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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

Submitted by Shivendra on Fri, 11/28/2014 - 10:44
Source:
Dr. Ashok Ghosh

यह देखकर अच्छा लगता है कि बिहार की राजधानी पटना के अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज में पयार्वरण एवं जल प्रबंधन विभाग भी है। इस विभाग में मिलते हैं डॉ. अशोक कुमार घोष, जो पिछले तेरह-चौहद सालों से बिहार के विभिन्न इलाकों में पेयजल में मौजूद रासायनिक तत्वों और उनकी वजह से यहां के लोगों को होने वाली परेशानियों पर लगातार न सिर्फ शोध कर रहे हैं, बल्कि लोगों को जागरूक कर रहे हैं और इस समस्या का बेहतर समाधान निकालने की दिशा में भी अग्रसर हैं।

राज्य की गंगा पट्टी के इर्द-गिर्द बसे इलाकों में पानी में आर्सेनिक की उपलब्धता और आम लोगों पर पड़ने वाले इसके असर पर इन्होंने सफलतापूर्वक सरकार और आमजन का ध्यान आकृष्ट कराया है। पिछले तीन-चार साल से वे पानी में मौजूद एक अन्य खतरनाक रसायन फ्लोराइड की मौजूदगी और उसके कुप्रभावों पर काम कर रहे हैं। उनके प्रयासों का नतीजा है कि बिहार की सरकार भी इन मसलों पर काम करने की दिशा में सक्रिय हुई है और पूरे राज्य के जलस्रोतों का परीक्षण कराया गया है।

Submitted by Shivendra on Mon, 11/24/2014 - 13:04
Source:
Talab
आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादों में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गर्मी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है।

भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।

कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं।

जिन इलाकों में अच्छी बारिश होती है वहां के लोग बेशकीमती पानी की कीमत नहीं जान पाते हैं। जिस साल वहां कुछ कम पानी बरसता है तो वे बेहाल हो जाते हैं। सूखे के दौर में पीने के पानी का संकट, अन्न का अभाव और मवेशियों के लिए चारे की कमी सिर उठाने लगती है। फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कुपोषण, बीमारी जीवन में आई अनिश्चितता के कारण मानसिक परेशानियां इस त्रासदी को भयावह बना देते हैं।

सूखा बेरोजगारी साथ ले कर आता है। ऐसे में लोग काम की तलाश में अपने घर-गांव से दूर पलायन करते हैं। छोटा किसान अगली फसल की तैयारी के लिए सूदखोरों की गिरफ्त में फंस जाता है। यह ऐसा दुष्चक्र होता है, जिससे बाहर निकलना बेहद कठिन है।

तो क्या सूखे से बचा जा सकता है? आज हमारा विज्ञान प्रकृति पर नियंत्रण के भले ही बड़े-बड़े दावे करे, लेकिन एक छोटी-सी प्राकृतिक आपदा के सामने हम बौने साबित होते हैं। हम ना तो बारिश को बुला सकते हैं, ना ही उसकी दिशा बदल सकते हैं। ऐसे में इस संकट का सहजता से सामना करने का एकमात्र रास्ता है- सावधानी और प्रबंधन।

सावधानी
आखिर मेरे इलाके का पानी कहां चला जाता है? जब रेगिस्तान में लोग थोड़े-से पानी में साल भर जीवन मजे से काटते हैं तो हम क्यों नहीं? जब मालूम है कि औसतन हर तीन साल में एक बार कम बारिश से हमारा पाला पड़ेगा तो हम पहले से तैयार क्यों नहीं रहते हैं? क्या कम बारिश होने के बाद सरकार की ओर उम्मीद से देखना या फिर पलायन कर जाना ही एकमात्र विकल्प है? ये सारे सवाल यदि आपके भी मन में आते हैं- तो निश्चित ही आप सूखे से जूझ सकते हैं।

पानी की हर बूंद को बचाना, पेड़ों का रोपण, खेती में बदलाव, जमीन को मवेशियों की अतिचराई से बचाना- ये ऐसे निदान हैं, जो कम बारिश के बावजूद सूखे के हालात बनने से रोक सकते हैं।

हर बूंद को बचाना
पीने के लिए स्वच्छ जल, खेत के लिए पर्याप्त सिंचाई, साफ-सफाई के लिए पानी और मवेशियों के लिए पेयजल पानी के बगैर इंसान का जीवन असंभव हैं। कम बारिश के संभावित इलाकों की जानकारी सभी को है। बारिश के समय पानी को रोकने के हरसंभव उपाय किए जाएं।

1. पारंपरिक तालाबों की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण गर्मी के महीनों में कर लें, जल-संग्रह हो सके।
2. पुराने तालाबों, झीलों के किनारों से पानी की आवक के रास्ते में यदि कोई रुकावट हो तो उन्हें हटा दें।
3. पुराने कुओं की नियमित सफाई करें। जिन रास्तों से पानी बह कर नदी- नालों में जाता हो, उसके आस-पास कुएं खोदें।
4. गांव-मुहल्ले के हैंडपंपों की सफाई मरम्मत।
5. पक्के घरों की छतों पर बारिश के पानी की निकासी को नाली में बहने देने से रोकें। इस पानी को किसी पाईप के जरिए, जमीन में गहरे उतार दें। इसे ‘‘वाटर हारवेस्टिंग’’ कहते हैं। इसकी तकनीकी जानकारी विकासखंड कार्यालय से लें और अधिक से अधिक भवनों में इस लागू करें।
6. हैंडपंप और ट्यूबवेल के करीब छोटे-छोटे गड्ढे या तलैया खोदें, जिससे बारिश का पानी इनमें एकत्र हो। यह पानी भूजल को ताकत देता है।
7. बर्तन और कपड़ों की धुलाई, वाहन व अन्य चीजों की सफाई में कम से कम पानी का इस्तेमाल करें। जहां जरूरी ना हो डिटरजेंट-साबुन का प्रयोग कतई ना करें। डिटरजेंट की सफाई में अधिक पानी लगता है।
8. हैंडपंप से बहे बेकार पानी को एकत्र करने की व्यवस्था करें। यदि पक्की हौद या टंकी बना लें तो बेहतर होगा। यह पानी मवेशियों के लिए जीवनदायी होगा।

पेड़ लगाना
जहां हरियाली होगी, वहां बादल जरूर बरसेंगे, यह बात विज्ञान से सिद्ध हो चुकी है। सूखे के हालात में पेड़ों की मौजूदगी किसी चमत्कार की तरह होती है। पेड़-पौधे जमीन की नमी बरकरार रखते हैं, साथ ही मिट्टी की ऊपरी सतह को टूटने-बिखरने से बचाते हैं।

1. गांव के स्कूल, पंचायत और ऐसी ही सार्वजनिक जगहों पर पेड़ लगाए जाएं। ध्यान रहे पेड़ वहीं चुनें जो पारंपरिक रूप से आपके इलाके का हो। सफेदा या विलायती बबूल लग तो जल्दी जाता है, लेकिन यह नए संकटों को बुलावा देते हैं।
2. फलदार पेड़ आय का वैकल्पिक साधन बनते हैं। आम, जामुन, नीम, नींबू जैसे पेड़ ज्यादा उपयोगी होंगे।
3. नदी, तालाबों के किनारे पड़ी बेकार जमीन पर चारा उगाएं। यह संकट के समय मवेशियों के लिए उपयोगी होगा। इससे जमीन का क्षरण भी रुकता है। मिट्टी की नमी बरकरार रहती है, सो अलग।

खेती-किसानी
बगैर पानी के खेती संभव नहीं है। आज कई ऐसे बीज बाजार में आ गए हैं, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है। साथ फसल भी जल्दी तैयार होती है।

1. खेत के आसपास छोटे-छोटे तालाब बनाएं। यह पानी भूजल के लिए फायदे-मंद होगा।
2. मक्का की जीएम-6, धान की अशोका-114, के अलावा चने की भी कुछ ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जो कम पानी मांगती हैं।
3. रासायनिक खादों के स्थान पर कंपोस्ट का इस्तेमाल भी खेतों में पानी की मांग को कम करता है।

प्रबंधन
सूखे का पूरे जन-जीवन पर विपरीत असर पड़ता है इसके बाद विकास के काम ठप्प हो जाते हैं। जो पैसा या संसाधन विकास के कामों में लगता, वह राहत व पुनर्वास में खर्च हो जाता है। भोजन, खेती, रोजगार, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य ऐसी ही कई समस्याएं सूखा साथ लेकर आता है। सूखे से संभावित क्षेत्रों में प्रबंधन के तीन प्रमुख चरण होते हैं।

1. सूखा-पूर्व तैयारी
2. सूखे के दौरान प्रबंधन
3. जन-जीवन सामान्य बनाने हेतु कदम

सूखा-पूर्व तैयारी
सूखे या ऐसी किसी आपदा को नियंत्रित करना तो संभव नहीं है, लेकिन इसका पूर्वानुमान होने पर इससे जूझने की तैयारी जरूर की जा सकती है। कम बारिश होने की मौसम विभाग की चेतावनियों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। वहीं बारिश के पूर्वानुमानों के देशी-पारंपरिक तरीकों को भी ध्यान देना ठीक रहता है। इसमें सतर्कता जरूरी है, क्योंकि पारंपरिक ज्ञान का अंधविश्वासों से घाल-मेल होने की बेहद संभावना होती है।

1. मौसम विभाग के पूर्वानुमानों को रेडियों, अखबार, टी.वी. के माध्यम से देखा पढ़ा जा सकता है। यदि कम बारिश की संभावना हो तो आने वाले महीनों के लिए सामूहिक तैयारी करनी होगी।

2. कृषि विस्तार अधिकारी और विकास खंड कार्यालयों में भी बारिश की संभावना की सूचनाएं उपलब्ध रहती हैं। इस सूचना को गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक इस तरह पहुंचाएं कि कहीं डर, आतंक या घबराहट का माहौल ना पैदा हो जाए। ध्यान रहे कि ऐसी हड़बड़ाहट का फायदा सूदखोर, बिचौलिए और काला बाजारी करने वाले लोग उठा सकते हैं।

3. गांव की कुल आबादी, मवेशियों की संख्या, जल के स्रोत आदि आंकड़ों कोेे एकत्र कर लें। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले महीनों में गांव में खाने की सामग्री पेयजल और चारे की कितनी मांग होगी।

4. पानी के कमी के कारण फैलने वाली बीमारियों की संभावित दवाईयां जैसे ओ. आर. एस. घोल आदि एकत्र रखें।

5. शुद्ध पेयजल के लिए देशी तकनीक पर आधारित छन्नों (बजरी, चूना, फिटकरी वाले) की व्यवस्था रखें। यदि असुरक्षित पानी पीने की मजबूरी हो तो पानी को उबालने व उसे देशी छन्नों से शुद्ध करने की तकनीक का घर-घर तक प्रचार करें।

6. रोजगार गांरटी योजना के तहत ‘जॉब-कार्ड’ बनवाएं। गांव की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में यदि कमी हो तो उसे ठीक करने के लिए संबंधित अधिकारी से संपर्क करें।

7. हालात बिगड़ने से पहले ही गांव के लोगों की दिक्कतों की जानकारी जिले के वरिष्ठ अधिकारियों तक अवश्य पहुंचाएं।

8. ‘अन्न-बैंक’ और ‘स्वयं सहायता समूह’ योजनाएं सूखा-संभावित इलाकों के लिए वरदान हैं। हर इंसान को अन्न और हर मवेशी को चारे का अनुमान लगाकर इसका भंडारण करें। ‘स्वयं सहायता समूह’ रोजगार के दूसरे अवसर मुहैया करवाने तथा ऊंची ब्याज दरों पर उधार देने वाले साहूकारों से मुक्ति का माध्यम हैं।

9. छोटे-मोटे आपसी विवादों, जातीय या धार्मिक टकरावों को भूल जाएं। प्रयास करें कि नियमित समय में सभी लोग एक साथ बैठें, नाचें, गाएं और कुछ पल आनंद के बिताएं।

10. कम बारिश की संभावनाओं की जानकारी मिलते ही पानी के संचयन के उपायों को गंभीरता से लागू करने लगें।

11. प्रयास करें कि इलाके का हर खेत ‘‘फसल बीमा योजना’’ में शामिल हो।

सूखे के दौरान प्रबंधन
सूखे के दौरान संयम और प्रबंधन, शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही संभव हैं। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबंधन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।

1. सूखे के संकट का सामना करने का सूत्र है- साझा रहो। सूखे की मार से कहीं ज्यादा तकलीफदेहक होता है- अकेले पड़ जाना। यदि समूचा गांव एक-साथ हो तो लोग संकट और शोषण दोनों से बच सकते हैं।

2. सूखे के शुरूआती दिनों मेें कुछ दृढ़-संकल्प जरूरी हैं - गांव नहीं छोड़ेंगे, किसी ओर को भी नहीं छोड़ने देंगे, बच्चों का स्कूल जाना नहीं रोकेंगे, मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल सभी लोग समान रूप से करेंगे। यदि यह संकल्प कारगर हो गया तो सूखे की कड़ी धूप, पूर्णिमा के चांद की तरह शीतल महसूस होगी।

3. चाहे कम पानी से ही सही, नहाएं अवश्य। इसी तरह कपड़ों को भी साफ रखें, वरना खुजली जैसे रोग हो सकते हैं।

4. पीने का पानी शुद्ध हो, इसका पालन कड़ाई से करें। पानी चाहे हैंडपंप का हो या कुएं का या फिर नदी-पोखर का, उसे उबालना और छानना ना भूलें।

5. इस संकट के काल में सामाजिक या धार्मिक उत्सवों में फिजूलखर्ची और दिखाने से बचें।

6. यदि गांव/मुहल्ले में पानी के सभी खेत सूख गए हों तो वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना दें।

पाने के पानी को टैंकर के माध्यम से सप्लाई करवाने का सरकार के पास प्रावधान होता है। ऊपर सुनवाई ना होने की दशा में जन-प्रतिनिधियों और मीडिया के माध्यम से अपनी बात ऊपर तक पहुंचाएं।

7. दुर्भाग्य से यदि मवेशियों की मौत होने लगे तो लाशों के तत्काल निबटारे की व्यवस्था की जाए, वरना कई बीमारियां फैल सकती हैं।

8. जब चारे की कमी होती है, तब मवेशी जंगलों व चरागाहों में अंधाधुंध चराई करते हैं। इसके कारण जमीन की ऊपरी परत को नुकसान होता है। चिड़ियों, मवेशियों आदि के माध्यम से होने वाला बीजों का संचारण भी इससे प्रभावित होता है। मवेशियों के नंगी जमीन को लगातार चाटने और चलने से जमीन की उर्वरा-शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः चारे की व्यवस्था तथा अतिचराई पर गंभीरता से ध्यान दें।

9. मामूली मजदूरी की लालसा या पलायन के कारण बच्चों का स्कूल जान कतई न रोकें। बच्चों को स्कूल में ‘मिड डे मिल’ तो मिलता ही है, साथ ही पढ़ाई उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखती है। याद रहे कि अब कक्षा आठ तक के स्कूलों में मिड डे मील योजना लागू कर दी गई है।

10. गांव/मुहल्ले के हर घर के प्रत्येक सदस्य की जानकारी नियमित एकत्र करते रहें। कहीं शर्म या सामाजिक-संकोच के कारण कोई भूखा, बीमार या तनावग्रस्त तो नहीं है।

11. अगली फसल की तैयारी के लिए उचित बीज, खाद आदि के बारे में सोचें। इसके लिए कर्ज लेना हो तो सरकारी योजनाओं का ही सहारा लें।

12. गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और शिशुओं को पौष्टिक आहार मिलते रहना चाहिए। इसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, गैरसरकारी संगठन और पंचायत से सहयोग लेना आपका अधिकार है।

जनजीवन को सामान्य बनाने हेतु कदम
संकट, जन्म-मरण, बदलाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन मानव-जीवन की गति अबाध है। हर रात के बाद सुनहरी सुबह होती है। ठीक इसी तरह सूखे की विपदा के बाद सपनों, उम्मीदों और बदलाव का सभी को इंतजार रहता है। इस दौर में सामाजिक कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है।

1. अलबता तो कोशिश होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोड़कर ना जाए। मजबूरी में किसी को जाना ही पड़े तो उसका खाली घर सुरक्षित रहे, वहां चोरी या कब्जा न हो, यह समाज की जिम्मेदारी है।
2. नई फसल की तैयारी करना।
3. हम कहां असफल रहे, इसका आकलन कर भविष्य में इसके निदान के उपाय करना।

‘कम पानी में भी बेहतरीन जीवन जिया जा सकता है’’ - यह बात हमारे देश के कई जिलों के कई गांव के लोग सिद्ध कर चुके हैं। अल्प वर्षा की त्रासदी में सहज जिंदगी जीने के नुस्खे कुछ किताबों में बताए गए हैं। ये पुस्तकें आपके संदर्भ-केंद्र के लिए उपयोगी हो सकती हैं -

1. पानीदार समाज, लेखकः अमन नम्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली-110070

2. आज भी खरे हैं तालाब, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-10003

3. राजस्थान की रजत बूंदें, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-3

Submitted by Shivendra on Sat, 11/22/2014 - 14:58
Source:
Arsenic water
38 जिलों वाले बिहार राज्य के आठ जिलों का पानी ही प्राकृतिक रूप से पीने लायक है, शेष 30 जिलों के इलाके आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन से प्रभावित हैं। इन्हें बिना स्वच्छ किए नहीं पिया जा सकता। बिहार सरकार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने राज्य के 2,70,318 जल स्रोतों के पानी का परीक्षण कराया है।

इस परीक्षण के बाद ये आंकड़े सामने आए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक बिहार के उत्तर-पूर्वी भाग के 9 जिले के पानी में आयरन की अधिक मात्रा पाई गई है, जबकि गंगा के दोनों किनारे बसे 13 जिलों में आर्सेनिक की मात्रा और दक्षिणी बिहार के 11 जिलों में फ्लोराइड की अधिकता पाई गई है। सिर्फ पश्चिमोत्तर बिहार के आठ जिले ऐसे हैं जहां इनमें से किसी खनिज की अधिकता नहीं है। पानी प्राकृतिक रूप से पीने लायक है।

आर्सेनिक प्रभावित इलाके
राज्य में सबसे अधिक खतरा आर्सेनिक की अधिकता को लेकर है। यहां बक्सर जिले से लेकर भागलपुर-कटिहार तक गंगा नदी की राह में आने वाला तकरीबन हर जिला आर्सेनिक पीड़ित है। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक ये जिले हैं- बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, बेगुसराय, भागलपुर, लखीसराय, मुंगेर, खगड़िया, दरभंगा और कटिहार। आर्सेनिक प्रभावित जिलों के आंकड़े इस प्रकार हैं-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

बेगूसराय

4

84

भागलपुर

4

159

भोजपुर

4

31

बक्सर

4

385

दरभंगा

1

5

कटिहार

5

26

खगड़िया

4

246

लखीसराय

3

204

मुंगेर

4

118

पटना

4

65

समस्तीपुर

4

154

सारण

4

37

वैशाली

5

76

कुल

50

1,590



आर्सेनिक प्रभावित इलाकों के बारे में बात करते वक्त यह समझ लेना होगा कि दुनिया भर में बहुत कम इलाके आर्सेनिक प्रभावित हैं। एशिया में तो बक्सर से बांग्लादेश तक की गंगा पट्टी, मंगोलिया और वियतनाम-थाइलैंड के कुछ इलाके ही आर्सेनिक प्रभावित हैं।

फ्लोराइड प्रभावित इलाके
राज्य के 11 जिलों की 4157 बस्तियों के पेयजल में 1 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक मात्रा में फ्लोराइड मौजूद है, यानी ये इलाके डेंटल फ्लोरोसिस की जद में हैं। जाहिर तौर पर इनमें से सैकड़ों बस्तियों में 3 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड होगा यानि वे स्केलेटल फ्लोरोसिस की जद में होंगे और कुछ बस्तियों के पेयजल में 10 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड होगा यानी वे क्रिपलिंग स्केलेटल फ्लोरोसिस की जद में होंगे यानि उनकी हड्डियां टेढ़ी हो जाती होंगी। बहरहाल राज्य में फ्लोराइड प्रभावित इलाकों के आंकड़े राज्य सरकार के मुताबिक-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

नालंदा

20

213

औरंगाबाद

8

37

भागलपुर

1

224

नवादा

5

108

रोहतास

6

106

कैमूर

11

81

गया

24

129

मुंगेर

9

101

बांका

6

1,812

जमुई

10

1,153

शेखपुरा

6

193

कुल

98

4,157



आयरन प्रभावित जिले
उत्तर पूर्वी बिहार खास तौर पर कोसी नदी से सटे इलाकों के नौ जिले आयरन की अधिकता से प्रभावित हैं। इसी वजह से इन इलाकों को काला पानी भी कहा जाता रहा है। इन इलाकों में लोगों को स्वाभाविक रूप से गैस और कब्जियत की शिकायत रहती है। पानी का स्वाद तो कसैला हो ही जाता है। बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इन इलाकों का विवरण इस प्रकार है-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

खगड़िया

3

417

पूर्णिया

14

3,505

कटिहार

16

766

अररिया

9

2,069

सुपौल

11

3,397

किशनगंज

7

1,593

बेगूसराय

18

2,206

मधेपुरा

13

2,445

सहरसा

10

2,275

कुल

101

18,673



वैसे तो राज्य सरकार की ओर से इन समस्याओं से निबटने के लिए कई स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। हैंडपंपों में वाटर प्यूरीफिकेशन यंत्र लगाने से लेकर बड़े-बड़े वाटर ट्रीटमेंट प्लांट प्रभावित इलाकों में लगाए गए हैं। मगर ये उपाय बहुत जल्द बेकार हो जा रहे हैं, क्योंकि समाज इनमें स्वामित्व नहीं महसूस करता। न इनकी ठीक से देखभाल की जाती है, न ही खराब होने पर ठीक कराने की कोई सुनिश्चित व्यवस्था है।

ऐसे में इन इलाकों में लोगों को शुद्ध पेयजल हासिल हो पाना उनकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर है। जो लोग फिल्टर खरीद सकते हैं और आरओ लगवा पाते हैं वे शुद्ध पानी पी रहे हैं। बांकी उसी दूषित और हानिकारक पानी पीने को विवश हैं।







प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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प्लांट लगने के बावजूद बढ़ रहा है फ्लोरोसिस का खतरा- डॉ. अशोक घोष

Submitted by Shivendra on Fri, 11/28/2014 - 10:44
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पुष्यमित्र
Dr. Ashok Ghosh

. यह देखकर अच्छा लगता है कि बिहार की राजधानी पटना के अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज में पयार्वरण एवं जल प्रबंधन विभाग भी है। इस विभाग में मिलते हैं डॉ. अशोक कुमार घोष, जो पिछले तेरह-चौहद सालों से बिहार के विभिन्न इलाकों में पेयजल में मौजूद रासायनिक तत्वों और उनकी वजह से यहां के लोगों को होने वाली परेशानियों पर लगातार न सिर्फ शोध कर रहे हैं, बल्कि लोगों को जागरूक कर रहे हैं और इस समस्या का बेहतर समाधान निकालने की दिशा में भी अग्रसर हैं।

राज्य की गंगा पट्टी के इर्द-गिर्द बसे इलाकों में पानी में आर्सेनिक की उपलब्धता और आम लोगों पर पड़ने वाले इसके असर पर इन्होंने सफलतापूर्वक सरकार और आमजन का ध्यान आकृष्ट कराया है। पिछले तीन-चार साल से वे पानी में मौजूद एक अन्य खतरनाक रसायन फ्लोराइड की मौजूदगी और उसके कुप्रभावों पर काम कर रहे हैं। उनके प्रयासों का नतीजा है कि बिहार की सरकार भी इन मसलों पर काम करने की दिशा में सक्रिय हुई है और पूरे राज्य के जलस्रोतों का परीक्षण कराया गया है।

संकट नहीं है सूखा : सूखे से मुकाबला

Submitted by Shivendra on Mon, 11/24/2014 - 13:04
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पंकज चतुर्वेदी
Talab
. आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादों में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गर्मी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है।

भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।

कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं।

जिन इलाकों में अच्छी बारिश होती है वहां के लोग बेशकीमती पानी की कीमत नहीं जान पाते हैं। जिस साल वहां कुछ कम पानी बरसता है तो वे बेहाल हो जाते हैं। सूखे के दौर में पीने के पानी का संकट, अन्न का अभाव और मवेशियों के लिए चारे की कमी सिर उठाने लगती है। फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कुपोषण, बीमारी जीवन में आई अनिश्चितता के कारण मानसिक परेशानियां इस त्रासदी को भयावह बना देते हैं।

सूखा बेरोजगारी साथ ले कर आता है। ऐसे में लोग काम की तलाश में अपने घर-गांव से दूर पलायन करते हैं। छोटा किसान अगली फसल की तैयारी के लिए सूदखोरों की गिरफ्त में फंस जाता है। यह ऐसा दुष्चक्र होता है, जिससे बाहर निकलना बेहद कठिन है।

तो क्या सूखे से बचा जा सकता है? आज हमारा विज्ञान प्रकृति पर नियंत्रण के भले ही बड़े-बड़े दावे करे, लेकिन एक छोटी-सी प्राकृतिक आपदा के सामने हम बौने साबित होते हैं। हम ना तो बारिश को बुला सकते हैं, ना ही उसकी दिशा बदल सकते हैं। ऐसे में इस संकट का सहजता से सामना करने का एकमात्र रास्ता है- सावधानी और प्रबंधन।

सावधानी


आखिर मेरे इलाके का पानी कहां चला जाता है? जब रेगिस्तान में लोग थोड़े-से पानी में साल भर जीवन मजे से काटते हैं तो हम क्यों नहीं? जब मालूम है कि औसतन हर तीन साल में एक बार कम बारिश से हमारा पाला पड़ेगा तो हम पहले से तैयार क्यों नहीं रहते हैं? क्या कम बारिश होने के बाद सरकार की ओर उम्मीद से देखना या फिर पलायन कर जाना ही एकमात्र विकल्प है? ये सारे सवाल यदि आपके भी मन में आते हैं- तो निश्चित ही आप सूखे से जूझ सकते हैं।

पानी की हर बूंद को बचाना, पेड़ों का रोपण, खेती में बदलाव, जमीन को मवेशियों की अतिचराई से बचाना- ये ऐसे निदान हैं, जो कम बारिश के बावजूद सूखे के हालात बनने से रोक सकते हैं।

हर बूंद को बचाना


पीने के लिए स्वच्छ जल, खेत के लिए पर्याप्त सिंचाई, साफ-सफाई के लिए पानी और मवेशियों के लिए पेयजल पानी के बगैर इंसान का जीवन असंभव हैं। कम बारिश के संभावित इलाकों की जानकारी सभी को है। बारिश के समय पानी को रोकने के हरसंभव उपाय किए जाएं।

1. पारंपरिक तालाबों की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण गर्मी के महीनों में कर लें, जल-संग्रह हो सके।
2. पुराने तालाबों, झीलों के किनारों से पानी की आवक के रास्ते में यदि कोई रुकावट हो तो उन्हें हटा दें।
3. पुराने कुओं की नियमित सफाई करें। जिन रास्तों से पानी बह कर नदी- नालों में जाता हो, उसके आस-पास कुएं खोदें।
4. गांव-मुहल्ले के हैंडपंपों की सफाई मरम्मत।
5. पक्के घरों की छतों पर बारिश के पानी की निकासी को नाली में बहने देने से रोकें। इस पानी को किसी पाईप के जरिए, जमीन में गहरे उतार दें। इसे ‘‘वाटर हारवेस्टिंग’’ कहते हैं। इसकी तकनीकी जानकारी विकासखंड कार्यालय से लें और अधिक से अधिक भवनों में इस लागू करें।
6. हैंडपंप और ट्यूबवेल के करीब छोटे-छोटे गड्ढे या तलैया खोदें, जिससे बारिश का पानी इनमें एकत्र हो। यह पानी भूजल को ताकत देता है।
7. बर्तन और कपड़ों की धुलाई, वाहन व अन्य चीजों की सफाई में कम से कम पानी का इस्तेमाल करें। जहां जरूरी ना हो डिटरजेंट-साबुन का प्रयोग कतई ना करें। डिटरजेंट की सफाई में अधिक पानी लगता है।
8. हैंडपंप से बहे बेकार पानी को एकत्र करने की व्यवस्था करें। यदि पक्की हौद या टंकी बना लें तो बेहतर होगा। यह पानी मवेशियों के लिए जीवनदायी होगा।

पेड़ लगाना


जहां हरियाली होगी, वहां बादल जरूर बरसेंगे, यह बात विज्ञान से सिद्ध हो चुकी है। सूखे के हालात में पेड़ों की मौजूदगी किसी चमत्कार की तरह होती है। पेड़-पौधे जमीन की नमी बरकरार रखते हैं, साथ ही मिट्टी की ऊपरी सतह को टूटने-बिखरने से बचाते हैं।

1. गांव के स्कूल, पंचायत और ऐसी ही सार्वजनिक जगहों पर पेड़ लगाए जाएं। ध्यान रहे पेड़ वहीं चुनें जो पारंपरिक रूप से आपके इलाके का हो। सफेदा या विलायती बबूल लग तो जल्दी जाता है, लेकिन यह नए संकटों को बुलावा देते हैं।
2. फलदार पेड़ आय का वैकल्पिक साधन बनते हैं। आम, जामुन, नीम, नींबू जैसे पेड़ ज्यादा उपयोगी होंगे।
3. नदी, तालाबों के किनारे पड़ी बेकार जमीन पर चारा उगाएं। यह संकट के समय मवेशियों के लिए उपयोगी होगा। इससे जमीन का क्षरण भी रुकता है। मिट्टी की नमी बरकरार रहती है, सो अलग।

खेती-किसानी


बगैर पानी के खेती संभव नहीं है। आज कई ऐसे बीज बाजार में आ गए हैं, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है। साथ फसल भी जल्दी तैयार होती है।

1. खेत के आसपास छोटे-छोटे तालाब बनाएं। यह पानी भूजल के लिए फायदे-मंद होगा।
2. मक्का की जीएम-6, धान की अशोका-114, के अलावा चने की भी कुछ ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जो कम पानी मांगती हैं।
3. रासायनिक खादों के स्थान पर कंपोस्ट का इस्तेमाल भी खेतों में पानी की मांग को कम करता है।

प्रबंधन


सूखे का पूरे जन-जीवन पर विपरीत असर पड़ता है इसके बाद विकास के काम ठप्प हो जाते हैं। जो पैसा या संसाधन विकास के कामों में लगता, वह राहत व पुनर्वास में खर्च हो जाता है। भोजन, खेती, रोजगार, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य ऐसी ही कई समस्याएं सूखा साथ लेकर आता है। सूखे से संभावित क्षेत्रों में प्रबंधन के तीन प्रमुख चरण होते हैं।

1. सूखा-पूर्व तैयारी
2. सूखे के दौरान प्रबंधन
3. जन-जीवन सामान्य बनाने हेतु कदम

सूखा-पूर्व तैयारी


तालाबसूखे या ऐसी किसी आपदा को नियंत्रित करना तो संभव नहीं है, लेकिन इसका पूर्वानुमान होने पर इससे जूझने की तैयारी जरूर की जा सकती है। कम बारिश होने की मौसम विभाग की चेतावनियों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। वहीं बारिश के पूर्वानुमानों के देशी-पारंपरिक तरीकों को भी ध्यान देना ठीक रहता है। इसमें सतर्कता जरूरी है, क्योंकि पारंपरिक ज्ञान का अंधविश्वासों से घाल-मेल होने की बेहद संभावना होती है।

1. मौसम विभाग के पूर्वानुमानों को रेडियों, अखबार, टी.वी. के माध्यम से देखा पढ़ा जा सकता है। यदि कम बारिश की संभावना हो तो आने वाले महीनों के लिए सामूहिक तैयारी करनी होगी।

2. कृषि विस्तार अधिकारी और विकास खंड कार्यालयों में भी बारिश की संभावना की सूचनाएं उपलब्ध रहती हैं। इस सूचना को गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक इस तरह पहुंचाएं कि कहीं डर, आतंक या घबराहट का माहौल ना पैदा हो जाए। ध्यान रहे कि ऐसी हड़बड़ाहट का फायदा सूदखोर, बिचौलिए और काला बाजारी करने वाले लोग उठा सकते हैं।

3. गांव की कुल आबादी, मवेशियों की संख्या, जल के स्रोत आदि आंकड़ों कोेे एकत्र कर लें। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले महीनों में गांव में खाने की सामग्री पेयजल और चारे की कितनी मांग होगी।

4. पानी के कमी के कारण फैलने वाली बीमारियों की संभावित दवाईयां जैसे ओ. आर. एस. घोल आदि एकत्र रखें।

5. शुद्ध पेयजल के लिए देशी तकनीक पर आधारित छन्नों (बजरी, चूना, फिटकरी वाले) की व्यवस्था रखें। यदि असुरक्षित पानी पीने की मजबूरी हो तो पानी को उबालने व उसे देशी छन्नों से शुद्ध करने की तकनीक का घर-घर तक प्रचार करें।

6. रोजगार गांरटी योजना के तहत ‘जॉब-कार्ड’ बनवाएं। गांव की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में यदि कमी हो तो उसे ठीक करने के लिए संबंधित अधिकारी से संपर्क करें।

7. हालात बिगड़ने से पहले ही गांव के लोगों की दिक्कतों की जानकारी जिले के वरिष्ठ अधिकारियों तक अवश्य पहुंचाएं।

8. ‘अन्न-बैंक’ और ‘स्वयं सहायता समूह’ योजनाएं सूखा-संभावित इलाकों के लिए वरदान हैं। हर इंसान को अन्न और हर मवेशी को चारे का अनुमान लगाकर इसका भंडारण करें। ‘स्वयं सहायता समूह’ रोजगार के दूसरे अवसर मुहैया करवाने तथा ऊंची ब्याज दरों पर उधार देने वाले साहूकारों से मुक्ति का माध्यम हैं।

9. छोटे-मोटे आपसी विवादों, जातीय या धार्मिक टकरावों को भूल जाएं। प्रयास करें कि नियमित समय में सभी लोग एक साथ बैठें, नाचें, गाएं और कुछ पल आनंद के बिताएं।

10. कम बारिश की संभावनाओं की जानकारी मिलते ही पानी के संचयन के उपायों को गंभीरता से लागू करने लगें।

11. प्रयास करें कि इलाके का हर खेत ‘‘फसल बीमा योजना’’ में शामिल हो।

सूखे के दौरान प्रबंधन


राजस्थान के परंपरागत जल संरक्षण प्रणाल 'टांका'सूखे के दौरान संयम और प्रबंधन, शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही संभव हैं। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबंधन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।

1. सूखे के संकट का सामना करने का सूत्र है- साझा रहो। सूखे की मार से कहीं ज्यादा तकलीफदेहक होता है- अकेले पड़ जाना। यदि समूचा गांव एक-साथ हो तो लोग संकट और शोषण दोनों से बच सकते हैं।

2. सूखे के शुरूआती दिनों मेें कुछ दृढ़-संकल्प जरूरी हैं - गांव नहीं छोड़ेंगे, किसी ओर को भी नहीं छोड़ने देंगे, बच्चों का स्कूल जाना नहीं रोकेंगे, मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल सभी लोग समान रूप से करेंगे। यदि यह संकल्प कारगर हो गया तो सूखे की कड़ी धूप, पूर्णिमा के चांद की तरह शीतल महसूस होगी।

3. चाहे कम पानी से ही सही, नहाएं अवश्य। इसी तरह कपड़ों को भी साफ रखें, वरना खुजली जैसे रोग हो सकते हैं।

4. पीने का पानी शुद्ध हो, इसका पालन कड़ाई से करें। पानी चाहे हैंडपंप का हो या कुएं का या फिर नदी-पोखर का, उसे उबालना और छानना ना भूलें।

5. इस संकट के काल में सामाजिक या धार्मिक उत्सवों में फिजूलखर्ची और दिखाने से बचें।

6. यदि गांव/मुहल्ले में पानी के सभी खेत सूख गए हों तो वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना दें।

पाने के पानी को टैंकर के माध्यम से सप्लाई करवाने का सरकार के पास प्रावधान होता है। ऊपर सुनवाई ना होने की दशा में जन-प्रतिनिधियों और मीडिया के माध्यम से अपनी बात ऊपर तक पहुंचाएं।

7. दुर्भाग्य से यदि मवेशियों की मौत होने लगे तो लाशों के तत्काल निबटारे की व्यवस्था की जाए, वरना कई बीमारियां फैल सकती हैं।

8. जब चारे की कमी होती है, तब मवेशी जंगलों व चरागाहों में अंधाधुंध चराई करते हैं। इसके कारण जमीन की ऊपरी परत को नुकसान होता है। चिड़ियों, मवेशियों आदि के माध्यम से होने वाला बीजों का संचारण भी इससे प्रभावित होता है। मवेशियों के नंगी जमीन को लगातार चाटने और चलने से जमीन की उर्वरा-शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः चारे की व्यवस्था तथा अतिचराई पर गंभीरता से ध्यान दें।

9. मामूली मजदूरी की लालसा या पलायन के कारण बच्चों का स्कूल जान कतई न रोकें। बच्चों को स्कूल में ‘मिड डे मिल’ तो मिलता ही है, साथ ही पढ़ाई उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखती है। याद रहे कि अब कक्षा आठ तक के स्कूलों में मिड डे मील योजना लागू कर दी गई है।

10. गांव/मुहल्ले के हर घर के प्रत्येक सदस्य की जानकारी नियमित एकत्र करते रहें। कहीं शर्म या सामाजिक-संकोच के कारण कोई भूखा, बीमार या तनावग्रस्त तो नहीं है।

11. अगली फसल की तैयारी के लिए उचित बीज, खाद आदि के बारे में सोचें। इसके लिए कर्ज लेना हो तो सरकारी योजनाओं का ही सहारा लें।

12. गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और शिशुओं को पौष्टिक आहार मिलते रहना चाहिए। इसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, गैरसरकारी संगठन और पंचायत से सहयोग लेना आपका अधिकार है।

जनजीवन को सामान्य बनाने हेतु कदम


संकट, जन्म-मरण, बदलाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन मानव-जीवन की गति अबाध है। हर रात के बाद सुनहरी सुबह होती है। ठीक इसी तरह सूखे की विपदा के बाद सपनों, उम्मीदों और बदलाव का सभी को इंतजार रहता है। इस दौर में सामाजिक कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है।

1. अलबता तो कोशिश होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोड़कर ना जाए। मजबूरी में किसी को जाना ही पड़े तो उसका खाली घर सुरक्षित रहे, वहां चोरी या कब्जा न हो, यह समाज की जिम्मेदारी है।
2. नई फसल की तैयारी करना।
3. हम कहां असफल रहे, इसका आकलन कर भविष्य में इसके निदान के उपाय करना।

‘कम पानी में भी बेहतरीन जीवन जिया जा सकता है’’ - यह बात हमारे देश के कई जिलों के कई गांव के लोग सिद्ध कर चुके हैं। अल्प वर्षा की त्रासदी में सहज जिंदगी जीने के नुस्खे कुछ किताबों में बताए गए हैं। ये पुस्तकें आपके संदर्भ-केंद्र के लिए उपयोगी हो सकती हैं -

1. पानीदार समाज, लेखकः अमन नम्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली-110070

2. आज भी खरे हैं तालाब, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-10003

3. राजस्थान की रजत बूंदें, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-3

बिहार के आठ जिलों का पानी ही पीने लायक

Submitted by Shivendra on Sat, 11/22/2014 - 14:58
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पुष्यमित्र
Arsenic water
. 38 जिलों वाले बिहार राज्य के आठ जिलों का पानी ही प्राकृतिक रूप से पीने लायक है, शेष 30 जिलों के इलाके आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन से प्रभावित हैं। इन्हें बिना स्वच्छ किए नहीं पिया जा सकता। बिहार सरकार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने राज्य के 2,70,318 जल स्रोतों के पानी का परीक्षण कराया है।

इस परीक्षण के बाद ये आंकड़े सामने आए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक बिहार के उत्तर-पूर्वी भाग के 9 जिले के पानी में आयरन की अधिक मात्रा पाई गई है, जबकि गंगा के दोनों किनारे बसे 13 जिलों में आर्सेनिक की मात्रा और दक्षिणी बिहार के 11 जिलों में फ्लोराइड की अधिकता पाई गई है। सिर्फ पश्चिमोत्तर बिहार के आठ जिले ऐसे हैं जहां इनमें से किसी खनिज की अधिकता नहीं है। पानी प्राकृतिक रूप से पीने लायक है।

आर्सेनिक प्रभावित इलाके


राज्य में सबसे अधिक खतरा आर्सेनिक की अधिकता को लेकर है। यहां बक्सर जिले से लेकर भागलपुर-कटिहार तक गंगा नदी की राह में आने वाला तकरीबन हर जिला आर्सेनिक पीड़ित है। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक ये जिले हैं- बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, बेगुसराय, भागलपुर, लखीसराय, मुंगेर, खगड़िया, दरभंगा और कटिहार। आर्सेनिक प्रभावित जिलों के आंकड़े इस प्रकार हैं-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

बेगूसराय

4

84

भागलपुर

4

159

भोजपुर

4

31

बक्सर

4

385

दरभंगा

1

5

कटिहार

5

26

खगड़िया

4

246

लखीसराय

3

204

मुंगेर

4

118

पटना

4

65

समस्तीपुर

4

154

सारण

4

37

वैशाली

5

76

कुल

50

1,590



आर्सेनिक प्रभावित इलाकों के बारे में बात करते वक्त यह समझ लेना होगा कि दुनिया भर में बहुत कम इलाके आर्सेनिक प्रभावित हैं। एशिया में तो बक्सर से बांग्लादेश तक की गंगा पट्टी, मंगोलिया और वियतनाम-थाइलैंड के कुछ इलाके ही आर्सेनिक प्रभावित हैं।

बिहार के आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित पानी

फ्लोराइड प्रभावित इलाके


राज्य के 11 जिलों की 4157 बस्तियों के पेयजल में 1 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक मात्रा में फ्लोराइड मौजूद है, यानी ये इलाके डेंटल फ्लोरोसिस की जद में हैं। जाहिर तौर पर इनमें से सैकड़ों बस्तियों में 3 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड होगा यानि वे स्केलेटल फ्लोरोसिस की जद में होंगे और कुछ बस्तियों के पेयजल में 10 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड होगा यानी वे क्रिपलिंग स्केलेटल फ्लोरोसिस की जद में होंगे यानि उनकी हड्डियां टेढ़ी हो जाती होंगी। बहरहाल राज्य में फ्लोराइड प्रभावित इलाकों के आंकड़े राज्य सरकार के मुताबिक-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

नालंदा

20

213

औरंगाबाद

8

37

भागलपुर

1

224

नवादा

5

108

रोहतास

6

106

कैमूर

11

81

गया

24

129

मुंगेर

9

101

बांका

6

1,812

जमुई

10

1,153

शेखपुरा

6

193

कुल

98

4,157



आयरन प्रभावित जिले


उत्तर पूर्वी बिहार खास तौर पर कोसी नदी से सटे इलाकों के नौ जिले आयरन की अधिकता से प्रभावित हैं। इसी वजह से इन इलाकों को काला पानी भी कहा जाता रहा है। इन इलाकों में लोगों को स्वाभाविक रूप से गैस और कब्जियत की शिकायत रहती है। पानी का स्वाद तो कसैला हो ही जाता है। बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इन इलाकों का विवरण इस प्रकार है-

प्रभावित जिले

प्रभावित प्रखंड

प्रभावित बस्तियां

खगड़िया

3

417

पूर्णिया

14

3,505

कटिहार

16

766

अररिया

9

2,069

सुपौल

11

3,397

किशनगंज

7

1,593

बेगूसराय

18

2,206

मधेपुरा

13

2,445

सहरसा

10

2,275

कुल

101

18,673



वैसे तो राज्य सरकार की ओर से इन समस्याओं से निबटने के लिए कई स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। हैंडपंपों में वाटर प्यूरीफिकेशन यंत्र लगाने से लेकर बड़े-बड़े वाटर ट्रीटमेंट प्लांट प्रभावित इलाकों में लगाए गए हैं। मगर ये उपाय बहुत जल्द बेकार हो जा रहे हैं, क्योंकि समाज इनमें स्वामित्व नहीं महसूस करता। न इनकी ठीक से देखभाल की जाती है, न ही खराब होने पर ठीक कराने की कोई सुनिश्चित व्यवस्था है।

बिहार के आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित पानीऐसे में इन इलाकों में लोगों को शुद्ध पेयजल हासिल हो पाना उनकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर है। जो लोग फिल्टर खरीद सकते हैं और आरओ लगवा पाते हैं वे शुद्ध पानी पी रहे हैं। बांकी उसी दूषित और हानिकारक पानी पीने को विवश हैं।

बिहार के आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित पानी

बिहार के आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित पानी

बिहार के आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित पानी

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
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यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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