nic.in/nrcd/NRCD/table.htm. प्रस्तुत तालिका-1 में देखा जा सकता है कि यमुना एक्शन प्लान चरण दो के कार्य तीनों में से किसी राज्य में पूरे नहीं किए गए हैं जिसके कारण चरण दो को विस्तार देना पड़ा है।

देखा गया है कि काफी समय और धन खर्च किए जाने के बावजूद नदी पर प्रदूषण का दबाव बढ़ता ही गया है। यमुना में जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग (बीओडी) 1980 में जहां 117 टन प्रतिदिन थी वहीं यह 2008 में बढ़कर 270 टन प्रतिदिन हो गई है। (सीएसई, 2008)

हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर 1996 और 2009 में जल की गुणवत्ता को तालिका-2 में बताया गया है।

यमुना एक्शन प्लान चरण दो के प्रभावों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने दिसंबर 2011 में यमुना एक्शन प्लान चरण तीन को स्वीकृति दी है जिसका अनुमानित बजट 16.56 अरब रुपए रखा गया है और इसके केंद्र में दिल्ली को रखा गया है। इसलिए, यमुना नदी के दिल्ली खंड में विविध प्रदूषण नियंत्रण हस्तक्षेपों का मूल्यांकन आवश्यक हो गया है।

दिल्ली में यमुना नदी
यमुना नदी का दिल्ली खंड इसके सर्वाधिक प्रदूषित खंडों में से एक है। (देखें तालिका 3)

जैसा कि तालिका 3 में बताया गया है, यमुना एक्शन प्लान के चरण एक और चरण दो के पूर्ण होने के बावजूद नदी की जल गुणवत्ता वांछित मानकों तक नहीं पहुंची है। इसलिए जल गुणवत्ता में सुधार और समय तथा धन दोनों के तौर पर निवेश आदि को ध्यान में रखकर विभिन्न हस्तक्षेपों के तहत प्रभाव पुर्वानुमान के आधार पर नदी कार्य योजनाओं को नए सिरे से तैयार करने की जरूरत है।

लगभग 224 किमी. की दूरी स्वछंद रूप से तय करने के बाद नदी पल्ला गांव के निकट दिल्ली में प्रवेश करती है और वजीराबाद में एक बार फिर से बैराज के माध्यम से घेर ली जाती है। यह बैराज दिल्ली के लिए पेयजल आपूर्ति करता है और यहां से आगे प्रवाह एक बार फिर से शून्य या बेहद कम हो जाता है। इसके बाद नदी में अनुपचारित या अंशतः उपचारित घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्ट जल नदी में मिलता है। एक बार फिर लगभग 25 किमी. बहने के बाद ओखला बैराज के आगे इसके पानी को आगरा नहर में सिंचाई के लिए डाल दिया जाता है और नदी एक बार फिर से ओखला बैराज में बंध कर रह जाती है। इसके कारण गर्मियों में बैराज से लगभग शून्य या बेहद नगण्य पानी निकलने दिया जाता है। ओखला बैराज के बाद नदी में पूर्वी दिल्ली, नोएडा और साहिबाबाद इलाकों से निकला घरेलू व औद्योगिक अपशिष्ट जल शाहदरा नाले के जरिए नदी में गिरता है। आखिर में यमुना में अन्य महत्वपूर्ण सहायक नदियों का पानी मिलता है और लगभग 1370 किमी. चलने के बाद यह इलाहाबाद में गंगा और भूमिगत सरस्वती से मिलती है।

दिल्ली यमुना नदी के तट पर बसा सबसे बड़ा शहर है और दिल्ली खंड इस नदी का सबसे प्रदूषित खंड। यमुना की सफाई के लिए एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चरण में यमुना एक्शन प्लान बना लेकिन न तो प्रदूषण स्तर घटा और न ही नदी पर बढ़ता दबाव। शहर से नदी में गिरते अपशिष्ट जल के उपचार के लिए दिल्ली में स्थापित संयंत्रों की क्षमता का भी पूरा-पूरा उपयोग नहीं किया जा सका। ऐसे में साफ-सुथरी यमुना का प्रवाह देखना अब भी एक स्वप्न भर है।यह बेसिन देश के बहुत बड़े भूभाग में फैला हुआ है। नदी पर पांच बैराजों की मौजूदगी के कारण पूरे वर्ष नदी की बहाव स्थितियों में काफी बदलाव देखा जाता है। अक्टूबर से जून तक नदी लगभग सूखी रहती है या कुछ खंडों में बहुत थोड़ा प्रवाह होता है जबकि मानसून अवधि (जुलाई-सितंबर) के दौरान इसमें बाढ़ आई रहती है। इस क्षेत्र की लगभग 60 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नदी के जल से होती है। नदी के जल का उपयोग प्रवाह में और प्रवाहेतर दोनों ही रूपों में होता है जिसमें सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक उपयोग शामिल है। (सीपीसीबी 2001-02 ए)

देखा गया है कि बिंदु और गैर बिंदु दोनों ही स्रोत नदी के प्रदूषण में अपनी भूमिका निभाते हैं, जिसमें दिल्ली सबसे बड़ा प्रदूषक है और इसके बाद आगरा तथा मथुरा का नंबर आता है।

दिल्ली में जल एवं अपशिष्ट जल अवसंरचना
राजधानी तीन मुख्य स्रोतों, नामतः भूतल जल, भूगर्भ जल और वर्षाजल से जल प्राप्त करती है। यहां पैदा घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों से उत्पन्न अपशिष्ट जल नालों के रास्ते मल उपचार संयंत्रों और सीटीईपी तक पहुंचता है। हालांकि, कृषि क्षेत्र का जल भूमि के रास्ते घुसपैठ कर भूगर्भ जल में जा मिलता है। इसके बाद, संपूर्ण अपशिष्ट जल मल उपचार संयंत्रों से खुले नाले के रास्ते नदी में जा मिलता है जिससे नदी में बिंदुस्रोत प्रदूषण पैदा होता है। साथ ही मानसून के दौरान, शहर का अतिरिक्त पानी जो गैरबिंदु प्रदूषण को जन्म देता है, वह भी विशाल नालों में मिल जाता है, वह भी विशाल नालों में मिल जाता है और फिर से यमुना में ही शामिल हो जाता है। इस तरह, देखा जा सकता है कि बिंदु और गैर बिंदु दोनों ही स्रोत मिलकर नदी का प्रदूषण स्तर बढ़ाते हैं। शहर में उत्पन्न अपशिष्ट जल आपूर्ति किए जाने वाले जल का 80 प्रतिशत माना जाता है और इसका उपचार 17 मल उपचार संयंत्रों तथा 13 सीटीईपी के जरिए होता है जिसके बाद यह यमुना में मिल जाता है। (सीडीपी, दिल्ली, 2006)

नदी की गुणवत्ता वजीराबाद बैराज के बाद तो बुरी तरह बिगड़ जाती है और मानकों के अनुरूप बिल्कुल नहीं रह पाती है। ऐसा उन 13 नालों के नदी में मिलने के कारण होता है जिनमें घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग से उत्पन्न अपशिष्ट जल पूर्णतः अनुपचारित या अंशतः उपचारित रूप में आता है और स्वच्छ जल प्रवाह के अभाव में नदी में वैसा ही गंदा पानी जाता है। शहर में 6555 लाख गैलन अपशिष्ट जल प्रतिदिन पैदा होता है और इसमें से केवल 3167 लाख गैलन प्रतिदिन मल उपचार संयंत्रों के द्वारा शोधित हो पाता है। (जमवाल एवं मित्तल, 2010) दिल्ली में मौजूदा मल उपचार संयंत्रों का ऐसा विवरण तालिका 4 में उपलब्ध है। देखा जा सकता है कि दिल्ली में अधिकांश मल उपचार संयंत्र और सीटीईपी का उपयोग उनकी क्षमता से कम ही हो रहा है। नालों को उपचार संयंत्रों के हिसाब से बताया गया है और उनके संबंधित क्षेत्रों का भी उल्लेख किया गया है।

इस खंड में विभिन्न स्थानों पर उपचार संयंत्रों के रास्ते नदी में मिलने वाली अपशिष्ट जलधाराओं का विवरण तालिका 4 में दिया गया है। नदी में एक अन्य रास्ते जिसे हिंडन कट के नाम से जाना जाता है, के माध्यम से एक प्रत्यक्ष दबाव बनता है। दिल्ली में शुरू होने वाले और ओखला बैराज में गिरने वाले नाले जिनमें कालकाजी, सरिता विहार, तुगलकाबाद, शाहदरा, सरिता विहार पुल के पास, एलपीजी वॉटलिंग प्लांट के पास और तेहखंड आदि शामिल है, ये अध्ययन के दायरे से बाहर हैं। नजफगढ़ नाले की दिल्ली के कुल अपशिष्ट जल प्रवाह में 72.7 प्रतिशत और दिल्ली में नदी की कुल जैवरासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) के दबाव में 61 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। (सीपीसीबी, 2006-07) अपशिष्ट जल के मौजूदा पुनर्चक्रण की स्थिति इस प्रकार है; राज्याभिषेक स्तंभ संयंत्र-377 लाख गैलन प्रतिदिन, केशोपुर संयंत्र-199.1 लाख गैलन प्रतिदिन, रिठाला संयंत्र-50 गैलन प्रतिदिन और सेन नर्सिंग होम संयंत्र-22 लाख गैलन प्रतिदिन।

दिल्ली के मास्टर प्लान 2021 के अनुसार दिल्ली जल बोर्ड शहर की मल उपचार संयंत्र क्षमता, सीटीईपी क्षमता और पुनर्चक्रण तथा पुनरुपयोग क्षमता बढ़ाने की योजना बना रहा है जिससे यमुना नदी में उत्पन्न अपशिष्ट जल की मात्रा कम होगी। प्रत्येक क्षेत्र में प्रस्तावित ‘हरित पट्टी’ की भी व्यवस्था मास्टर प्लान 2021 में की गई है (दिल्ली मास्टर प्लान 2021, 2007) ऐसे क्षेत्रों का सड़क के किनारे कृषि प्रयोजनों, फार्म हाउसों या वृक्षारोपण के लिए उपयोग किया जाता है। दिल्ली जल बोर्ड ने भी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए एक इंटरसेप्टर सीवर योजना का प्रस्ताव किया है।

दिल्ली में यमुना सफाई के प्रयास
1. एसटीपी. सीटीईपी में वृद्धि
2. इंटरसेप्टर सीवेज सिस्टम
3. तृतीयक उपचार की स्थापना
4. पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग के विकल्प
5. प्रवाह वृद्धि

हालांकि, पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग के हस्तक्षेप के साथ-साथ तृतीयक उपचार के विकल्प के परिदृश्य में नदी के पानी की गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में, यह देखा जाता है कि नदी अपने वांछित स्तर को प्राप्त नहीं कर पाई है (शर्मा, डी. 2013)। इसलिए, स्तर ‘सी’ को प्राप्त करने के लिए नदी में स्वच्छ जल मिलाना महत्वपूर्ण है। नदियों के जल के बंटवारे के लिए अंतर-राज्यीय विवादों के लिए सफल समाधान और जल के मांग पर जल-दबाव के मद्देनजर दिल्ली के लिए नदी में इतनी बड़ी मात्रा में स्वच्छ जल उपलब्ध कराना मुश्किल है।

इसीलिए पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग विकल्पों के साथ मल उपचार संयंत्रों की स्थापना के द्वारा नदियों के प्रवाह में प्रदूषित जल का मिश्रण तथा सीवेज उत्पादन को कमतर करना बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे शहर में बेहतर सीवेज अवसंरचना तैयार होगी और नदी पर प्रदूषण का दबाव भी न्यूनतम हो जाएगा। हालांकि, अत्यधिक मात्रा में प्रदूषित जल छोड़े जाने के कारण यह अब भी अपने वांछित स्तर यानी सी वर्ग की नदी का दर्जा हासिल नहीं कर पाएगा। इसलिए, यमुना एक्शन प्लान के तहत धन प्रवाह को देखते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि नदी के दिल्ली खंड को सी स्तर प्राप्त करने की जरूरत पर ध्यान दिया जाए। अनुशंसाएं
यमुना एक्शन प्लान के तहत चल रही गतिविधियों को सही दिशा में माना जा रहा है, लेकिन प्रभावी कार्यान्वयन की अवधारणा नदी प्रणाली में स्वच्छ जल के प्रवाह को बढ़ाने के उपाय सहित अन्य इंजीनियरिंग प्रयोगों की आवश्यकता होगी। नदी की जल गुणवत्ता को पुनः बहाल करने के लिए कुछ उपायों का विवरण नीचे के खंड में दिया गया है।

मल उपचार प्रणाली में सुधार
पूरी राजधानी में सीवर व्यवस्था की जानी चाहिए और संपूर्ण अपशिष्ट जल को (यदि आवश्यक हो तो पंपों के माध्यम से) उपचार और निपटान के लिए भेजा जाना चाहिए ताकि नदी में ‘जीरो’ डिस्चार्ज सुनिश्चित किया जा सके। मौजूदा जल उपचार संयंत्रों, जो वांछित निष्पादन मानकों के अनुरूप नहीं है, को समुन्नत करके ऐसा किया जा सकता है। नदियों के किसी एक किनारे या दोनों किनारों पर नहर या बांध जैसे वैकल्पिक ड्रेनेज सिस्टम की स्थापना से भी यह प्राप्त किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात, सीवेज पंपिंग स्टेशनों के लिए 24 घंटे बिजली उपलब्धता की जरूरत है।

‘हरित शहर’ की अवधारणा को प्रोत्साहित करने के लिए नदियों के मोर्चे पर विकास को, आर्थिक रूप से व्यवहारिक और पर्यावरण के अनुकूल समाधान इन दोनों ही पैमानों पर देखा जाना चाहिए। फव्वारे, कृत्रिम झरने, खेल का मैदान, घसियाली भूमि, जल क्रीड़ा, प्रवाहमान नहर, तालाबों और वृक्षारोपण आदि के साथ नदी तटों को पार्क के रूप में अवश्य विकसित किया जाना चाहिए जिसका इस्तेमाल कृत्रिम सुविधाओं के रूप में किया जा सके।

जलग्रहण क्षमता का विस्तार और प्रदूषक स्रोतों पर लगाम
मानसून के दौरान नदी में संग्रहण कर संग्रहित जल और शुष्क अवधि के दौरान छोड़े गए पानी का उपयोग करके इसके माध्यम से प्रवाह में बढ़ोतरी कर यह हासिल किया जा सकता है। मुख्य धारा के लिए इसकी सहायक धाराओं, अपशिष्ट जल लाने वाले नालों आदि में धारा के नीचे विसरित वातकों व यांत्रिक तलीय वातकों का प्रयोग करके कृत्रिम रूप से उनमें हवा का प्रबंध किया जाना चाहिए। इसलिए, यमुना एक्शन प्लान के तहत किसी भी प्रदूषण नियंत्रण उपाय को डिजाइन करने के लिए जल गुणवत्ता मॉडल का प्रदर्शन देखना महत्वपूर्ण है। मॉडलिंग प्रस्तावित उपायों के कार्यान्वयन से पहले उनका मूल्यांकन करने में योजनाकारों को मदद देगी। अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण एवं पुनरुपयोग मुख्य अवसरों में से एक है जिसके द्वारा पानी का उपयोग सिंचाई, बागवानी और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। विद्युत स्टेशन में टावरों को ठंडा करने के लिए भी आपूर्ति की जा सकती है। भूजल पुनर्भरण और गंदा पानी का उपचार और पुनः उपयोग भी अन्य लाभप्रद विकल्प हो सकते हैं। इतना ही नहीं, गैर बिंदु स्रोतों जैसे खेत खलिहान, नदियों में मनुष्यों और जंतुओं के स्नान, मूर्ति विसर्जन आदि से उत्पन्न हो रहे प्रदूषण पर नियंत्रण भी महत्वपूर्ण है।

शहरी और कृषिगत अप्रयुक्त जल से होते प्रदूषण को वर्षाजल संचय इकाइयां बनाकर तथा टिकाऊ शहरी नाला प्रणाली बनाकर विसरित प्रदूषण कम किया जा सकता है। कृषि अपशिष्ट जो सीधे नदी में पहुंच जाता है उसे नदी के तटवर्ती खेतों में फिल्टर तथा बफर स्ट्रिप बना करकम किया जा सकता है।

तालिका-1 : यमुना एक्शन प्लान चरण 1 और चरण दो के राज्यवार निवेश और योजनाओं का ब्यौरा
 

चरण 1

चरण 2

 

दिल्ली

हरियाणा

उ.प्र.

दिल्ली

हरियाणा

उ.प्र.

स्वीकृत राशि (अरब रुपए)

1.81

2.42

2.82

4.69

6.34

1.15

केंद्र से जारी राशि (अरब रुपए)

1.77

1.78

2.40

1.21

0.48

0.58

स्वीकृत योजनाओं की संख्या

12

111

146

11

16

5

पूर्ण योजनाओं की संख्या

12

111

146

0

6

1



तालिका -2 : यमुना नदी में जल गुणवत्ता के आंकड़े ग्रीष्मकालीन औसत (मार्च-जून)

बिंदु/स्थान

1996

2009

   

डीओ (एमजी/1)

बीओडी (एमजी/1)

डीओ (एमजी/1)

बीओडी (एमजी/

हरियाणा ताजेवाला

11.70

1.20

9.22

1.25

कालानौर सोनीपत

10.40

1.05

9.10

2.33

दिल्ली निजामुद्दीन

0.30

25.00

0.0

23.0

उत्तर प्रदेश आगरा नहर

0.35

26.50

0.00

14.75

मझवाली

0.50

22.0

2.75

16.75

मथुरा

8.10

4.00

5.28

8.50

मथुरा डी/एस

8.50

2.50

6.30

8.75

आगरा डी/एस

1.65

9.00

4.67

16.5

उड़ी

9.71

2.00

9.00

1.00

औरया जुहिका

8.14

5.0

11.05

7.75



स्रोत : सीपीसीबी

तालिका : दिल्ली के निजामुद्दीन में यमुना नदी की औसत वार्षिक जल गुणवत्ता

वर्ष

डीओ (मिग्रा प्रति ली)

बीओडीओ (मिग्रा प्रति ली)

टीसी (एमपीएन प्रति 100 मिली)

1995

3.4

9.6

386091

2005

1.6

10.00

12200000

2009

0.0

23.00

22516660

मानक*

>4

<3

>5000



आंकड़े सीपीसीबी और सीडब्ल्यूसी से लिए गए हैं। स्रोत: सीपीसीबी 2000, 2006-07 टीसी=टोटल कॉलीफार्म्स, बीओडी=जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग, *सी वर्ग के लिए सीपीसीबी मानक

सीवर क्षेत्र

संबंधित नाले

मल उपचार संयंत्र

मौजूदा स्थिति

शाहदरा

शाहदरा

यमुना विहार कोंडली

क्षमता से कम उपयोग वही

रिठाला-रोहिणी

नजफगढ़ व सहायक

नरेला रिठाला रोहिणी

वही, वही, वही

ओखला

मैगजीन रोड, स्वीपर कॉलोनी, खैबर दर्रा, मेटकॉफ हाउस आईएसबीटी, मोरी गेट, तांगा स्टैंड, सिविल मिल, नंबर 14, पावर हाउस, दिल्ली गेट, सेन नर्सिंग होम, बारापुला, महारानी बाग, कालकाजी, सरिता विहार, तुगलकाबाद, एलपीजी बॉटलिंग प्लांट के नजदीक, सरिता विहार पुल के नजदीक, तेहखंड

वसंत कुंज 1 और 2 महरौली ओखला सेन नर्सिंग होग दिल्ली गेट घिटोरनी

वही, वहीं, वहीं, पूर्ण उपयोग में, पूर्ण उपयोग में शुरू नहीं

केशोपुर

नजफगढ़ व सहायक

पप्पनकलां नजफगढ़ केशोपुर निलोठी

वही, वही, वही, वही,

राज्याभिषेक स्तंभ

नजफगढ़ व सहायक

राज्याभिषेक स्तंभ I, II और III

वही

  

ऑक्सीकरण तालाब, तिमारपुर

पूर्ण उपयोग में



संदर्भ
1. गुर्जर आरके एवं जाट बीसी, 2008, रावत प्रकाशन सीपीसीबी, 2006-07, यमुना नदी के जल की गुणवत्ता स्थिति (1999-2005)
2. जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन का संयुक्त निगरानी कार्यक्रम, 2008
3. योजना आयोग, 2007 : http://planningcommission.nic.in/reports/sereport/ser/wjc/wjc_ch1pdf
4. नदी कार्य योजना, राष्ट्रीय नदी संरक्षण, स्वच्छ नदियों के लिए कार्यकारी निदेशालय।
5. परियोजना प्रबंधन सलाहकार (पीएमसी(. एनए, यमुना कार्य योजना:
6. सीएसई-2009 यमुना में प्रदूषण की स्थिति, पर्यावरण एवं विज्ञान के लिए केंद्र, दिल्ली, भारत
7. सीपीसीबी 2012-02ए जलगुणवत्ता स्थिति व सांख्यिकी
8. नगरीय विकास योजना, 2006. शहरी विकास विभाग, दिल्ली सरकार
9. दिल्ली नगर में अनुपचारित सीवेज का पुनः उपयोग एसटीपी और पुनः उपयोग के विकल्प के सूक्ष्म मूल्यांकन
10. दिल्ली मास्टर प्लान (एमपीडी)-2021-2007 शहरी विकास मंत्रालय
11. शर्मा, डी, 2013. डॉक्टरल शोध, टेरी विश्वविद्यालय

Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 13:12
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Talab

पानी के प्रबंध की फिलासफी का अंतिम लक्ष्य जल स्वराज है। जलस्वराज, हकीकत में पानी के प्रबंध की वह आदर्श व्यवस्था है जिसमें हर बसाहट, हर खेत-खलिहान तथा हर जगह जीवन को आधार प्रदान करती पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित होती है।

जल स्वराज, हकीकत में पानी का ऐसा सुशासन है जो जीवधारियों की इष्टतम आवश्यकता के साथ-साथ पानी चाहने वाले प्राकृतिक घटकों की पर्यावरणी जरूरतों को बिना व्यवधान, पूरा करता है।

वह, जीवधारियों को जल जनित कष्टों से मुक्त करता है। उन्हें आरोग्य प्रदान करता है। स्वचालित एवं स्वनियंत्रित प्राकृतिक व्यवस्था की मदद से पानी को खराब होने से बचाता है। खारे पानी को शुद्ध करने के लिए वाष्पीकरण को मदद करता है।

वर्षा की मदद से उसे पृथ्वी पर लौटाता है। जल स्रोतों को टिकाऊ बनाता है। वह संस्कृतियों का आधार है। उसमें संस्कार पलते हैं। वह पर्यावरण हितैषी है। वह ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी, जाति-धर्म और भेद-भाव इत्यादि से मुक्त है। वह, प्रकृति का अनमोल वरदान है। वह सबको सहज ही उपलब्ध है।

जल स्वराज की फिलासफी का मानना है कि पानी को धरती पर उतरने के बाद जीवधारियों की मूलभूत जरूरतों तथा योगक्षेम को पूरा करना चाहिए। उसे समस्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही समुद्र में मिलना चाहिए।

धरती पर यात्रा करते समय, किसी के हक की अनदेखी, अवहेलना या चोरी नहीं करना चाहिए। उसे, लोगों को तोड़ना नहीं जोड़ना चाहिए। उसे युद्ध का कारण नहीं बनना चाहिए। वह जीवधारियों के लिए अमृत के समान है। उसने आज तक जीवमात्र को अमृत ही बांटा है। अतः उसे आगे भी, अमृत ही बांटना चाहिए।

सब जानते हैं, उसका स्पर्श पाकर ही धरती, अपनी मनोहारी छटा बिखेरती है। सब जानते हैं, पानी का रूठना फिजा बदल देता है। उसकी लम्बी बेरुखी धरती को रेगिस्तान बनाकर मानव सभ्यताओं तथा जीव-जंतुओं की बसाहटों को अल्पकाल में इतिहास बना देती है।

भारत में जल प्रबंध के दो मॉडल प्रचलन में हैं। पहला मॉडल पाश्चात्य जल विज्ञान पर आधारित पानी का केन्द्रीकृत मॉडल है। इस मॉडल में कैचमेंट के पानी को जलाशय में जमा कर कमांड में वितरित किया जाता है। इस मॉडल में, जलाशय, जलसंचय का केन्द्र होता है।

कैचमेंट पानी मुहैया कराने वाला इलाका तथा कमांड, पानी का उपयोग करने वाला हितग्राही होता है। इस मॉडल को मुख्यतः अंग्रेजों ने लागू किया था किंतु आजाद भारत के खाद्यान्न संकट, हरित क्रांति तथा अकालों ने उसे मुख्यधारा में पहुंचाया। इस मॉडल को भारत का जल संसाधन विभाग क्रियान्वित करता है। उसका नियंत्रण सरकारी अमले के हाथ में होता है।

दूसरा मॉडल पानी के स्वस्थाने जल संग्रह का मॉडल है। इस मॉडल में जहां पानी बरसता है उसे वहीं संचित कर उपयोग में लाया जाता है। यदि उपयोग के बाद कुछ पानी बचता है तो उसे आगे जाने दिया जाता है। इस मॉडल का क्रियान्वयन कृषि विभाग तथा ग्रामीण विकास विभाग करता है। इन विभागों के अतिरिक्त अनेक संस्थान पानी के कामों को वित्तीय सहयोग प्रदान करते हैं। उनके वित्तपोषण से संचालित योजनाएं भी उपर्युक्त दोनों मॉडलों में से किसी एक मॉडल की मार्गदर्शिका का पालन करती हैं।

सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों (टाप-डाउन और बाटम-अप अवधारणा) का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है।

1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था। इसी दौर में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा जलग्रहण कार्यक्रम के अंतर्गत जल संरक्षण की छोटी-छोटी योजनाओं की प्लानिंग, क्रियान्वयन, संचालन और रखरखाव में समाज की भागीदारी की कोशिश हो रही थी।

इस भागीदारी की मदद से प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध कर जल संकट और ग्रामीण आजीविका के संकट का हल खोजा जा रहा था। इसी दौर में देश के कुछ ग्रामों में समाज की सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्रियान्वित मॉडलों ने आशा की किरण जगाई और जलग्रहण क्षेत्र विकास कार्यक्रम को पहचान मिली। बारानी खेती वाले इलाकों के अनेक ग्रामों में जल संकट के हल की सस्ती तथा समाज नियंत्रित इबारत लिखी जाने लगी। चूंकि स्थानीय स्तर पर जल संकट में कमी आ रही थी इसलिए उसे जल स्वराज का संकेतक या उसका उषाकाल कहा जा सकता था। इसी दौर में स्वयं सेवी संस्थाओं की सक्रियता तथा भागीदारी बढ़ी।

1990 के दशक में बाटम-अप कार्यप्रणाली और छोटी संरचनाओं के समावेशी निर्माण के बावजूद टाप-डाउन कार्यप्रणाली अस्तित्व में थी। उसकी निरंतरता पर कोई संकट नहीं था। यही वह दौर था जब भारत में वैश्वीकरण का युग प्रारंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के सहयोग (कर्ज) से बड़ी संरचनाओं (बांधों) की वापसी हो रही थी।

सन् 1987 में अस्तित्व में आई पहली राष्ट्रीय जल नीति का झुकाव समाजवादी नीतियों से हटकर पूंजीवादी व्यवस्था की ओर हो रहा था। इसी अवधारणा के चलते बड़ी संरचनाओं (बांधों) को आर्थिक विकास तथा गरीबी उन्मूलन का कारगर हथियार माना जा रहा था। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकारी नीतियां व्यवस्था को बदलने पर आमादा थीं। धन की कमी का रोना, बीते युग की कहानी रह गया।

विश्व बैंक सहित अनेक वित्तीय संस्थाओं ने भारत के जलक्षेत्र का कायाकल्प करना प्रारंभ कर दिया। धन की सहज उपलब्धता के कारण अनेक भूली बिसरी योजनाओं के दिन फिरने लगे। बड़ी परियोजनाओं के सिंचाई प्रबंधन में कसावट लाने तथा उत्तरदायित्वों में किसानों का सहयोग लिया जाने लगा। सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नियामक आयोगों को सौंपना प्रारंभ कर दिया था।

सरकार सहयोगी की भूमिका में खड़ी नजर आ रही थी। बाजार ने पानी को अपने मोहपाश में लेने के लिए शब्दावली गढ़ ली थी। इस पूरी कसरत में जल स्वराज खो गया था। अनेक अंतर विरोधी धाराओं के कारण उसका समाज से रिश्ता बेमानी हो रहा था। जल स्वराज का सपना, चर्चा का केंद्र बिंदु नहीं था। यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल का उषाकाल था।

जलप्रबंध का केन्द्रीकृत मॉडल और जल उपलब्धता
सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है। 1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था।जल प्रबंध के केन्द्रीकृत मॉडल की मदद से भारत की नदियों में प्रवाहित लगभग 1869 लाख क्यूबिक मीटर पानी में से अधिकतम 690 लाख हेक्टेयर मीटर पानी का ही उपयोग किया जा सकता है। इस गणना में भूजल के योगदान को सम्मिलित नहीं किया है। यदि इसमें नदी जोड़ परियोजना के माध्यम से मिलने वाले ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के अतिरिक्त पानी को भी जोड़ लिया जाए तो भी लगभग 1123 लाख क्यूबिक मीटर (लगभग 28 प्रतिशत) पानी को ही उपयोग में लाया जा सकता है। इसके आधार पर परियोजनाओं के पूरा होने के बाद भी प्यासे कैचमेंटों की समस्या का हल नहीं निकलेगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पानी का केन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के केवल 28 प्रतिशत हिस्से का ही उपयोग करने में सक्षम है। उसकी मदद से केवल कमाण्ड को ही सरसब्ज बनाया जा सकता है। उसकी मदद से कमाण्ड के बाहर के इलाकों में पानी पहुंचाना कठिन है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि केन्द्रीकृत मॉडल द्वारा देश के हर अंचल में पानी पहुंचाना और आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं है।

देश और समाज के लिए केन्द्रीकृत मॉडल की उपयोगिता सीमित है। उसके लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को नहीं मिल सकते। उसमें समाज की भागीदारी के लिए स्थान नहीं होता। वह जल सुशासन या जल स्वराज का पर्याय नहीं है। वह कमांड में रहने वाले लोगों की लाटरी की तरह है। वह सबको नहीं किसी खास इलाके को उपकृत करता है।

जल प्रबंध के विकेन्द्रीकृत मॉडल की सहायता से लगभग 2259 लाख हेक्टेयर मीटर पानी को उपयोग में लाया जा सकता है। इसमें भूजल का हिस्सा (390 लाख हेक्टेयर मीटर) सम्मिलित है। विकेन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के लगभग 56 प्रतिशत हिस्से को उपयोग में ला सकता है। यह मात्रा केन्द्रीकृत मॉडल की मात्रा की तुलना में लगभग दो गुनी अधिक है।

दो गुनी अधिक उपलब्धता के कारण, पानी की इष्टतम मात्रा को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराया जा सकता है। इसलिए उसकी पहुंच बेहतर है। विकेन्द्रीकृत मॉडल का लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को मिलना संभव है। इस क्रम में कहा जा सकता कि विकेन्द्रीकृत मॉडल की मदद से हर बसाहट में जल कष्ट को समाप्त और समाज की अनिवार्य जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।

विकेन्द्रीकृत मॉडल में उपयोग में लाई इंजीनियरिंग सरल होती है। वह आसानी से समझ में आ जाती है इसलिए कहा जा सकता है कि वह, समाज की भागीदारी की राह में रोड़ा नहीं है। विकेन्द्रीकृत मॉडल को अपना कर जल प्रबंध को मानवीय चेहरा प्रदान किया जा सकता है।

जल स्वराज के लिए संविधान और राष्ट्रीय जलनीति 2012 में कतिपय परिवर्तन करने होंगे। पानी को समाज की धरोहर बनाना होगा। जलनीति में पानी के आवंटन में समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं को पहला स्थान देना होगा।

अनिवार्य आवश्यकताओं में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित होगा। उसके बाद नदियों में पर्यावरणी प्रवाह के लिए पानी का आवंटन किया जाना चाहिए। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचे पानी के उपयोग के लिए राष्ट्रीय जलनीति 2002 में उल्लेखित प्राथमिकता क्रम अपनाया जाना चाहिए।

जल स्वराज की सुनिश्चितता के लिए प्रत्येक प्राथमिकता के लिए आवंटित मात्रा का उल्लेख आवश्यक है। पहली प्राथमिकता में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित है। इसकी गणना के लिए नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्शाई इकाईयों को काम में लाया जा सकता है।

सुझाव है, नेशनल वाटरशेड एटलस में परिभाषित सबसे छोटी इकाई में निवास करने वाली आबादी की मूलभूत आवश्यकता तथा पर्यावरणी प्रवाह की पूर्ति के लिए आवश्यक पानी को छोड़ने के बाद, अगली इकाई के लिए पानी छोड़ा जाए। यही व्यवस्था उत्तरोत्तर बढ़ती इकाइयों के लिए अपनाई जाए। इस व्यवस्था के अनुसार जल आवंटन करने से जल स्वराज लाना मुमकिन है।

देश में जल विपन्न इलाकों की हमेशा-हमेशा के लिए समाप्ति ही जल स्वराज है। वही जल प्रबंध की समावेशी मंजिल है जो मौजूदा व्यवस्था, समाज तथा योजना बनाने वालों के बीच के सोच के अंतर को समाप्त कर पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित करती है। इसलिए कहा जा सकता है कि जलप्रबंध की अंतिम मंजिल जल स्वराज है।

समाज की अपेक्षा का आईना ही समग्र जल स्वराज है। वही सही जल प्रबंध है। वही जल स्वालम्बन है। वही जल जनित मानवीय विफलताओं को सफलता में बदलने का जरिया, समाज की अपेक्षाओं के अनुरुप रणनीति विकसित करने एवं तदनुरूप योजनाएं जमीन पर उतारने का सशक्त जरिया है।

अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने के पहले इसी विकेन्द्रीकृत देशज मॉडल ने भारत में जल स्वराज की इबारत लिखी थी। वही इबारत, आज भी समाज, धरती की सहमति, भारतीय जलवायु और भूगोल से तालमेल तथा सहयोग से लिखी जा सकती है। अवधारणा को पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि भारत में जल स्वराज मुमकिन है।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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हेंवलघाटी में बीज बचाने में जुटी हैं महिलाएं

Submitted by Shivendra on Tue, 11/18/2014 - 15:31
Author
बाबा मायाराम
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. उत्तराखंड की हेंवलघाटी का एक गांव है पटुड़ी। यहां के सार्वजनिक भवन में गांव की महिलाएं एक दरी पर बैठी हुई हैं। वे अपने साथ एक-एक मुट्ठी राजमा के देशी बीज लेकर आई हैं। इनकी छटा ही आकर्षित थी। रंग-बिरंगे देशी बीज देखने में सुंदर ही नहीं, बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं, पोषक तत्वों से भरपूर हैं।

बीज बचाओ आंदोलन की बैठक गत् 6 नवंबर को पटुड़ी में आयोजित की गई थी। मुझे इस बैठक में बीज बचाओ आंदोलन के सूत्रधार विजय जड़धारी के साथ जाने का मौका मिला। बीज बचाओ आंदोलन के पास राजमा की ही 220 प्रजातियां हैं। इसके अलावा, मंडुआ, झंगोरा, धान, गेहूं, ज्वार, नौरंगी, गहथ, जौ, मसूर की कई प्रजातियां हैं।

यमुना सफाई : वर्तमान चुनौतियां और समाधान

Submitted by vinitrana on Sat, 11/15/2014 - 21:01
Author
दीपशिखा शर्मा
Source
योजना, अगस्त 2014
Yamuna Safai

भूमिका


.राइन (यूरोप), सिने (फ्रांस), मिनेसोता (अमेरिका), स्कैंडेनिवेयन देशों की नदियां, इत्यादि दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल हैं (गुर्जर एवं जाट, 2008)। गंगा और ब्रह्मपुत्र इत्यादि के प्रदूषण के रूप में नदियों के प्रदूषण ने भारत पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है (सीपीसीबी 2006-07)। नदी प्रदूषण मुख्यतः मौजूद अवसंरचना एवं नीतिगत उपकरणों की विफलता से पैदा होता है। संयुक्त राष्ट्र विश्व जल मूल्यांकन कार्यक्रम (यूएनडब्ल्यूडब्ल्यूएपी, 2003) के अनुसार बांधों और अन्य समरूप अवसंरचनाओं ने दुनिया भर की 227 सबसे बड़ी नदियों के जलप्रवाह को 60 प्रतिशत तक बाधित किया है। नीचे की ओर जाती नदियों का प्रवाह इससे कम होने लगता है, इससे गाद और पोषक तत्वों का परिवहन प्रभावित होता है, परिणामतः जल की गुणवत्ता कम होती है तथा पारिस्थितिकी तंत्र प्रतिकूलतः प्रभावित होता है। इसी तरह, भारत की राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन तीन अरब लीटर दूषित जल पैदा होता है जिसमें से आधे का तो उपचार किया जाता है लेकिन आधा ऐसे ही यमुना नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है जो गंगा नदी की सहायक है।

भारत में नदियों की सफाई 1985 में गंगा एक्शन प्लान के साथ शुरू हुई जिसका लक्ष्य गंगा के जल की गुणवत्ता को पुनर्स्थापित करना था। सीपीसीबी का निष्कर्षों के आधार पर भारत सरकार के यमुना एक्शन प्लान चरण एक आरंभ हुआ (सीपीसीबी, 2007)। यह कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए जापान बैंक के (जेबीआईसी) के सहयोग से शुरू किया गया। सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नदी संरक्षण महानिदेशालय यमुना एक्शन प्लान के लिए निष्पादन एजेंसी है। उत्तर प्रदेश जल निगम, हरियाणा लोकस्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग (पीएचईडी), दिल्ली जल बोर्ड और दिल्ली नगर निगम इसकी परियोजना कार्यान्वयन एजेंसियां हैं। यमुना एक्शन प्लान में तीन राज्य नामतः उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा आते हैं। (योजना आयोग, 2007)

यमुना एक्शन प्लान चरण-एक को अप्रैल 2002 में पूरा होना था, लेकिन निर्धारित परियोजना 2003 तक चलती रही। शुरुआत में 15 शहरों (जिनमें से छः हरियाणा, आठ उत्तर प्रदेश और एक दिल्ली में हैं) में प्रदूषण घटाने का फार्मूला तैयार किया गया था जिसके लिए जेबीआईसी ने 17.77 करोड़ येन का आसान कर्ज प्रदान किया था। हरियाणा (6 अरब येन), उत्तर प्रदेश (8 अरब येन) और दिल्ली (3.7 अरब येन) पाकर लाभार्थी प्रदेश बने। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल 1996 में हरियाणा के 6 और शहरों को यमुना एक्शन प्लान के चरण एक में शामिल करने का आदेश दिया जिनके लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की योजना निधि से धन उपलब्ध कराया गया। कुल मिलाकर 21 शहर यमुना एक्शन प्लान के दायरे में आए (योजना आयोग, 2007)। कुल 7530 लाख लीटर जल प्रतिदिन की प्रस्तावित उपचार क्षमता इस योजना के तहत विकसित की गई और 2003 में इसे संपन्न घोषित किया गया। (http://envfor.nic.in/nrcd/NRCD/YAP.htm)

यमुना एक्शन प्लान चरण एक की स्वीकृत लागत 5.09 अरब येन थी। रुपए के मुकाबले येन की मजबूती के कारण जेबीआईसी सहायता पैकेज में 8 अरब येन उपलब्ध हो गया था। यह धन जेबीआईसी ने इन्हीं 15 शहरों के लिए जारी किया और बाद में यमुना एक्शन प्लान को फरवरी 2003 तक बढ़ा दिया गया। मई, 2001 में इस प्रस्ताव के विस्तारित चरण के लिए 2.22 अरब रुपए और स्वीकृत किए गए। इस राशि में से 228 लाख रुपए हरियणा को, 1.22 अरब रुपए दिल्ली को और 2965 लाख रुपए उत्तर प्रदेश को जारी किए गए। इसके अतिरिक्त 405 लाख रुपए भारतीय-जापानी परामर्शदात्री कंसोर्टियम को देय शुल्क के रूप में उपलब्ध कराए गए अतिरिक्त पैकेज को समाहित करते हुए यमुना एक्शन प्लान चरण एक की कुल लागत 7.32 अरब रुपए आई। इसका खर्च केंद्र और राज्य सरकार के बराबर वहन किया। हालांकि 2001 में केंद्र की ओर से उसका खर्च दोगुना कर दिया गया जबकि राज्यों ने भी अपने खर्च में 30 प्रतिशत बढ़ोतरी की। (योजना आयोग, 2007)

यमुना एक्शन प्लान के चरण एक में विविध गतिविधियों के बावजूद नदी की गुणवत्ता वांछित मानकों तक नहीं लाई जा सकी (सीपीसीबी, 2007)। ऐसा पाया गया कि दिल्ली के मलवहन घटक को कम करके आंका गया और महानगर की सरकार द्वारा यमुना एक्शन प्लान के समानांतर तैयार किए गए मल उपचार संयंत्रों की क्षमता का अब भी पूरा उपयोग नहीं किया गया है। (सीपीसीबी, 2006-07) इसलिए, वांछित नदी मानकों को हासिल करने के लिए भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2004 में यमुना एक्शन प्लान का चरण दो शुरू किया। इसे सितंबर 2008 में पूरा किया जाना था। यमुना एक्शन प्लान का चरण एक में पूरा किए गए कार्यों के आधार पर जेबीआईसी ने 31 मार्च 2003 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के साथ नए ऋण करार पर हस्ताक्षर किए और 13.33 अरब येन की राशि स्वीकृत की जो चरण दो के कुल खर्च का 85 प्रतिशत है। चरण दो के लिए स्वीकृत कुल बजट 6.24 अरब रुपए था जिसे दिल्ली (3.87 अरब), उत्तर प्रदेश (1.24 अरब), हरियाणा (63 करोड़), क्षमता निर्माण अभ्यास (50 करोड़) तथा पीएमसी-टीईसी कंसोर्टियम (आंकड़े अनुपलब्ध) के बीच बांटा गया। काम पूरा नहीं हो पाने के कारण इस चरण को मार्च 2011 तक बढ़ाया गया। मल उपचार संयंत्रों की कुल स्वीकृत 1890 लाख लीटर प्रतिदिन थी। http://envfor.nic.in/nrcd/NRCD/table.htm. प्रस्तुत तालिका-1 में देखा जा सकता है कि यमुना एक्शन प्लान चरण दो के कार्य तीनों में से किसी राज्य में पूरे नहीं किए गए हैं जिसके कारण चरण दो को विस्तार देना पड़ा है।

देखा गया है कि काफी समय और धन खर्च किए जाने के बावजूद नदी पर प्रदूषण का दबाव बढ़ता ही गया है। यमुना में जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग (बीओडी) 1980 में जहां 117 टन प्रतिदिन थी वहीं यह 2008 में बढ़कर 270 टन प्रतिदिन हो गई है। (सीएसई, 2008)

हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर 1996 और 2009 में जल की गुणवत्ता को तालिका-2 में बताया गया है।

यमुना एक्शन प्लान चरण दो के प्रभावों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने दिसंबर 2011 में यमुना एक्शन प्लान चरण तीन को स्वीकृति दी है जिसका अनुमानित बजट 16.56 अरब रुपए रखा गया है और इसके केंद्र में दिल्ली को रखा गया है। इसलिए, यमुना नदी के दिल्ली खंड में विविध प्रदूषण नियंत्रण हस्तक्षेपों का मूल्यांकन आवश्यक हो गया है।

दिल्ली में यमुना नदी


यमुना नदी का दिल्ली खंड इसके सर्वाधिक प्रदूषित खंडों में से एक है। (देखें तालिका 3)

जैसा कि तालिका 3 में बताया गया है, यमुना एक्शन प्लान के चरण एक और चरण दो के पूर्ण होने के बावजूद नदी की जल गुणवत्ता वांछित मानकों तक नहीं पहुंची है। इसलिए जल गुणवत्ता में सुधार और समय तथा धन दोनों के तौर पर निवेश आदि को ध्यान में रखकर विभिन्न हस्तक्षेपों के तहत प्रभाव पुर्वानुमान के आधार पर नदी कार्य योजनाओं को नए सिरे से तैयार करने की जरूरत है।

लगभग 224 किमी. की दूरी स्वछंद रूप से तय करने के बाद नदी पल्ला गांव के निकट दिल्ली में प्रवेश करती है और वजीराबाद में एक बार फिर से बैराज के माध्यम से घेर ली जाती है। यह बैराज दिल्ली के लिए पेयजल आपूर्ति करता है और यहां से आगे प्रवाह एक बार फिर से शून्य या बेहद कम हो जाता है। इसके बाद नदी में अनुपचारित या अंशतः उपचारित घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्ट जल नदी में मिलता है। एक बार फिर लगभग 25 किमी. बहने के बाद ओखला बैराज के आगे इसके पानी को आगरा नहर में सिंचाई के लिए डाल दिया जाता है और नदी एक बार फिर से ओखला बैराज में बंध कर रह जाती है। इसके कारण गर्मियों में बैराज से लगभग शून्य या बेहद नगण्य पानी निकलने दिया जाता है। ओखला बैराज के बाद नदी में पूर्वी दिल्ली, नोएडा और साहिबाबाद इलाकों से निकला घरेलू व औद्योगिक अपशिष्ट जल शाहदरा नाले के जरिए नदी में गिरता है। आखिर में यमुना में अन्य महत्वपूर्ण सहायक नदियों का पानी मिलता है और लगभग 1370 किमी. चलने के बाद यह इलाहाबाद में गंगा और भूमिगत सरस्वती से मिलती है।

दिल्ली यमुना नदी के तट पर बसा सबसे बड़ा शहर है और दिल्ली खंड इस नदी का सबसे प्रदूषित खंड। यमुना की सफाई के लिए एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चरण में यमुना एक्शन प्लान बना लेकिन न तो प्रदूषण स्तर घटा और न ही नदी पर बढ़ता दबाव। शहर से नदी में गिरते अपशिष्ट जल के उपचार के लिए दिल्ली में स्थापित संयंत्रों की क्षमता का भी पूरा-पूरा उपयोग नहीं किया जा सका। ऐसे में साफ-सुथरी यमुना का प्रवाह देखना अब भी एक स्वप्न भर है।यह बेसिन देश के बहुत बड़े भूभाग में फैला हुआ है। नदी पर पांच बैराजों की मौजूदगी के कारण पूरे वर्ष नदी की बहाव स्थितियों में काफी बदलाव देखा जाता है। अक्टूबर से जून तक नदी लगभग सूखी रहती है या कुछ खंडों में बहुत थोड़ा प्रवाह होता है जबकि मानसून अवधि (जुलाई-सितंबर) के दौरान इसमें बाढ़ आई रहती है। इस क्षेत्र की लगभग 60 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नदी के जल से होती है। नदी के जल का उपयोग प्रवाह में और प्रवाहेतर दोनों ही रूपों में होता है जिसमें सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक उपयोग शामिल है। (सीपीसीबी 2001-02 ए)

देखा गया है कि बिंदु और गैर बिंदु दोनों ही स्रोत नदी के प्रदूषण में अपनी भूमिका निभाते हैं, जिसमें दिल्ली सबसे बड़ा प्रदूषक है और इसके बाद आगरा तथा मथुरा का नंबर आता है।

दिल्ली में जल एवं अपशिष्ट जल अवसंरचना


राजधानी तीन मुख्य स्रोतों, नामतः भूतल जल, भूगर्भ जल और वर्षाजल से जल प्राप्त करती है। यहां पैदा घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों से उत्पन्न अपशिष्ट जल नालों के रास्ते मल उपचार संयंत्रों और सीटीईपी तक पहुंचता है। हालांकि, कृषि क्षेत्र का जल भूमि के रास्ते घुसपैठ कर भूगर्भ जल में जा मिलता है। इसके बाद, संपूर्ण अपशिष्ट जल मल उपचार संयंत्रों से खुले नाले के रास्ते नदी में जा मिलता है जिससे नदी में बिंदुस्रोत प्रदूषण पैदा होता है। साथ ही मानसून के दौरान, शहर का अतिरिक्त पानी जो गैरबिंदु प्रदूषण को जन्म देता है, वह भी विशाल नालों में मिल जाता है, वह भी विशाल नालों में मिल जाता है और फिर से यमुना में ही शामिल हो जाता है। इस तरह, देखा जा सकता है कि बिंदु और गैर बिंदु दोनों ही स्रोत मिलकर नदी का प्रदूषण स्तर बढ़ाते हैं। शहर में उत्पन्न अपशिष्ट जल आपूर्ति किए जाने वाले जल का 80 प्रतिशत माना जाता है और इसका उपचार 17 मल उपचार संयंत्रों तथा 13 सीटीईपी के जरिए होता है जिसके बाद यह यमुना में मिल जाता है। (सीडीपी, दिल्ली, 2006)

नदी की गुणवत्ता वजीराबाद बैराज के बाद तो बुरी तरह बिगड़ जाती है और मानकों के अनुरूप बिल्कुल नहीं रह पाती है। ऐसा उन 13 नालों के नदी में मिलने के कारण होता है जिनमें घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग से उत्पन्न अपशिष्ट जल पूर्णतः अनुपचारित या अंशतः उपचारित रूप में आता है और स्वच्छ जल प्रवाह के अभाव में नदी में वैसा ही गंदा पानी जाता है। शहर में 6555 लाख गैलन अपशिष्ट जल प्रतिदिन पैदा होता है और इसमें से केवल 3167 लाख गैलन प्रतिदिन मल उपचार संयंत्रों के द्वारा शोधित हो पाता है। (जमवाल एवं मित्तल, 2010) दिल्ली में मौजूदा मल उपचार संयंत्रों का ऐसा विवरण तालिका 4 में उपलब्ध है। देखा जा सकता है कि दिल्ली में अधिकांश मल उपचार संयंत्र और सीटीईपी का उपयोग उनकी क्षमता से कम ही हो रहा है। नालों को उपचार संयंत्रों के हिसाब से बताया गया है और उनके संबंधित क्षेत्रों का भी उल्लेख किया गया है।

इस खंड में विभिन्न स्थानों पर उपचार संयंत्रों के रास्ते नदी में मिलने वाली अपशिष्ट जलधाराओं का विवरण तालिका 4 में दिया गया है। नदी में एक अन्य रास्ते जिसे हिंडन कट के नाम से जाना जाता है, के माध्यम से एक प्रत्यक्ष दबाव बनता है। दिल्ली में शुरू होने वाले और ओखला बैराज में गिरने वाले नाले जिनमें कालकाजी, सरिता विहार, तुगलकाबाद, शाहदरा, सरिता विहार पुल के पास, एलपीजी वॉटलिंग प्लांट के पास और तेहखंड आदि शामिल है, ये अध्ययन के दायरे से बाहर हैं। नजफगढ़ नाले की दिल्ली के कुल अपशिष्ट जल प्रवाह में 72.7 प्रतिशत और दिल्ली में नदी की कुल जैवरासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) के दबाव में 61 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। (सीपीसीबी, 2006-07) अपशिष्ट जल के मौजूदा पुनर्चक्रण की स्थिति इस प्रकार है; राज्याभिषेक स्तंभ संयंत्र-377 लाख गैलन प्रतिदिन, केशोपुर संयंत्र-199.1 लाख गैलन प्रतिदिन, रिठाला संयंत्र-50 गैलन प्रतिदिन और सेन नर्सिंग होम संयंत्र-22 लाख गैलन प्रतिदिन।

दिल्ली के मास्टर प्लान 2021 के अनुसार दिल्ली जल बोर्ड शहर की मल उपचार संयंत्र क्षमता, सीटीईपी क्षमता और पुनर्चक्रण तथा पुनरुपयोग क्षमता बढ़ाने की योजना बना रहा है जिससे यमुना नदी में उत्पन्न अपशिष्ट जल की मात्रा कम होगी। प्रत्येक क्षेत्र में प्रस्तावित ‘हरित पट्टी’ की भी व्यवस्था मास्टर प्लान 2021 में की गई है (दिल्ली मास्टर प्लान 2021, 2007) ऐसे क्षेत्रों का सड़क के किनारे कृषि प्रयोजनों, फार्म हाउसों या वृक्षारोपण के लिए उपयोग किया जाता है। दिल्ली जल बोर्ड ने भी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए एक इंटरसेप्टर सीवर योजना का प्रस्ताव किया है।

दिल्ली में यमुना सफाई के प्रयास


1. एसटीपी. सीटीईपी में वृद्धि
2. इंटरसेप्टर सीवेज सिस्टम
3. तृतीयक उपचार की स्थापना
4. पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग के विकल्प
5. प्रवाह वृद्धि

हालांकि, पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग के हस्तक्षेप के साथ-साथ तृतीयक उपचार के विकल्प के परिदृश्य में नदी के पानी की गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में, यह देखा जाता है कि नदी अपने वांछित स्तर को प्राप्त नहीं कर पाई है (शर्मा, डी. 2013)। इसलिए, स्तर ‘सी’ को प्राप्त करने के लिए नदी में स्वच्छ जल मिलाना महत्वपूर्ण है। नदियों के जल के बंटवारे के लिए अंतर-राज्यीय विवादों के लिए सफल समाधान और जल के मांग पर जल-दबाव के मद्देनजर दिल्ली के लिए नदी में इतनी बड़ी मात्रा में स्वच्छ जल उपलब्ध कराना मुश्किल है।

यमुना मानचित्रइसीलिए पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग विकल्पों के साथ मल उपचार संयंत्रों की स्थापना के द्वारा नदियों के प्रवाह में प्रदूषित जल का मिश्रण तथा सीवेज उत्पादन को कमतर करना बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे शहर में बेहतर सीवेज अवसंरचना तैयार होगी और नदी पर प्रदूषण का दबाव भी न्यूनतम हो जाएगा। हालांकि, अत्यधिक मात्रा में प्रदूषित जल छोड़े जाने के कारण यह अब भी अपने वांछित स्तर यानी सी वर्ग की नदी का दर्जा हासिल नहीं कर पाएगा। इसलिए, यमुना एक्शन प्लान के तहत धन प्रवाह को देखते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि नदी के दिल्ली खंड को सी स्तर प्राप्त करने की जरूरत पर ध्यान दिया जाए।

अनुशंसाएं


यमुना एक्शन प्लान के तहत चल रही गतिविधियों को सही दिशा में माना जा रहा है, लेकिन प्रभावी कार्यान्वयन की अवधारणा नदी प्रणाली में स्वच्छ जल के प्रवाह को बढ़ाने के उपाय सहित अन्य इंजीनियरिंग प्रयोगों की आवश्यकता होगी। नदी की जल गुणवत्ता को पुनः बहाल करने के लिए कुछ उपायों का विवरण नीचे के खंड में दिया गया है।

मल उपचार प्रणाली में सुधार


पूरी राजधानी में सीवर व्यवस्था की जानी चाहिए और संपूर्ण अपशिष्ट जल को (यदि आवश्यक हो तो पंपों के माध्यम से) उपचार और निपटान के लिए भेजा जाना चाहिए ताकि नदी में ‘जीरो’ डिस्चार्ज सुनिश्चित किया जा सके। मौजूदा जल उपचार संयंत्रों, जो वांछित निष्पादन मानकों के अनुरूप नहीं है, को समुन्नत करके ऐसा किया जा सकता है। नदियों के किसी एक किनारे या दोनों किनारों पर नहर या बांध जैसे वैकल्पिक ड्रेनेज सिस्टम की स्थापना से भी यह प्राप्त किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात, सीवेज पंपिंग स्टेशनों के लिए 24 घंटे बिजली उपलब्धता की जरूरत है।

‘हरित शहर’ की अवधारणा को प्रोत्साहित करने के लिए नदियों के मोर्चे पर विकास को, आर्थिक रूप से व्यवहारिक और पर्यावरण के अनुकूल समाधान इन दोनों ही पैमानों पर देखा जाना चाहिए। फव्वारे, कृत्रिम झरने, खेल का मैदान, घसियाली भूमि, जल क्रीड़ा, प्रवाहमान नहर, तालाबों और वृक्षारोपण आदि के साथ नदी तटों को पार्क के रूप में अवश्य विकसित किया जाना चाहिए जिसका इस्तेमाल कृत्रिम सुविधाओं के रूप में किया जा सके।

जलग्रहण क्षमता का विस्तार और प्रदूषक स्रोतों पर लगाम


मानसून के दौरान नदी में संग्रहण कर संग्रहित जल और शुष्क अवधि के दौरान छोड़े गए पानी का उपयोग करके इसके माध्यम से प्रवाह में बढ़ोतरी कर यह हासिल किया जा सकता है। मुख्य धारा के लिए इसकी सहायक धाराओं, अपशिष्ट जल लाने वाले नालों आदि में धारा के नीचे विसरित वातकों व यांत्रिक तलीय वातकों का प्रयोग करके कृत्रिम रूप से उनमें हवा का प्रबंध किया जाना चाहिए। इसलिए, यमुना एक्शन प्लान के तहत किसी भी प्रदूषण नियंत्रण उपाय को डिजाइन करने के लिए जल गुणवत्ता मॉडल का प्रदर्शन देखना महत्वपूर्ण है। मॉडलिंग प्रस्तावित उपायों के कार्यान्वयन से पहले उनका मूल्यांकन करने में योजनाकारों को मदद देगी। अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण एवं पुनरुपयोग मुख्य अवसरों में से एक है जिसके द्वारा पानी का उपयोग सिंचाई, बागवानी और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। विद्युत स्टेशन में टावरों को ठंडा करने के लिए भी आपूर्ति की जा सकती है। भूजल पुनर्भरण और गंदा पानी का उपचार और पुनः उपयोग भी अन्य लाभप्रद विकल्प हो सकते हैं। इतना ही नहीं, गैर बिंदु स्रोतों जैसे खेत खलिहान, नदियों में मनुष्यों और जंतुओं के स्नान, मूर्ति विसर्जन आदि से उत्पन्न हो रहे प्रदूषण पर नियंत्रण भी महत्वपूर्ण है।

शहरी और कृषिगत अप्रयुक्त जल से होते प्रदूषण को वर्षाजल संचय इकाइयां बनाकर तथा टिकाऊ शहरी नाला प्रणाली बनाकर विसरित प्रदूषण कम किया जा सकता है। कृषि अपशिष्ट जो सीधे नदी में पहुंच जाता है उसे नदी के तटवर्ती खेतों में फिल्टर तथा बफर स्ट्रिप बना करकम किया जा सकता है।

तालिका-1 : यमुना एक्शन प्लान चरण 1 और चरण दो के राज्यवार निवेश और योजनाओं का ब्यौरा
 

चरण 1

चरण 2

 

दिल्ली

हरियाणा

उ.प्र.

दिल्ली

हरियाणा

उ.प्र.

स्वीकृत राशि (अरब रुपए)

1.81

2.42

2.82

4.69

6.34

1.15

केंद्र से जारी राशि (अरब रुपए)

1.77

1.78

2.40

1.21

0.48

0.58

स्वीकृत योजनाओं की संख्या

12

111

146

11

16

5

पूर्ण योजनाओं की संख्या

12

111

146

0

6

1



तालिका -2 : यमुना नदी में जल गुणवत्ता के आंकड़े ग्रीष्मकालीन औसत (मार्च-जून)

बिंदु/स्थान

1996

2009

  
 

डीओ (एमजी/1)

बीओडी (एमजी/1)

डीओ (एमजी/1)

बीओडी (एमजी/

हरियाणा ताजेवाला

11.70

1.20

9.22

1.25

कालानौर सोनीपत

10.40

1.05

9.10

2.33

दिल्ली निजामुद्दीन

0.30

25.00

0.0

23.0

उत्तर प्रदेश आगरा नहर

0.35

26.50

0.00

14.75

मझवाली

0.50

22.0

2.75

16.75

मथुरा

8.10

4.00

5.28

8.50

मथुरा डी/एस

8.50

2.50

6.30

8.75

आगरा डी/एस

1.65

9.00

4.67

16.5

उड़ी

9.71

2.00

9.00

1.00

औरया जुहिका

8.14

5.0

11.05

7.75



स्रोत : सीपीसीबी

तालिका : दिल्ली के निजामुद्दीन में यमुना नदी की औसत वार्षिक जल गुणवत्ता

वर्ष

डीओ (मिग्रा प्रति ली)

बीओडीओ (मिग्रा प्रति ली)

टीसी (एमपीएन प्रति 100 मिली)

1995

3.4

9.6

386091

2005

1.6

10.00

12200000

2009

0.0

23.00

22516660

मानक*

>4

<3

>5000



आंकड़े सीपीसीबी और सीडब्ल्यूसी से लिए गए हैं। स्रोत: सीपीसीबी 2000, 2006-07 टीसी=टोटल कॉलीफार्म्स, बीओडी=जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग, *सी वर्ग के लिए सीपीसीबी मानक

सीवर क्षेत्र

संबंधित नाले

मल उपचार संयंत्र

मौजूदा स्थिति

शाहदरा

शाहदरा

यमुना विहार कोंडली

क्षमता से कम उपयोग वही

रिठाला-रोहिणी

नजफगढ़ व सहायक

नरेला रिठाला रोहिणी

वही, वही, वही

ओखला

मैगजीन रोड, स्वीपर कॉलोनी, खैबर दर्रा, मेटकॉफ हाउस आईएसबीटी, मोरी गेट, तांगा स्टैंड, सिविल मिल, नंबर 14, पावर हाउस, दिल्ली गेट, सेन नर्सिंग होम, बारापुला, महारानी बाग, कालकाजी, सरिता विहार, तुगलकाबाद, एलपीजी बॉटलिंग प्लांट के नजदीक, सरिता विहार पुल के नजदीक, तेहखंड

वसंत कुंज 1 और 2 महरौली ओखला सेन नर्सिंग होग दिल्ली गेट घिटोरनी

वही, वहीं, वहीं, पूर्ण उपयोग में, पूर्ण उपयोग में शुरू नहीं

केशोपुर

नजफगढ़ व सहायक

पप्पनकलां नजफगढ़ केशोपुर निलोठी

वही, वही, वही, वही,

राज्याभिषेक स्तंभ

नजफगढ़ व सहायक

राज्याभिषेक स्तंभ I, II और III

वही

  

ऑक्सीकरण तालाब, तिमारपुर

पूर्ण उपयोग में



संदर्भ


1. गुर्जर आरके एवं जाट बीसी, 2008, रावत प्रकाशन सीपीसीबी, 2006-07, यमुना नदी के जल की गुणवत्ता स्थिति (1999-2005)
2. जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन का संयुक्त निगरानी कार्यक्रम, 2008
3. योजना आयोग, 2007 : http://planningcommission.nic.in/reports/sereport/ser/wjc/wjc_ch1pdf
4. नदी कार्य योजना, राष्ट्रीय नदी संरक्षण, स्वच्छ नदियों के लिए कार्यकारी निदेशालय।
5. परियोजना प्रबंधन सलाहकार (पीएमसी(. एनए, यमुना कार्य योजना:
6. सीएसई-2009 यमुना में प्रदूषण की स्थिति, पर्यावरण एवं विज्ञान के लिए केंद्र, दिल्ली, भारत
7. सीपीसीबी 2012-02ए जलगुणवत्ता स्थिति व सांख्यिकी
8. नगरीय विकास योजना, 2006. शहरी विकास विभाग, दिल्ली सरकार
9. दिल्ली नगर में अनुपचारित सीवेज का पुनः उपयोग एसटीपी और पुनः उपयोग के विकल्प के सूक्ष्म मूल्यांकन
10. दिल्ली मास्टर प्लान (एमपीडी)-2021-2007 शहरी विकास मंत्रालय
11. शर्मा, डी, 2013. डॉक्टरल शोध, टेरी विश्वविद्यालय

जल स्वराज : मुमकिन है

Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 13:12
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Talab

.पानी के प्रबंध की फिलासफी का अंतिम लक्ष्य जल स्वराज है। जलस्वराज, हकीकत में पानी के प्रबंध की वह आदर्श व्यवस्था है जिसमें हर बसाहट, हर खेत-खलिहान तथा हर जगह जीवन को आधार प्रदान करती पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित होती है।

जल स्वराज, हकीकत में पानी का ऐसा सुशासन है जो जीवधारियों की इष्टतम आवश्यकता के साथ-साथ पानी चाहने वाले प्राकृतिक घटकों की पर्यावरणी जरूरतों को बिना व्यवधान, पूरा करता है।

वह, जीवधारियों को जल जनित कष्टों से मुक्त करता है। उन्हें आरोग्य प्रदान करता है। स्वचालित एवं स्वनियंत्रित प्राकृतिक व्यवस्था की मदद से पानी को खराब होने से बचाता है। खारे पानी को शुद्ध करने के लिए वाष्पीकरण को मदद करता है।

वर्षा की मदद से उसे पृथ्वी पर लौटाता है। जल स्रोतों को टिकाऊ बनाता है। वह संस्कृतियों का आधार है। उसमें संस्कार पलते हैं। वह पर्यावरण हितैषी है। वह ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी, जाति-धर्म और भेद-भाव इत्यादि से मुक्त है। वह, प्रकृति का अनमोल वरदान है। वह सबको सहज ही उपलब्ध है।

जल स्वराज की फिलासफी का मानना है कि पानी को धरती पर उतरने के बाद जीवधारियों की मूलभूत जरूरतों तथा योगक्षेम को पूरा करना चाहिए। उसे समस्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही समुद्र में मिलना चाहिए।

धरती पर यात्रा करते समय, किसी के हक की अनदेखी, अवहेलना या चोरी नहीं करना चाहिए। उसे, लोगों को तोड़ना नहीं जोड़ना चाहिए। उसे युद्ध का कारण नहीं बनना चाहिए। वह जीवधारियों के लिए अमृत के समान है। उसने आज तक जीवमात्र को अमृत ही बांटा है। अतः उसे आगे भी, अमृत ही बांटना चाहिए।

सब जानते हैं, उसका स्पर्श पाकर ही धरती, अपनी मनोहारी छटा बिखेरती है। सब जानते हैं, पानी का रूठना फिजा बदल देता है। उसकी लम्बी बेरुखी धरती को रेगिस्तान बनाकर मानव सभ्यताओं तथा जीव-जंतुओं की बसाहटों को अल्पकाल में इतिहास बना देती है।

भारत में जल प्रबंध के दो मॉडल प्रचलन में हैं। पहला मॉडल पाश्चात्य जल विज्ञान पर आधारित पानी का केन्द्रीकृत मॉडल है। इस मॉडल में कैचमेंट के पानी को जलाशय में जमा कर कमांड में वितरित किया जाता है। इस मॉडल में, जलाशय, जलसंचय का केन्द्र होता है।

कैचमेंट पानी मुहैया कराने वाला इलाका तथा कमांड, पानी का उपयोग करने वाला हितग्राही होता है। इस मॉडल को मुख्यतः अंग्रेजों ने लागू किया था किंतु आजाद भारत के खाद्यान्न संकट, हरित क्रांति तथा अकालों ने उसे मुख्यधारा में पहुंचाया। इस मॉडल को भारत का जल संसाधन विभाग क्रियान्वित करता है। उसका नियंत्रण सरकारी अमले के हाथ में होता है।

दूसरा मॉडल पानी के स्वस्थाने जल संग्रह का मॉडल है। इस मॉडल में जहां पानी बरसता है उसे वहीं संचित कर उपयोग में लाया जाता है। यदि उपयोग के बाद कुछ पानी बचता है तो उसे आगे जाने दिया जाता है। इस मॉडल का क्रियान्वयन कृषि विभाग तथा ग्रामीण विकास विभाग करता है। इन विभागों के अतिरिक्त अनेक संस्थान पानी के कामों को वित्तीय सहयोग प्रदान करते हैं। उनके वित्तपोषण से संचालित योजनाएं भी उपर्युक्त दोनों मॉडलों में से किसी एक मॉडल की मार्गदर्शिका का पालन करती हैं।

सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों (टाप-डाउन और बाटम-अप अवधारणा) का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है।

1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था। इसी दौर में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा जलग्रहण कार्यक्रम के अंतर्गत जल संरक्षण की छोटी-छोटी योजनाओं की प्लानिंग, क्रियान्वयन, संचालन और रखरखाव में समाज की भागीदारी की कोशिश हो रही थी।

इस भागीदारी की मदद से प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध कर जल संकट और ग्रामीण आजीविका के संकट का हल खोजा जा रहा था। इसी दौर में देश के कुछ ग्रामों में समाज की सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्रियान्वित मॉडलों ने आशा की किरण जगाई और जलग्रहण क्षेत्र विकास कार्यक्रम को पहचान मिली। बारानी खेती वाले इलाकों के अनेक ग्रामों में जल संकट के हल की सस्ती तथा समाज नियंत्रित इबारत लिखी जाने लगी। चूंकि स्थानीय स्तर पर जल संकट में कमी आ रही थी इसलिए उसे जल स्वराज का संकेतक या उसका उषाकाल कहा जा सकता था। इसी दौर में स्वयं सेवी संस्थाओं की सक्रियता तथा भागीदारी बढ़ी।

1990 के दशक में बाटम-अप कार्यप्रणाली और छोटी संरचनाओं के समावेशी निर्माण के बावजूद टाप-डाउन कार्यप्रणाली अस्तित्व में थी। उसकी निरंतरता पर कोई संकट नहीं था। यही वह दौर था जब भारत में वैश्वीकरण का युग प्रारंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के सहयोग (कर्ज) से बड़ी संरचनाओं (बांधों) की वापसी हो रही थी।

सन् 1987 में अस्तित्व में आई पहली राष्ट्रीय जल नीति का झुकाव समाजवादी नीतियों से हटकर पूंजीवादी व्यवस्था की ओर हो रहा था। इसी अवधारणा के चलते बड़ी संरचनाओं (बांधों) को आर्थिक विकास तथा गरीबी उन्मूलन का कारगर हथियार माना जा रहा था। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकारी नीतियां व्यवस्था को बदलने पर आमादा थीं। धन की कमी का रोना, बीते युग की कहानी रह गया।

विश्व बैंक सहित अनेक वित्तीय संस्थाओं ने भारत के जलक्षेत्र का कायाकल्प करना प्रारंभ कर दिया। धन की सहज उपलब्धता के कारण अनेक भूली बिसरी योजनाओं के दिन फिरने लगे। बड़ी परियोजनाओं के सिंचाई प्रबंधन में कसावट लाने तथा उत्तरदायित्वों में किसानों का सहयोग लिया जाने लगा। सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नियामक आयोगों को सौंपना प्रारंभ कर दिया था।

सरकार सहयोगी की भूमिका में खड़ी नजर आ रही थी। बाजार ने पानी को अपने मोहपाश में लेने के लिए शब्दावली गढ़ ली थी। इस पूरी कसरत में जल स्वराज खो गया था। अनेक अंतर विरोधी धाराओं के कारण उसका समाज से रिश्ता बेमानी हो रहा था। जल स्वराज का सपना, चर्चा का केंद्र बिंदु नहीं था। यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल का उषाकाल था।

जलप्रबंध का केन्द्रीकृत मॉडल और जल उपलब्धता


सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है। 1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था।जल प्रबंध के केन्द्रीकृत मॉडल की मदद से भारत की नदियों में प्रवाहित लगभग 1869 लाख क्यूबिक मीटर पानी में से अधिकतम 690 लाख हेक्टेयर मीटर पानी का ही उपयोग किया जा सकता है। इस गणना में भूजल के योगदान को सम्मिलित नहीं किया है। यदि इसमें नदी जोड़ परियोजना के माध्यम से मिलने वाले ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के अतिरिक्त पानी को भी जोड़ लिया जाए तो भी लगभग 1123 लाख क्यूबिक मीटर (लगभग 28 प्रतिशत) पानी को ही उपयोग में लाया जा सकता है। इसके आधार पर परियोजनाओं के पूरा होने के बाद भी प्यासे कैचमेंटों की समस्या का हल नहीं निकलेगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पानी का केन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के केवल 28 प्रतिशत हिस्से का ही उपयोग करने में सक्षम है। उसकी मदद से केवल कमाण्ड को ही सरसब्ज बनाया जा सकता है। उसकी मदद से कमाण्ड के बाहर के इलाकों में पानी पहुंचाना कठिन है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि केन्द्रीकृत मॉडल द्वारा देश के हर अंचल में पानी पहुंचाना और आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं है।

देश और समाज के लिए केन्द्रीकृत मॉडल की उपयोगिता सीमित है। उसके लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को नहीं मिल सकते। उसमें समाज की भागीदारी के लिए स्थान नहीं होता। वह जल सुशासन या जल स्वराज का पर्याय नहीं है। वह कमांड में रहने वाले लोगों की लाटरी की तरह है। वह सबको नहीं किसी खास इलाके को उपकृत करता है।

जल प्रबंध के विकेन्द्रीकृत मॉडल की सहायता से लगभग 2259 लाख हेक्टेयर मीटर पानी को उपयोग में लाया जा सकता है। इसमें भूजल का हिस्सा (390 लाख हेक्टेयर मीटर) सम्मिलित है। विकेन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के लगभग 56 प्रतिशत हिस्से को उपयोग में ला सकता है। यह मात्रा केन्द्रीकृत मॉडल की मात्रा की तुलना में लगभग दो गुनी अधिक है।

दो गुनी अधिक उपलब्धता के कारण, पानी की इष्टतम मात्रा को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराया जा सकता है। इसलिए उसकी पहुंच बेहतर है। विकेन्द्रीकृत मॉडल का लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को मिलना संभव है। इस क्रम में कहा जा सकता कि विकेन्द्रीकृत मॉडल की मदद से हर बसाहट में जल कष्ट को समाप्त और समाज की अनिवार्य जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।

विकेन्द्रीकृत मॉडल में उपयोग में लाई इंजीनियरिंग सरल होती है। वह आसानी से समझ में आ जाती है इसलिए कहा जा सकता है कि वह, समाज की भागीदारी की राह में रोड़ा नहीं है। विकेन्द्रीकृत मॉडल को अपना कर जल प्रबंध को मानवीय चेहरा प्रदान किया जा सकता है।

जल स्वराज के लिए संविधान और राष्ट्रीय जलनीति 2012 में कतिपय परिवर्तन करने होंगे। पानी को समाज की धरोहर बनाना होगा। जलनीति में पानी के आवंटन में समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं को पहला स्थान देना होगा।

अनिवार्य आवश्यकताओं में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित होगा। उसके बाद नदियों में पर्यावरणी प्रवाह के लिए पानी का आवंटन किया जाना चाहिए। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचे पानी के उपयोग के लिए राष्ट्रीय जलनीति 2002 में उल्लेखित प्राथमिकता क्रम अपनाया जाना चाहिए।

जल स्वराज की सुनिश्चितता के लिए प्रत्येक प्राथमिकता के लिए आवंटित मात्रा का उल्लेख आवश्यक है। पहली प्राथमिकता में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित है। इसकी गणना के लिए नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्शाई इकाईयों को काम में लाया जा सकता है।

तालाबसुझाव है, नेशनल वाटरशेड एटलस में परिभाषित सबसे छोटी इकाई में निवास करने वाली आबादी की मूलभूत आवश्यकता तथा पर्यावरणी प्रवाह की पूर्ति के लिए आवश्यक पानी को छोड़ने के बाद, अगली इकाई के लिए पानी छोड़ा जाए। यही व्यवस्था उत्तरोत्तर बढ़ती इकाइयों के लिए अपनाई जाए। इस व्यवस्था के अनुसार जल आवंटन करने से जल स्वराज लाना मुमकिन है।

देश में जल विपन्न इलाकों की हमेशा-हमेशा के लिए समाप्ति ही जल स्वराज है। वही जल प्रबंध की समावेशी मंजिल है जो मौजूदा व्यवस्था, समाज तथा योजना बनाने वालों के बीच के सोच के अंतर को समाप्त कर पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित करती है। इसलिए कहा जा सकता है कि जलप्रबंध की अंतिम मंजिल जल स्वराज है।

समाज की अपेक्षा का आईना ही समग्र जल स्वराज है। वही सही जल प्रबंध है। वही जल स्वालम्बन है। वही जल जनित मानवीय विफलताओं को सफलता में बदलने का जरिया, समाज की अपेक्षाओं के अनुरुप रणनीति विकसित करने एवं तदनुरूप योजनाएं जमीन पर उतारने का सशक्त जरिया है।

अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने के पहले इसी विकेन्द्रीकृत देशज मॉडल ने भारत में जल स्वराज की इबारत लिखी थी। वही इबारत, आज भी समाज, धरती की सहमति, भारतीय जलवायु और भूगोल से तालमेल तथा सहयोग से लिखी जा सकती है। अवधारणा को पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि भारत में जल स्वराज मुमकिन है।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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